यूरोपीय बैंकरों के सपने में आज कल राबिन हुड आता है, घोड़े पर सवार, टैक्स का चाबुक फटकारता हुआ!! हेज फंड मैनेजरों को पिछले कुछ महीनों से बार-बार टोबिन टैक्स वाले जेम्स टोबिन (विदेश मुद्रा कारोबार पर टैक्स) की आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं!! नया कर लगाकर ओबामा अमेरिकी बैंकों के लिए उद्धारक की जगह अब मारक हो गए हैं! भारतीय रिजर्व बैंक भी विदेशी निवेशकों को टोबिन टैक्स का खौफ दिखाता है!! और पूरी दुनिया की वित्तीय संस्थाओं के प्रमुख तो अब आईएमएफ का नाम सुनकर सोते से जाग पड़ते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष विश्व के महाकाय वित्तीय कारोबार पर टैक्स की कटार चलाने को तैयार है। ..यह बदलाव हैरतअंगेज है। उदार पूंजी के आजाद परिंदों के लिए पूरी दुनिया मिलकर तरह-तरह के जाल बुनने लगी है। हर कोई मानो वित्तीय संस्थाओं से उनकी गलतियों और संकटों की कीमत वसूलने जा रहा है। वित्तीय बाजार के सम्राट कठघरे में हैं और खुद को भारी जुर्माने व असंख्य पाबंदियों के लिए तैयार कर रहे हैं। यकीनन, एक संकट ने बहुत कुछ बदल दिया है।
और बिल कौन चुकाएगा?
वित्तीय बाजार के ऊंट अब पहाड़ के नीचे हैं। दुनिया के दिग्गज बैंकों व वित्तीय संस्थाओं की पारदर्शिता कसौटी पर है। इनके ढहते समय राजनीतिक नुकसान देखकर सरकारों ने इन्हें जो संजीवनी दी थी, अब उसका बिल वसूलने की बारी है। ताजा हिसाब बताता है कि दुनिया के भर के बैंकों व वित्तीय संस्थाओं ने डेरीवेटिव्स के खेल में करीब 1.5 ट्रिलियन डालर गंवाए हैं। जबकि बैलेंस शीट से बाहर जटिल वित्तीय सौदों का नुकसान दस ट्रिलियन डालर तक आंका जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक संकट से पहले तक दुनिया भर बैंकों की शेयर पूंजी दो ट्रिलियन डालर के करीब थी। यानी कि बैंकों के पास घाटा है पूंजी नहीं। वित्तीय विश्लेषक मान रहे हैं कि बैंकों को उबारने पर दुनिया की सरकारें 9 ट्रिलियन डालर तक खर्च कर चुकी हैं। इस रकम को उंगलियों पर गिनना (डालरों के हिसाब में ट्रिलियन बारह शून्य वाली रकम है। रुपये में बदलने के बाद यह और बड़ी हो जाती है) बहुत मुश्किल है। बेचैनी इसलिए है कि बैंकों के साथ देश भी दीवालिया होने लगे हैं। आइसलैंड ढह गया है, संप्रभु कर्जो में डिफाल्टर बर्बाद ग्रीस को यूरोपीय समुदाय और आईएमएफ ने रो झींक कर 60 बिलियन डालर की दवा दी है। सरकारों को यह पता नहीं आगे कितनी और कीमत उन्हें चुकानी होगी। इसलिए वित्तीय खिलाडि़यों या संकट के नायकों पर नजला गिरने वाला है। दिलचस्प है कि जिस अमेरिका ने पिछले साल नवंबर में जी 20 देशों की बैठक में इस टैक्स को खारिज कर दिया था, उसी ने बैंकों पर नया कर थोप कर करीब 90 बिलियन डालर निकाल लिये है। ..अमेरिका को देखकर अब पूरी दुनिया वित्तीय कारोबार पर तरह-तरह के करों का गणित लगाने लगी है।
हमको राबिन हुड मांगता!
