Showing posts with label rupee devaluation. Show all posts
Showing posts with label rupee devaluation. Show all posts

Wednesday, July 27, 2022

आह रुपया वाह रुपया

 

 रुपये की गिरावट को लेकर तैर रहे मीम्‍स और चुटकुलों पर जमकर ठहाके लगाइये.  आपका हक बनता है यह.. क्‍यों कि रुपये की  कीमत पर भारतीय राजनीति की प्रतिक्रियायें दरअसल   च‍िरंतन लॉफ्टर चैलेंज है. इस तरफ वालों के लिए रुपये की कमजोरी ही उसकी ताकत है और उस तरफ वालों के लिए कमजोर रुपया देश की साख का कचरा हो जाना है. कांग्रेस और भाजपा को अलग अलग भूमिकाओं को यह प्रहसन रचाते हुए बार बार देखा गया है  

अलबत्‍ता इस बार  मामला जरा ज्‍यादा ही  टेढ़ा हो गया है. डॉलर अब 80 रुपये के करीब है. इतना कभी नहीं टूटा. यानी एक बैरल तेल (115-120 डॉलर ) करीब 10000 रुपये का. या कि एक टन आयात‍ित कोयला करीब 30000 रुपये का. 

रुपये की ढलान पर खीझने और खीसें न‍िपोरने वाले दोनों को इस सवाल का जवाब चाहिए कि आख‍िर रुपया कितना और गिर सकता है? शायद वह यह भी जानना चाहेंगे कि क्‍या सरकार और रिजर्व बैंक रुपये की गिरावट रोक सकते हैं?

 

रुपया मजबूत या कमजोर 

रिजर्व बैंक के पैमानों पर रुपया अभी भी महंगा है यानी ओवरवैल्‍यूड है !!

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक का रुपी रियल इफेक्‍ट‍िव रेट इंडेक्‍स यानी रीर जून के दूसरे सप्‍ताह में 123.4 पर था एक साल पहले यह  117 अंक पर था. इस इंडेक्‍स की बढ़त बताती है कि हमें कमजोर दिख रहा रुपया दरअसल प्रतिस्‍पर्धी मुद्राओं के मुकाबले मजबूत है.. 

रिजर्व बैंक अमेरिकी डॉलर सहित 40 मुद्राओं की एक पूरी टोकरी के आधार पर  रुपये की विन‍िमय दर तय करता है. यह मुद्रायें भारत के व्‍यापार भागीदारों की हैं. यही है रीर, जो बताता है कि न‍िर्यात बाजार में भारत की मुद्रा कितनी प्रतिस्‍पर्धात्‍मक है रीर  से  पहले नीर भी है. यानी नॉमिनल इफक्‍ट‍िव एक्‍सचेंज रेट.  जो दुतरफा कारोबार में रुपये की प्रतिस्‍पर्धी ताकत का पैमाना  है. अलग अलग मुद्राओं के नीर का औसत रीर है.

रीर सूचकांक पर रुपया डॉलर के मुकाबले तो टूटा है लेक‍िन इस टोकरी की 39 मुद्रायें भारत की तुलना में कहीं ज्‍यादा कमजोर हुई हैं. खासतौर पर यूरो बुरी तरह घायल है.  इसलिए रीर पर रुपया मजबूत है.

आप रुपये की कमजोरी को रोते रहिये, सरकार और रिजर्व बैंक के रीर पर रुपया ताकत से फूल रहा है.

रिजर्व बैंक को एक और राहत है क‍ि 2008 के वित्‍तीय संकट और 2013 में अमेरिकी ब्‍याज दरें बढ़ने के दौर में लगातार गिरावट के दौर में रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 20 फीसदी तक टूटा था. अभी दिसंबर से जून तक यह ग‍िरावट छह फीसदी से कम है.  हालांकि 2008 से 2022 के बीच भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले 48 से 80 के करीब आ गया है.  

रीर और नीर जैसे पैमाने  निर्यात के पक्ष में हैं. लेक‍िन जैसे ही हम निर्यात वाला चश्‍मा उतार देते हैं रुपये की गिरावट खौफ से भर देती है. क्‍यों कि कमजोर रुपया आयात की लागत बढ़ाकर हमें दोहरी महंगाई में भून रहा है. भारत की थोक महंगाई में 60 फीसदी हिस्‍सा इंपोर्टेड इन्‍फलेशन का है. सनद रहे कि  2022 के वित्‍त वर्ष 192 अरब डॉलर रिकार्ड व्‍यापार घाटा (आयात और न‍िर्यात का अंतर) दर्ज किया.

