गलवान घाटी
के शहीदों
को याद
करने के
बाद ताऊ
से रहा
नहीं गया. युद्ध संस्मरणों
की जीवंत
पुस्तक बन
चुके ताऊ
ने भर्राई
आवाज में
पूछ ही
लिया कि
कोई बतावेगा
कि चीन
ने कब
धोखा नहीं
दिया, फिर
भी वह
किस्म-किस्म
के सामान
लेकर हमारे
घर में
कैसे घुस
गया?
ताऊ के
एक सवाल
में तीन
सवाल छिपे
हैं, जिन्हें
मसूद अजहर, डोकलाम से
लेकर लद्दाख
तक चीन
के धोखे, निरंतर देखने
वाला हर
कोई भारतीय
पूछना चाहेगा.
पहला सवालः सुरक्षा
संबंधी संवेदनीशलता
के बावजूद
पिछले पांच-छह साल
में चीनी
टेलीकॉम कंपनियां
भारतीय बाजार
पर कैसे
छा गईं, खासतौर पर
उस वक्त
बड़े देश
चीन की
दूरसंचार कंपनियों
पर सामूहिक
शक कर
रहे थे
और चीनी 5जी को
रोक रहे
थे?
दूसरा सवाल:
चीन की
सरकारी कंपनियां
जो चीन
की सेना
से रिश्ता
रखती हैं
उन्हें संवेदनशील
और रणनीतिक इलाकों
से जुड़ी
परियोजनाओं में
निवेश की
छूट कैसे
मिली? क्यों
चाइना स्टेट
कंस्ट्रक्शन इंजीनिरिंग
कॉर्पोरेशन, चाइना
रेलवे कंस्ट्रक्शन,
चाइना रोलिंग
स्टॉक कॉर्पोरेशन
रेलवे, हाइवे
और टाउनशिप के
प्रोजेक्ट में
सक्रिय हैं? न्यूक्लियर, बिजली (टर्बाइन, मशीनरी) और
प्रतिरक्षा (बुलेट
प्रूफ जैकेट
का कच्चा
माल) में
चीन का
सीधा दखल
भी इसी
सवाल का
हिस्सा है.
तीसरा सवालः चीन
से सामान
मंगाना ठीक
था लेकिन
हम पूंजी
क्यों मंगाने
लगे? संवेदनशील
डिजिटल
इकोनॉमी में
चीन की
दखल कैसे
स्वीकार कर
ली?
चीन पर
स्थायी शक
करने वाले
भारतीय कूटनीतिक
तंत्र की
रहनुमाई में
ही ड्रैगन
का व्यापारी
से निवेशक
में बदल
जाना आश्चर्यजनक
है. 2014 में
नरेंद्र मोदी
के प्रधानमंत्री
बनने से
पहले तक
दिल्ली के
कूटनीतिक हलकों में
यह वकालत
करने वाले
अक्सर मिल
जाते थे
कि चीन
के साथ
भारत का
व्यापार घाटा
खासा बड़ा
है. यानी
चीन को
निर्यात कम
है और
आयात ज्यादा. इसकी भरपाई
के लिए
चीन को
सीधे निवेश
की छूट
मिलनी चाहिए ताकि
भारत में
तकनीक और
पूंजी आ सके. अलबत्ता
भरोसे की
कमी के
चलते चीन
से सीधे
निवेश का
मौका नहीं
मिला.
2014 के
बाद निवेश
का पैटर्न
बताता है
कि शायद
नई सरकार
ने यह
सुझाव मान
लिया और
तमाम शक-शुबहों के
बावजूद चीन
भारत में
निवेशक बन
गया. दूरसंचार
क्षेत्र इसका
सबसे प्रत्यक्ष
उदाहरण है.