यूरोप के लोग वित्तीय संस्थाओं के लिए राबिन हुड छाप इलाज चाहते हैं। अमीरों से छीनकर गरीबों को बांटने वाला इलाज। आक्सफैम जैसे यूरोप के ताकतवर स्वयंसेवी संगठनों ने वित्तीय संस्थाओं पर राबिन हुड टैक्स लगाने की मुहिम चला रखी है। मांग है कि बैंकों व वित्तीय संस्थाओं के आपसी सौदों पर 0.05 फीसदी की दर से कर लगाकर हर साल करीब 400 बिलियन डालर जुटाए जाने चाहिए। पूरे प्रसंग में राबिन हुड का संदर्भ प्रतीकात्मक मगर बेहद अर्थपूर्ण है। दरअसल आंकड़ों वाली वित्तीय दुनिया भी नैतिकता के सवालों में घिरी है। अमेरिकन एक्सप्रेस, सिटीग्रुप, एआईजी, गोल्डमैन, मोरगन, बैंक आफ अमेरिका, वेल्स फार्गो से लेकर यूरोप के आरबीएस, लायड्स और बर्बादी के नए प्रतीक ग्रीस के एप्सिस बैंक तक, पूरी दुनिया का लगभग हर बड़ा बैंक दागदार है और कर्जदार है अपने देश की आम जनता का, जिसके टैक्स की रकम से इन्हें उबारा गया है। मुनाफे तो इनके अपने थे, लेकिन इनकी बर्बादी सार्वजनिक हो गई है। जाहिर है, कोई सरकार आखिर कब तक इनकी गलतियों का बोझ ढोएगी? इसलिए यह सवाल अब बडे़ होने लगे हैं कि बैंक दुनिया में सबसे ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। यहां अन्य उद्योगों की तुलना में प्रति कर्मचारी मुनाफा 26 गुना ज्यादा है। तो फिर इन्हें अपनी बर्बादी से बचाने का बिल चुकाना चाहिए। राबिन हुड टैक्स का आंदोलन चलाने वाले कहते हैं कि यह संकट एक अवसर है। इनके अकूत मुनाफे से कुछ हिस्सा निकलेगा तो भूखे-गरीबों और बिगड़ते पर्यावरण के काम आएगा। ..यह वित्तीय सूरमाओं से प्रायश्चित कराने की कोशिश है।
गलती करने का. तो टैक्स भरने का
वित्तीय अस्थिरता का इलाज निकालने के लिए अधिकृत आईएमएफ ने ताजी रिपोर्ट में अपना फंडा साफ कर दिया है। मतलब यह कि जोगलती करें, वे टैक्स भरें। क्योंकि सरकारों के पास खैरात नहीं है। मुद्राकोष दो तरह के टैक्स लगाने की राय दे रहा है। पहला कर इस मकसद से कि आगे अगर कोई बैंक डूबे तो उसे उबारने के लिए पहले से इंतजाम हो। यह कर बैंकों की कुल देनदारियों पर लगेगा। बकौल आईएमएफ इससे हर देश को अपने जीडीपी आकारके कम से कम दो फीसदी के बराबर की राशि जुटानी होगी। अमेरिका में इससे 300 अरब डालर मिलने का आकलन है। जबकि दूसरा कर वित्तीय कामकाज कर कहा जा रहा है। यह बैंकों के अंधाधुंध मुनाफों और अधिकारियों दिए जाने वाले मोटे बोनस पर लगेगा। इसके अलावा विभिन्न देशों में वित्तीय कारोबार पर कर से लेकर विदेशी मुद्रा वापस ले जाने पर टोबिन टैक्स जैसी कई तरह की चर्चाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कारोबार का आकार (बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के आंकड़े के अनुसार सालाना 60 ट्रिलियन डालर का शेयर, 900 ट्रिलियन डालर का विदेशी मुद्रा, 2200 ट्रिलियन डालर का डेरीवेटिव्स, 950 ट्रिलियन डालर का ओटीसी डेरीवेटिव्स और स्वैप कारोबार) इतना बड़ा है कि छोटा सा टैक्स भी बहुत बड़ा हो जाता है। हिसाब किताब लगाने वाले कहते हैं कि विश्व का सालाना वित्तीय कारोबार पूरी दुनिया के जीडीपी से 11 गुना ज्यादा है !!! .. एक तो इतना बड़ा कारोबार, ऊपर से खतरे हजार और डूबने पर सरकार से मदद की गुहार... ओबामा लेकर गार्डन ब्राउन और एंजेला मर्केल तक सब कह रहे हैं ..बहुत नाइंसाफी है।
वित्तीय बाजार में ग्रीस की साख जंक यानी कचरा हो गई है। दीवालियेपन की दंतकथाएं बना चुका मशहूर स्पेन फिर आंच महसूस कर रहा है। इसलिए वित्तीय संस्थाएं भले ही कुनमुनाएं लेकिन माहौल उनके हक में नहीं है, क्योंकि देशों का दीवालिया होना बहुत बड़ी आपदा है। मुमकिन है कि एक माह बाद जून में कनाडा में होने वाली बैठक में जी 20 देशों के अगुआ मिलकर वित्तीय जगत के सम्राटों के लिए टैक्स की सजा मुकर्रर कर दें। कोई नहीं जानता कि बैंकों को मिलने वाली सजा बाजारों को उबारेगी या डुबाएगी? पता नहीं बैंक इन करों का कितना बोझ खुद उठायेंगे और कितना उपभोक्ताओं के सर डाल कर बच जाएंगे? ..दो साल पहले तक वित्तीय सौदों पर टैक्स व सख्ती की बात करने गंवार और पिछड़े कहाते थे, मगर आज हर तरफ पाबंदियों की पेशबंदी है। पता नहीं तब का खुलापन सही था या आज की पाबंदी। असमंजस में फंसी दुनिया अपने नाखून चबा रही है। ..बाजार की जबान में सब कुछ बहुत 'वोलेटाइल' है। ..''देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं, पैरों तले जमीन है या आसमान है।''
अन्यर्थ .... http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)
और बिल कौन चुकाएगा?