रिजर्व बैंक की दुविधा

अगर रिजर्व बैंक बाजार में डॉलर छोडता रहे तो रुपये की गिरावट रुक जाएगी लेक‍िन वक्‍त रिजर्व बैंक के माफ‍िक नहीं है. वह तीन वजहों से कीमती विदेशी मुद्रा का हवन नहीं करना चाहता.

एक -   2018 तक भारतीय बाजारों से औसत एक अरब डॉलर हर माह बाहर जाते थे निकल रहे थे लेक‍िन इस जनवरी के बाद यह निकासी पांच अरब डॉलर मास‍िक हो गई है.  विदेशी निवेशकों को भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में फिलहाल उम्‍मीद नहीं दिख रही है. बाजार में डॉलर झोंककर भी यह उड़ान नहीं रोकी जा सकती.

दो -  डॉलर इंडेक्‍स अपनी ताकत के शि‍खर पर है. अमेरिका में ब्‍याज दरों जि‍तनी बढ़ेंगी,  डॉलर मजबूत हो जाएगा और रुपये की कमजोरी बढ़ती रहेगी.

तीन -  महंगाई पूरी दुनिया में है. भारतीय आयात में 60 फीसदी हिस्‍सा खाड़ी देशों, चीन, आस‍ियान, यूरोपीय समुदाय और अमेरिका से आने वाले सामानों व सेवाओं का है. जहां  2021 में निर्यात महंगाई 10 से  33 फीसदी तक बढ़ी है. महंगाई का आयात रोकना मुश्‍क‍िल है. आयात‍ित सामान महंगा होने से  सरकार को ज्‍यादा इंपोर्ट ड्यूटी मिलती है तो इसलिए यहां भी कुछ खास नहीं हो सकता.

 

कहां तक गिरेगा रुपया ?

 

रिजर्व बैंक की कोशि‍श  रुपये को नहीं विदेशी मुद्रा भंडार को बचाने की है. पिछली गिरावटों की तुलना में डॉलर के मुकाबले रुपया  उस कदर नहीं टूटा है जितनी कि कमी विदेशी मुद्रा में भंडार दिख रही है. मई से फरवरी 2008-09 के बीच रुपये की निरंतर गिरावट के दौरान विदेशी मुद्रा भंडार करीब 65 अरब डॉलर की कमी आई थी उसके बाद सबसे बड़ी गिरावट बीते नौ माह में यानी 21 अक्‍टूबर से 22 जून के बीच आई जिसमें जिसमें करीब 51 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार से न‍िकल गए हैं

विदेशी मुद्रा भंडार अभी जीडीपी का करीब 20 फीसदी है. अगर यह गिरकर 15 फीसदी यानी 450 अरब डॉलर तक चला गया तो बड़ी घबराहट फैलेगी.

 

विदेशी मुद्रा भंडार इस समय 593 अरब डॉलर है. रिजर्व बैंक का इंटरनेशनल इन्‍वेस्‍टमेंट पोजीशन (आईआईपी) इस भंडार की ताकत का  हिसाब बताता है.  दिसंबर 2021 के  आईआईपी आंकड़ों के अनुसार   छोटी अवध‍ि के कर्ज और शेयर बाजार में पोर्टफोलियो निवेश की देनदारी निकालने के बाद भंडार में करीब 200 अरब डॉलर बचते हैं जो  60-63 अरब डॉलर (जून 2022) के मासिक इंपोर्ट बिल के हिसाब से केवल तीन चार माह के लिए पर्याप्‍त है. यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने डॉलर की आवक बढ़ाने के लिए अन‍िवासी भारतीयों ,कंपन‍ियों और  विदेशी निवेशकों  के लिए रियायतों का नया पैकेज जारी किया है.

सरकार और रिजर्व बैंक को 80 के पार रुपये पर भी कोई दिक्‍कत नहीं है. बस एक मुश्‍त तेज गिरावट रोकी जाएगी. रुपया रोज गिरने के नए रिकार्ड बनायेगा. आप  बस  किस्‍म किस्‍म की आयात‍ित महंगाई झेलने के लिए अपनी पीठ मजबूत रख‍िये.

Sunday, June 19, 2022

हम थे जिनके सहारे



 

राज्‍यों के अगले चुनाव दिल्‍ली के लिए अगला रोमांच हैं. लेक‍िन मुंबई गहरी मुश्‍क‍िल में है या यानी  कैच 22 में . मुंबई से मतलब है शेयर बाजार, सेबी, रिजर्व बैंक कंपनियों के न‍िवेश की दुनिया. जो दिल्‍ली जैसा कुछ नहीं देख पा रही है.