आज हर
हाथ में
चीनी कंपनियों
के मोबाइल
देखने वाले
क्या भरोसा
करेंगे कि 2010-2011 में जब
कंपनियां नेटवर्क
के लिए
चीनी उपकरणों
निर्भर थीं
तब संदेह
इतना गहरा
था कि
भारत ने
चीन के
दूरसंचार उपकरणों
पर प्रतिबंध
लगा दिया
था?
2014 के
बाद अचानक
चीनी दूरसंचार
उपरकण निर्माता
टिड्डी की
तरह भारत
पर कैसे
छा गए? इलेक्ट्राॅनिक्स मैन्युफैक्चरिंग पर पूंजी सब्सिडी (लागत के
एक हिस्से
की वापसी) और कर
रियायत की
स्कीमें पहले
से थीं
लेकिन शायद
तत्कालीन सरकार
चीन के
निवेश को
लेकर सहज
नहीं थी
इसलिए चीनी
मोबाइल ब्रांड
नहीं आ सके.
मेक इन
इंडिया के
बाद यह
दरवाजा खुला
और शिओमी, ओप्पो, वीवो, वन
प्लस आदि
प्रमुख ब्रांड
की उत्पादन
इकाइयों के
साथ भारत
चीनी मोबाइल
के उत्पादन
का बड़ा
उत्पादन केंद्र
बन गया. यह निवेश
सरकार की
सफलताओं की
फेहरिस्त
में न केवल सबसे
ऊपर है
बल्कि कोविड
के बाद
इसमें नई
रियायतें जोड़ी
गई हैं.
सनद रहे
कि इसी
दौरान (2018) अमेरिका में
सरकारी एजेंसियों
को हुआवे
व जेडटीई
से किसी
तरह की
खरीद से
रोक दिया
गया. अमेरिका
के बाद
ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन और
न्यूजीलैंड ने
भी इन
कंपनियों से
दूरी बनाई
लेकिन भारत में
लोगों के
हाथ में
ओप्पो-वीवो
हैं, नेटवर्क
को हुआवे
और जेडटीई
चला रहे
हैं और
ऐप्लिकेशन के
पीछे अलीबाबा
व टेनसेंट
की पूंजी
है.
विदेश व्यापार
और निवेश
नीति को
करीब से
देखने वालों
के लिए
भारत में
रणनीतिक तौर
पर संवेदनशील
कारोबारों में
चीन की
पूंजी का
आना हाल
के वर्षों
के लिए
सबसे बड़ा
रहस्य है. पिछली सरकारों
के दौरान
चीन पर
संदेह का
आलम यह
था कि 2010 में तत्कालीन
राष्ट्रीय सुरक्षा
सलाहकार ने
चीन से
निवेश तो
दूर, आयात
तक सीमित
करने के
लिए प्रमुख
मंत्रालयों की
कार्यशाला बुलाई
थी. कोशिश यह
थी कि
इनके विकल्प
तलाशे जा
सकें.
इन सवालों
का सीधा
जवाब हमें
शायद ही
मिले कि
चीन से
रिश्तों में
यह करवट, पिछली गुजरात
सरकार और
चीन के
बीच गर्मजोशी
की देन
थी या
पश्चिमी
देशों की
उपेक्षा के
कारण चीन
को इतनी
जगह दे
दी गई
या फिर
कोई और
वजह थी
जिसके कारण
चीनी कंपनियां
भारत में
खुलकर धमाचौकड़ी
करने लगीं. अलबत्ता हमें
इतना जरूर
पता है
कि 2014 के
बाद का
समय भारत
व चीन
के कारोबारी
रिश्तों का
स्वर्ण युग
है और
इसी की
छाया में
चीन ने
फिर धोखा
दिया है. मजबूरी इस
हद तक
है कि
सरकार उसके
आर्थिक दखल
को सीमित
करने का
जोखिम भी नहीं
उठा सकती.
ठीक ही
कहा था
सुन त्जु
ने कि
श्रेष्ठ लड़ाके
युद्ध से
पहले ही
जीत जाते
हैं.