क्या राजनेता पिछले चुनाव में राजनैतिक संवादों और उपभोक्ता प्रचार के बीच गहरे अंतर को समझने में चूक रहे हैं
चल मेरी लूना”, “चुटकी में चिपकाए”, “कुछ मीठा हो जाए” जैसे सहज विज्ञापन संदेशों का “अच्छे दिन आने वाले हैं” से क्या रिश्ता है? यकीन करना
मुश्किल है लेकिन हकीकत में बीजेपी के लोकसभा चुनाव में अच्छे दिनों वाला संदेश, इन्हीं सहज
विज्ञापनों से प्रेरित था, जो हाल के दशकों में प्रभावी राजनैतिक परिवर्तन के संवाद का
सबसे बड़ा प्रतिमान बनकर उभरा. चुनावी वादे, राजनेताओं की
टिप्पणियां और सत्ता परिवर्तन, यकीनन, विज्ञापनी संदेशों जैसे नहीं होते. फिर “अच्छे दिन” आने का संदेश इतना बड़ा
वादा था जिसके सामने कुछ भी नहीं टिका. तारीफ करनी होगी विज्ञापन गुरु पीयूष पांडे
की न केवल, सीधे दिल में उतर
जाने वाले संदेश के लिए बल्कि इसके लिए भी कि उन्होंने राजनैतिक रूप से सही-गलत
होने की चिंता किए बगैर अपनी नई किताब में खुलकर यह स्वीकार किया कि “अच्छे दिन आने वाले हैं” संदेश की पृष्ठभूमि में
इसी तरह के चॉकलेटी विज्ञापन थे.
नरेंद्र मोदी के
लोकसभा चुनाव अभियान की विज्ञापन रणनीति की कमान पांडे के हाथ में थी जो प्रमुख
विज्ञापन एजेंसी ओऐंडएम के एग्जीक्यूटिव चेयरमैन और क्रिएटिव डायरेक्टर हैं. “अबकी बार मोदी सरकार” का जिंगल भी उन्हीं की
रचनात्मकता की देन थी. पांडे ने अपनी आत्मकथा पांडेमोनियम में लिखा है कि जुलाई 2013 में आए चुनावी
सर्वेक्षण बीजेपी की बढ़त तो दिखा रहे थे लेकिन बहुमत नहीं. त्रिशंकु संसद का
अंदेशा था. 7 सितंबर, 2013 को मोदी के
प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के बाद, बीजेपी के चुनाव
अभियान का लीड कैंपेन, सोहो स्क्वेयर को मिला जो कि ओऐंडएम की एजेंसी है.
पांडे लिखते हैं, “जैसे ही हम यह समझे कि वोटर क्या सुनना चाहते हैं, हम उन्हें वही
बताने लगे जिस पर वे भरोसा कर सकते थे.” यकीनन पांडे अपनी जगह सही थे. वे किसी उत्पाद या सेवा की
तर्ज पर बीजेपी के लिए एक विज्ञापन क्रिएटिव ही बना रहे थे, अलबत्ता उन्हें
शायद यह नहीं पता था कि वे चॉकलेट या बाइक नहीं, एक राजनैतिक
परिवर्तन का संदेश लिख रहे हैं जिसका आयाम और असर अपरिमित होने वाला है. “अच्छे दिन” बहुत भव्य राजनैतिक वादा
था, जिसे भारत तो
छोड़िए, विकसित देशों के
नेता भी करने में हिचकेंगे. 2015 बीतते-बीतते, बदलाव का सबसे भव्य संदेश उम्मीदों के टूटने की
गहरी कसक में बदल गया बल्कि खुद प्रधानमंत्री के लिए इस वड़े आश्वासन को “जुमला” बनने से रोकना असंभव होगा. ऐसा इसलिए हुआ चूंकि हमारे
राजनेता पिछले चुनाव में राजनैतिक संवादों और उपभोक्ता प्रचार के बीच गहरे अंतर को
लांघ गए थे. उन्हें उम्मीदें जगाते हुए यह ध्यान नहीं रहा कि जो कहा है, उसे करने की
योजना बतानी होगी और फिर अंततः करके दिखाना भी होगा.