युद्धों की चर्चा ज़बानों की नोक पर है तो सनद रहे कैच 22 यानी गहरे अंतरविरोध का परिचय देने वाला मुहावरा दरअसल जंग की कथा से न‍िकला था. अमेरिकी उपन्‍यासकार जोसेफ हेलर ने दूसरे विश्‍व युद्ध की पृष्‍ठभूमि में जंग और नौकरशाही पर 1961 में कैच 22 नाम एक व्‍यंग्‍यात्‍मक उपन्‍यास लिखा था

यह कहानी योसेर‍ियन नाम एक लड़ाकू पायलट की थी जो जंग में तैनाती से बचने के लिए खुद को पागल घोष‍ित कर देता है. डॉक्‍टर उसकी जांच करते हैं और रिपोर्ट देते हैं कि युद्ध नहीं करना चाहता तो वह पागल है ही नहीं क्‍यों कि युद्ध के लिए पागलपन पहली शर्त है. यानी कि योसेर‍ियन को अगर खुद को पागल साबित करना है तो उसे जहाज से बम बरसाने थेलेकिन अगर यही करना है तो खुद को    पागल कहलाने से क्‍या फायदा ?

 

क्‍या है कैच 22 मुंबई का

मुंबई यानी व‍ित्‍तीय बाजारों और नियामकों का कैच 22 क्‍या है ?

भारत की ताजा मुसीबतों की जड़ शेयर बाजार है

जिनकी उम्‍मीदें थीं कि कोविड तो गया. अब भारत  तूफान से बाहर निकल आया है उन्‍हें अब यह बाजार एक एसे दुष्‍चक्र का प्रस्‍थान बिंदु लग रहा है  जहां कृपा अटक गई है

आप कहेंगे कुछ ज्‍यादा नहीं हो गया यह आकलन. इतनी विराट  अर्थव्‍यवस्‍था और छोटा सा शेयर बाजार ? भारत के लोगों की कुल बचतों में शेयरों का हिस्‍सा तो केवल 4.8 फीसदी है, एसा जेफ्रीज की एक ताजा रिपोर्ट ने कहा है

यही तो है वह रोमांचक बटरफ्लाई इफेक्‍ट यानी केऑस थ्‍योरी जिसमें एक छोटी सी घटना या बदलाव बड़े तूफान उठा देती है.  एक दूसरे में गहराई से गुंथी बुनी वित्‍तीय दुनिया इस इफेक्‍ट का शानदार नमूना है. शेयर बाजार के छोटे से आकार पर गफलत में रहना ठीक नहीं है बात तित‍िलयों की है तो यहां से कुछ ति‍त‍िलयां पतंगों की उड़ान ने कुछ एसा तूफान उठा दिया है कि दूर जालंधर में मोबाइल रिपेयर वाले परमजीत पुर्जे महंगे होने के कारण दुकान बंद करनी पड़ रही है  

आपका आश्‍चर्य बनता हैं सांसत में तो वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमन भी रहीं हैं, आरबीआई गवर्नर तो बेबाक चौंक रहे हैं

बटरफ्लाई इफेक्‍ट

बटरफ्लाई एफेक्‍ट को समझने के लिए इसकी सूक्ष्‍म शुरुआत को नहीं बल्‍क‍ि बल्‍क‍ि महासागरीय आकार के प्रभाव को देखना चाहिए. जड़ शेयर बाजार में तेज गिरावट, मंदी वाले बाजार की आहट और विदेशी निवेशकों के प्रवास से है लेक‍िन हम रुख करते है भारत की सबसे खतरनाक दरार की ओर. वह है डॉलर के मुकाबले कमजोर होता रुपया जो 78 के करीब है, 80 की मंज‍िल दूर नहीं है. और भारत का टूटता विदेशी मुद्रा भंडार जो अब केवल एक साल के आयात के लिए पर्याप्‍त है.

भारत में विदेशी मुद्रा के प्रमुख स्रोत सामान सेवाओ निर्यात, शेयर बाजार में निवेश और विदेशी पूंजी निवेश (पीई स्‍टार्ट अप) हैं. एक छोटा सा हिससा विदेशी व्‍यक्‍त‍िगत धन प्रेषण आदि का है.   

