किसी को कैसे विश्वास होगा कि जो सरकार देश
के करोड़ों लोगों को अपनी ईमानदारी साबित करने के लिए नोट बदलने के लिए बैंकों की
लाइनों में लगा सकती है, वह नैतिक और संवैधानिक
तौर पर देश के सबसे जिम्मेदार वर्ग को जरा-सी पारदर्शिता के लिए प्रेरित नहीं कर
सकती!
जो व्यवस्था आम लोगों के प्रत्येक कामकाज पर
निगरानी चाहती है वह देश के राजनैतिक दलों को इतना भी बताने पर बाध्य नहीं कर सकती
कि आखिर उन्हें चंदा कौन देता है?
नए इलेक्टोरल बॉन्ड या राजनैतिक चंदा कूपन
की स्कीम देखने के बाद हम लिख सकते हैं कि राजनीति अगर चालाक हो तो वह अवैध को
अवैध बनाए रखने के वैध तंत्र (बैंक) को बीच में ला सकती है. इलेक्टोरल बॉन्ड या
कूपन इसी चतुर रणनीति के उत्पाद हैं, जहां बैंकों का इस्तेमाल
अवैधता को ढकने के लिए होगा.
- स्टेट बैंक चंदा कूपन (1,000, 10,000, एक
लाख, दस
लाख, एक
करोड़ रुपए) बेचेगा. निर्धारित औपचारिकताओं के बाद इन्हें खरीद कर राजनैतिक दलों को
दिया जा सकेगा. राजनैतिक दल 15 दिन के भीतर इसे बैंक से भुना लेंगे. कूपन से मिले चंदे की जानकारी सियासी
दलों को अपने रिटर्न (इनकम टैक्स और चुनाव आयोग) में देनी होगी.
- दरअसल, इलेक्टोरल
बॉन्ड एक नई तरह की करेंसी है जिसका इस्तेमाल केवल सियासी चंदे के लिए होगा.
समझना जरूरी है कि भारत में राजनैतिक चंदे
दागी क्यों हैं. यह इसलिए नहीं कि वे नकद में दिए जाते हैं. 2016 में नोटबंदी के ठीक बीचोबीच राजनैतिक दलों को 2,000 रुपए का चंदा नकद लेने की छूट मिली थी जो आज भी कायम है. चंदे इसलिए
विवादित हैं क्योंकि देश को कभी यह पता नहीं चलता कि कौन किस राजनैतिक दल को चंदा
दे रहा है? इस कूपन पर भी चंदा देने वाले का नाम नहीं
होगा. यानी यह सियासी चंदे को उसके समग्र अवैध रूप में सुविधाजनक बनाने का रास्ता
है.
सियासी चंदे को कितनी रियायतें मिलती हैं, आइए
गिनती कीजिएः
- अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने राजनैतिक
चंदे को वीआइपी बना दिया था. चंदा देने वाली कंपनियां इसे अपने खाते में खर्च
दिखाकर टैक्स से छूट ले सकती हैं जबकि सियासी दलों के लिए चंदे पूरे तरह टैक्स से
मुक्त हैं. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के आंकड़े बताते हैं कि 2012-16 के बीच पांच प्रमुख पार्टियों को उनका 89 फीसदी (945 करोड़ रुपए) चंदा
कंपनियों से मिला. यह लेनदेन पूरी तरह टैक्स फ्री है.
- कांग्रेस की सरकार ने चंदे के लिए
इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने की सुविधा दी, जिसके जरिए सियासी दलों
को पैसा दिया जाता है.
- नोटबंदी हुई तो भी राजनैतिक दलों के नकद
चंदे (2000 रुपये तक) बहाल रहे.
- मोदी सरकार एक और कदम आगे चली गई. वित्त
विधेयक 2017 में कंपनियों के लिए राजनैतिक चंदे पर लगी अधिकतम सीमा हटा ली गई. इससे
पहले तक कंपनियां अपने तीन साल के शुद्ध लाभ का अधिकतम 7.5 फीसदी हिस्सा ही सियासी चंदे के तौर पर दे सकती थीं. कंपनियों को यह बताने की शर्त
से भी छूट मिल गई कि उन्होंने किस दल को कितना पैसा दिया है.
तो फिर सियासी चंदे के लिए यह नई करेंसी
यानी इलेकटोरल बांड क्यों ?
तमाम रियायतों के बावजूद नकद में बड़ा चंदा
देना फिर भी आसान नहीं था. इलेक्टोरल बॉन्ड से अब यह सुविधाजनक हो जाएगा. अपनी
पूरी अपारदर्शिता के साथ नकद चंदेए बैंक कूपन के जरिए सियासी खातों में
पहुंचेंगे. सिर्फ राजनैतिक दल को यह पता होगा कि किसने क्या दिया, मतदाताओं
को नहीं. फर्जी पहचान (केवाइसी) के साथ खरीदे गए इलेक्टोरल कूपन, काले
धन की टैक्स फ्री धुलाई में मदद करेंगे !
यह वक्त सरकार से सीधे सवाल पूछने का हैः
- राजनैतिक चंदे को दोहरी (कंपनी और
राजनीतिक दल) आयकर रियायत क्यों मिलनी चाहिए? इससे
कौन-सी जन सेवा हो रही है?
- चंदे की गोपनीयता बनाए रखकर राजनैतिक दल
क्या हासिल करना चाहते हैं? देश को यह बताने में क्या
हर्ज है कि कौन किसको कितना चंदा दे रहा है.
भारत के चुनावी चंदे निरंतर चलने वाले
वित्तीय घोटाले हैं. यह एक विराट लेनदेन है जो लोकतंत्र की बुनियादी संस्था
अर्थात् राजनैतिक दल के जरिए होता है. यह एक किस्म का निवेश है जो चंदा लेने वाले
के सत्ता में आने पर रिटर्न देता है.
क्या हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि सरकार
किसी की हो या नेता कितना भी लोकप्रिय हो, वह
भारत की सबसे बड़ी राजनैतिक कालिख को ढकने के संकल्प से कोई समझौता नहीं करेगा! यह
अंधेर कभी खत्म नहीं होगा!