अच्छे दिनों का
ऐंटी क्लाइमेक्स भारत के राजनैतिक संवादों के बड़बोले और अधकचरेपन का नया प्रतीक
है. मोदी ही नहीं, दूसरे नायक केजरीवाल भी इसी घाट फिसले. सब कुछ जनता से
पूछकर करने के वादों और दिल्ली को चुटकियों में बदलने की उम्मीदों के बरअक्स
केजरीवाल सरकार अहंकार की लड़ाई से भर गई और नई राजनीति और नई गवर्नेंस की उम्मीदें
ढह गईं. 2015 में यह बीमारी
इतनी फैली कि पूरा साल जहरीले, भड़कीले, चटकीले, बेहूदा, कुतर्की, तथ्यहीन, बेसिर-पैर के बयानों के लिए जाना जाएगा. नेताओं की यह फिसलन
ठीक उस वक्त नजर आई जब निर्णायक जनादेश देने के बाद लोग अपने नेताओं से अभूतपूर्व
गंभीरता, साख और समझदारी
की अपेक्षा कर रहे थे.
दिलचस्प है कि
इंटरनेट के आविष्कार और एक क्लिक पर अतीत उगल देने वाली सामूहिक मेमोरी (डिजिटल
अर्काइव) के बाद जब कहे-सुने अतीत को परखने की सुविधाएं उपलब्ध हैं, तब भारतीय
राजनेता कुछ भी बोलने की आदत में ज्यादा ही लिथड़ गए. 2015 में नेता मुंह
बाकर बोले इसलिए उनके बयानों की तासीर परखने में लोगों ने भी कोताही नहीं की. यह
पहला मौका था जब भारत में सरकार और नेताओं के झूठ व बड़बोलेपन पर डिजिटल सक्रियता
के साथ समाज इतना मुखर हुआ, जिसकी चपेट में आकर हफ्ते दर हफ्ते राजनीति व गवर्नेंस की
साख पर खरोंचें गहरी होती चली गईं.
2015 हमारे ताजा अतीत
में पहला वर्ष था जब सामाजिक-आर्थिक विकास के आंकड़ों पर बड़े शक-शुबहे पैदा हुए. आम
तौर पर भारत में बड़े सरकारी आंकड़ों मसलन जीडीपी, महंगाई, निर्यात, उत्पादन, सामाजिक विकास को
लेकर बहुत सवाल नहीं उठते, लेकिन इस साल की बहसें सुधारों के नए मॉडल की नहीं बल्कि
आंकड़ों और दावों की तथ्यपरकता पर केंद्रित थीं जो एक विशाल लोकतंत्र में सरकारी
तथ्यों को लेकर बढ़ते संदेह और झूठ के डर को पुख्ता करती थीं. अंततरू सरकार ने
दिसंबर में जो छमाही आर्थिक समीक्षा संसद में रखी वह आर्थिक तस्वीर को गुलाबी नहीं
बल्कि चुनौतीपूर्ण बताती है. इसलिए 2016 में सरकार को यह ध्यान भी रखना होगा कि चुनावी
वादों में गफलत फिर भी चल सकती है लेकिन एक उदार ग्लोबल बाजार में आंकड़ों की
बाजीगरी देश की साख ले डूबती है.
सरकारों, संस्थाओं और
कारोबारियों के बीच भरोसे की पैमाइश को लेकर एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे
काफी प्रतिष्ठित है जो हर साल जनवरी में आता है. जनवरी 2015 में आए सर्वे ने
भारत को पांच शीर्ष देशों में रखा था, जो विश्वास से भरपूर हैं, लेकिन सरकार पर
भरोसा घटने के कारण भारत इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. 2015 में यह ढलान बढ़
गई है.
पैसे के बाद अगर
कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के
झूठ व बड़बोलापन है. प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच
विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं. उम्मीदों के किले बनाना ठीक
है लेकिन लोग अब इन किलों की बुनियाद बनने में देरी बर्दाश्त नहीं करते. भारत के
राजनेताओं से अब आधुनिक समाज मुखातिब है. जो ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा
चिढ़ता है और झूठ को झूठ व सच को सच कहने से नहीं हिचकता. 2014 के चुनाव में
बीजेपी का एक और चर्चित चुनावी जिंगल था “जनता माफ नहीं करेगी.” पांडे लिखते हैं
कि बचपन में उन्होंने बार-बार सुना था कि “भगवान माफ नहीं करेगा.” यही कहावत इस
जिंगल का आधार थी. हमारे नेताओं को कुछ भी बोलते हुए अब यह याद रखना होगा कि जनता
माफ...!