जब किसी देश के
लोग चुनाव दर चुनाव समझदार और स्मार्ट होते जाते हैं तो क्या वहां की सियासत उतनी
ही बदहवास व दकियानूस होने लगती है!
2019 में जनता और
नेताओं के बीच एक नया समीकरण बन रहा है. एक तरफ होंगे वे वोटर जो अपनी जिंदगी
देखकर वोट देने लगे हैं और दूसरी तरफ हैं नेता जिनकी सियासत और पीछे खिसक गई है.
मोदी सरकार पूरे
पांच साल अपनी मनरेगा के आविष्कार में जुटी रही, जिसके जरिए 2009
जैसा करिश्मा किया जा सके. वह भूल गई कि यूपीए की दूसरी जीत मनरेगा नहीं बल्कि
2005-08 के बीच गांव और शहरी अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि से निकली थी. मनरेगा ने
तो आय बढ़ाने में मदद की थी.
भाजपा अब चंद ऐसी
स्कीमों (जन धन, स्वास्थ्य, बीमा, गांवों में बिजली) को करामाती बताकर चुनाव में उतरने वाली हैं जिन्हें बार-बार
आजमाया गया पर नतीजे नहीं बदलते.
सरकार में 29 लाख
पद खाली हैं, भर्ती करने के संसाधन नहीं हैं और आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण
के गुब्बारे उड़ा दिए गए.
दूसरी तरफ विपक्ष
के बीच गठबंधनों का वही लेन देन, अंकगणित का खेल. खजाना लुटाने के वादे और कर्ज
माफी की राजनीति.
चुनावों की
तैयारी में जुटे सत्ता पक्ष और विपक्ष के संवादों में भयानक भविष्यहीनता है. लगता
है इनकी निगाहें एक अंधेरी सुरंग में फिट कर दी गईं, जिसके छोर पर
सिर्फ चुनाव दिखते हैं और कुछ नहीं. राजनैतिक दल पिछले दशक में जिस तरह वादे करते
थे जैसी स्कीमें गढ़ते थे जैसे अवसरवादी गठजोड़ करते थे, आज भी सब कुछ
वैसा ही है.
जबकि मतदाता कहीं
ज्यादा समझदार हो चले हैं.
नेता हमेशा
मुगालते में रहते हैं कि वोटर भावनाओं, करिश्माई नेता और विभाजक
सियासत पर रीझ जाता है. लेकिन 13 प्रमुख राज्यों में पिछले तीन लोकसभा चुनावों और
इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि राज्यों का जीडीपी यानी
आर्थिक विकास दर गांवों में मजदूरी की दर में कमी या बढ़ोतरी मतदान के फैसलों में
निर्णायक रही है.
2004 और 2018 के
बीच जिन राज्यों में आर्थिक विकास दर या मजदूरी बढ़ी वहां सत्तारुढ़ दलों को
ज्यादा वोट मिले और विकास दर कम होने पर उलटा हुआ. यही वजह है कि 2018 के पहले
चुनाव चक्रों में उन राज्यों (केंद्र में भी) में सरकारों को दोबारा मौका मिला
जिनकी विकास दर ठीक थी.
शहरी मध्य वर्ग
ही राजनैतिक बहसों का मिजाज तय करता है. भारत का मध्यम वर्ग लगातार बढ़ रहा है. अब
इसमें 60 से 70 करोड़ लोग (द लोकल इंपैक्ट ऑफ ग्लोबलाइजेशन इन साउथ ऐंड साउथईस्ट
एशिया) शामिल हैं जिनमें शहरों के छोटे हुनरमंद कामगार भी हैं.
पिछले दो दशकों
में यह पहला मौका है जब भारत में मध्य वर्ग के लिए रोजगार, कमाई, खपत और बचत एक
साथ बुरी तरह गिरे हैं. गुजरात तक, जो शहरी मध्य वर्ग
सत्तारुढ़ भाजपा के साथ था वह बाद के चुनावों में सत्ता विरोधी लहर के हक में आ
गया.
25 साल के आर्थिक
उदारीकरण में देश भली तरह से तीन बातें समझ गया है जो नेता नहीं समझ सके.
एक: बाजार जितना
बड़ा और सरकार जितनी छोटी होगी रोजगार उतने ही बढ़ेंगे
दो: सरकार का
खर्च रोजगार और कमाई का विकल्प नहीं है. सरकार अगर ईमानदार है तो वह हद से हद कमाई
के अवसर बढ़ा सकती है
तीन: सरकारी
स्कीमें केवल संकटों में मदद कर सकती हैं और सुविधा बढ़ा सकती हैं बशर्ते सरकारों
के काम करने के तरीकों में तब्दीली आए.
गौर से देखिए, चुनाव से पहले
भारत की राजनीति हमें क्या थमा रही है: आरक्षण, गठबंधन और आजमाई जा चुकी
स्कीमें.
पश्चिम के देश
चुनावों से अच्छी सरकारें न निकलने को लेकर फिक्रमंद हो रहे हैं. उनको लगता है कि
मतदाता सही फैसला नहीं कर पाते क्रिस्टोफर एचेन और लैरी बार्टेल्स की ताजा पुस्तक
डेमोक्रेसी फॉर रियलिस्ट्स—व्हाई इलेक्शसन्स डू नॉट प्रोड्यूस रिस्पांसिव गवर्नेमेंट
खासी चर्चा में रही है जो बताती है कि चुनावों में मतदाता विभाजक राजनीति में बह
जाते हैं लेकिन भारत के चुनाव नतीजे बार-बार इस बात की ताकीद करते हैं कि यहां के
भोले मतदाता यूरोप और अमेरिका के वोटरों से कहीं ज्यादा समझदार हैं.
भारत पर ‘जैसी जनता, वैसे नेता’ की कहावत हमेशा
गलत साबित होती रही है. यह संयोग है या दुर्योग लेकिन 2019 में पहले से कहीं
ज्यादा सयाना मतदाता, पहले से कहीं ज्यादा पिछड़ी राजनीति के सामने
होगा. हमें जैसी राजनीति मिल रही है, हम उससे कहीं ज्यादा
बेहतर नेताओं के हकदार हैं.