वित्तीय बाजार के ऊंट अब पहाड़ के नीचे हैं। दुनिया के दिग्गज बैंकों व वित्तीय संस्थाओं की पारदर्शिता कसौटी पर है। इनके ढहते समय राजनीतिक नुकसान देखकर सरकारों ने इन्हें जो संजीवनी दी थी, अब उसका बिल वसूलने की बारी है। ताजा हिसाब बताता है कि दुनिया के भर के बैंकों व वित्तीय संस्थाओं ने डेरीवेटिव्स के खेल में करीब 1.5 ट्रिलियन डालर गंवाए हैं। जबकि बैलेंस शीट से बाहर जटिल वित्तीय सौदों का नुकसान दस ट्रिलियन डालर तक आंका जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक संकट से पहले तक दुनिया भर बैंकों की शेयर पूंजी दो ट्रिलियन डालर के करीब थी। यानी कि बैंकों के पास घाटा है पूंजी नहीं। वित्तीय विश्लेषक मान रहे हैं कि बैंकों को उबारने पर दुनिया की सरकारें 9 ट्रिलियन डालर तक खर्च कर चुकी हैं। इस रकम को उंगलियों पर गिनना (डालरों के हिसाब में ट्रिलियन बारह शून्य वाली रकम है। रुपये में बदलने के बाद यह और बड़ी हो जाती है) बहुत मुश्किल है। बेचैनी इसलिए है कि बैंकों के साथ देश भी दीवालिया होने लगे हैं। आइसलैंड ढह गया है, संप्रभु कर्जो में डिफाल्टर बर्बाद ग्रीस को यूरोपीय समुदाय और आईएमएफ ने रो झींक कर 60 बिलियन डालर की दवा दी है। सरकारों को यह पता नहीं आगे कितनी और कीमत उन्हें चुकानी होगी। इसलिए वित्तीय खिलाडि़यों या संकट के नायकों पर नजला गिरने वाला है। दिलचस्प है कि जिस अमेरिका ने पिछले साल नवंबर में जी 20 देशों की बैठक में इस टैक्स को खारिज कर दिया था, उसी ने बैंकों पर नया कर थोप कर करीब 90 बिलियन डालर निकाल लिये है। ..अमेरिका को देखकर अब पूरी दुनिया वित्तीय कारोबार पर तरह-तरह के करों का गणित लगाने लगी है।
हमको राबिन हुड मांगता!
यूरोप के लोग वित्तीय संस्थाओं के लिए राबिन हुड छाप इलाज चाहते हैं। अमीरों से छीनकर गरीबों को बांटने वाला इलाज। आक्सफैम जैसे यूरोप के ताकतवर स्वयंसेवी संगठनों ने वित्तीय संस्थाओं पर राबिन हुड टैक्स लगाने की मुहिम चला रखी है। मांग है कि बैंकों व वित्तीय संस्थाओं के आपसी सौदों पर 0.05 फीसदी की दर से कर लगाकर हर साल करीब 400 बिलियन डालर जुटाए जाने चाहिए। पूरे प्रसंग में राबिन हुड का संदर्भ प्रतीकात्मक मगर बेहद अर्थपूर्ण है। दरअसल आंकड़ों वाली वित्तीय दुनिया भी नैतिकता के सवालों में घिरी है। अमेरिकन एक्सप्रेस, सिटीग्रुप, एआईजी, गोल्डमैन, मोरगन, बैंक आफ अमेरिका, वेल्स फार्गो से लेकर यूरोप के आरबीएस, लायड्स और बर्बादी के नए प्रतीक ग्रीस के एप्सिस बैंक तक, पूरी दुनिया का लगभग हर बड़ा बैंक दागदार है और कर्जदार है अपने देश की आम जनता का, जिसके टैक्स की रकम से इन्हें उबारा गया है। मुनाफे तो इनके अपने थे, लेकिन इनकी बर्बादी सार्वजनिक हो गई है। जाहिर है, कोई सरकार आखिर कब तक इनकी गलतियों का बोझ ढोएगी? इसलिए यह सवाल अब बडे़ होने लगे हैं कि बैंक दुनिया में सबसे ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। यहां अन्य उद्योगों की तुलना में प्रति कर्मचारी मुनाफा 26 गुना ज्यादा है। तो फिर इन्हें अपनी बर्बादी से बचाने का बिल चुकाना चाहिए। राबिन हुड टैक्स का आंदोलन चलाने वाले कहते हैं कि यह संकट एक अवसर है। इनके अकूत मुनाफे से कुछ हिस्सा निकलेगा तो भूखे-गरीबों और बिगड़ते पर्यावरण के काम आएगा। ..यह वित्तीय सूरमाओं से प्रायश्चित कराने की कोशिश है।
गलती करने का. तो टैक्स भरने का
वित्तीय अस्थिरता का इलाज निकालने के लिए अधिकृत आईएमएफ ने ताजी रिपोर्ट में अपना फंडा साफ कर दिया है। मतलब यह कि जोगलती करें, वे टैक्स भरें। क्योंकि सरकारों के पास खैरात नहीं है। मुद्राकोष दो तरह के टैक्स लगाने की राय दे रहा है। पहला कर इस मकसद से कि आगे अगर कोई बैंक डूबे तो उसे उबारने के लिए पहले से इंतजाम हो। यह कर बैंकों की कुल देनदारियों पर लगेगा। बकौल आईएमएफ इससे हर देश को अपने जीडीपी आकारके कम से कम दो फीसदी के बराबर की राशि जुटानी होगी। अमेरिका में इससे 300 अरब डालर मिलने का आकलन है। जबकि दूसरा कर वित्तीय कामकाज कर कहा जा रहा है। यह बैंकों के अंधाधुंध मुनाफों और अधिकारियों दिए जाने वाले मोटे बोनस पर लगेगा। इसके अलावा विभिन्न देशों में वित्तीय कारोबार पर कर से लेकर विदेशी मुद्रा वापस ले जाने पर टोबिन टैक्स जैसी कई तरह की चर्चाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कारोबार का आकार (बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के आंकड़े के अनुसार सालाना 60 ट्रिलियन डालर का शेयर, 900 ट्रिलियन डालर का विदेशी मुद्रा, 2200 ट्रिलियन डालर का डेरीवेटिव्स, 950 ट्रिलियन डालर का ओटीसी डेरीवेटिव्स और स्वैप कारोबार) इतना बड़ा है कि छोटा सा टैक्स भी बहुत बड़ा हो जाता है। हिसाब किताब लगाने वाले कहते हैं कि विश्व का सालाना वित्तीय कारोबार पूरी दुनिया के जीडीपी से 11 गुना ज्यादा है !!! .. एक तो इतना बड़ा कारोबार, ऊपर से खतरे हजार और डूबने पर सरकार से मदद की गुहार... ओबामा लेकर गार्डन ब्राउन और एंजेला मर्केल तक सब कह रहे हैं ..बहुत नाइंसाफी है।
वित्तीय बाजार में ग्रीस की साख जंक यानी कचरा हो गई है। दीवालियेपन की दंतकथाएं बना चुका मशहूर स्पेन फिर आंच महसूस कर रहा है। इसलिए वित्तीय संस्थाएं भले ही कुनमुनाएं लेकिन माहौल उनके हक में नहीं है, क्योंकि देशों का दीवालिया होना बहुत बड़ी आपदा है। मुमकिन है कि एक माह बाद जून में कनाडा में होने वाली बैठक में जी 20 देशों के अगुआ मिलकर वित्तीय जगत के सम्राटों के लिए टैक्स की सजा मुकर्रर कर दें। कोई नहीं जानता कि बैंकों को मिलने वाली सजा बाजारों को उबारेगी या डुबाएगी? पता नहीं बैंक इन करों का कितना बोझ खुद उठायेंगे और कितना उपभोक्ताओं के सर डाल कर बच जाएंगे? ..दो साल पहले तक वित्तीय सौदों पर टैक्स व सख्ती की बात करने गंवार और पिछड़े कहाते थे, मगर आज हर तरफ पाबंदियों की पेशबंदी है। पता नहीं तब का खुलापन सही था या आज की पाबंदी। असमंजस में फंसी दुनिया अपने नाखून चबा रही है। ..बाजार की जबान में सब कुछ बहुत 'वोलेटाइल' है। ..''देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं, पैरों तले जमीन है या आसमान है।''
अन्यर्थ .... http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)