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विदेशी मुद्रा भंडार नौ माह के आयात की जरुरत के स्‍तर तक घट सकता है. गिरावट में 45 फीसदी हिस्‍सा डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी का है, 30 फीसदी गिरावट रुपये को बचाने में रिजर्व बैंक तरफ झोंके गए डॉलर के कारण आई है जबकि 25 फीसदी कमी आयात की लागत बढने से आई है

चार्ट .. भारत का विदेशी मुद्रा भंडा गिरावट

भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 27 मई 2022 को समाप्‍त सप्‍ताह में करीब 597 अरब डॉलर था. वित्‍त वर्ष 2022  भारत का कुल आयात करीब 610 अरब डॉलर रहा और निर्यात करीब 418 अरब डॉलर. यही वजह है कि भारत ने 2022 के वित्‍त वर्ष की समाप्‍ति‍ रिकार्ड 192 अरब डॉलर व्‍यापार घाटे (आयात और निर्यात का अंतर) से की. आयात के बिल की रोशनी में विदेशी मुद्रा भंडार साल भर के आयात से कम है. बाजार से निकलने वाली विदेशी पूंजी और विदेशी कर्ज के भुगतान की जरुरतें अलग से

विदेशी मुद्रा भंडार के हिसाब को एक और बड़ी तस्‍वीर में फिट किया जाता है. ताकि समग्र अर्थव्‍यवस्‍था की ताकत कमजोरी मापी जा सके. यह करेंट अकाउंट डेफश‍िट या सरप्‍लस है. यह किसी देश में विदेशी मुद्रा की आवक निकासी का सबसे बड़ा हिसाब होता है और देश बाहरी मोर्चे पर ताकत कमजोरी का पैमाना. इस घाटे की गणना में सामानों के निर्यात आयात के अलावा, सेवाओं का निर्यात, शेयर बाजार में विदेशी निवेश, विदेशी पूंजी न‍िवेश, विदेश से भेजे गए धन आद‍ि शामिल होते हैं .

कोविड के वर्षों में तो भारत ने इस घाटे को खत्‍म कर दिया था क्‍यों कि आयात बंद थे लेक‍िन अब यह नौ साल की ऊंचाई पर है. यानी करीब 23 अरब डॉलर. दस साल का सबसे ऊंचा स्‍तर दूर नही है.

आयात की तुलना में निर्यात तो कम हैं हीं इसके साथ ही विदेशी निवेश (प्रत्‍यक्ष, स्टार्ट अप, पीई व शेयर बाजार) में जोरदार गिरावट आई. रिजर्व बैंक के आंकड़े के अनुसार अप्रैल फरवरी 2021-22 में यह केवल 24.6 अरब डॉलर रहा हो जो बीते साल इसी अवध‍ि में 80.1 अरब डॉलर था.

ध्‍यान रखना जरुरी है कि विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्‍तता यानी एक साल के आयात के बराबर होने तक रुपये का गिरना निर्यात को प्रतिस्‍पर्धी बनाता है लेक‍िन यदि भंडार घटने लगे तो रुपये की गिरावट मुसीबत बन जाती है.

रुपये की ताकत का सीधा रिश्‍ता विदेशी मुद्रा भंडार से है. व्‍यापार घाटा और करेंट अकाउंट डेफश‍िट ज‍ितना बढ़ेगा यह भंडार उतना ही घटेगा और रुपये की ताकत छीजती जाएगी. बीते एक करीब छह माह से यही हो रहा है

अब कमजोर रुपये ने कच्‍चे तेल कोयले सहित धातुओं में महंगाई का तूफान ला दिया है. रिजर्व बैंक डॉलर की मांग पूरा करने के लिए विदेशी मुद्रा झोंक रहा है, विदेशी मुद्रा भंडार गिरे रहा है और रुपये पर दबाव बढ़ रहा है. यही है कैच 22 का पहला हिस्‍सा जिसे देखकर मुंबई को ड‍िप्रशन हो रहा है

अब दूसरा हिस्‍सा

 

शुरु से शुरु करें

लौटते हैं शेयर बाजार की तरफ यानी त‍ितल‍ियों की तरफ जो शेयर बाजार से जुड़ी हैं. नोटबंदी से लेकर कोविड की बंदी और मंदी तक

भारत के शेयर बाजार में विदेशी निवेशक रीझ रीझ कर उतरते रहे. उनका निवेश बढ़ता गया और शेयर बाजार चढ़ता गया. क्‍या ही हैरत थी जब कोविड में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था गहरी मंदी में थी, मौतें हो रही थीं तब विदेश‍ियों का भरोसा बढ़ता गया.

यकीनन शेयर बाजार से बहुतेरे लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता, पड़े भी क्‍यों लेक‍िन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को इससे बड़ा फर्क पड़ा. अर्थव्‍यवस्‍था में तरह तरह की उठापटक के बीच शेयर बाजार में विदेशी निवेश और विदेशी मुद्रा में बढ़ोत्‍तरी में एक सीधा रि‍श्‍ता दिखता है.

बीते अक्‍टूबर से जब भारत में हालात सुधरने शुरु हुए तब से इन निवेशकों ने बाजार में बेचना शुरु कर दिया. इनकी निकासी के बाद रुपये में गिरावट शुरु हो गई. विदेशी मुद्रा भंडार छीजने लगा. बची हुई कसर महंगे तेल और रिकार्ड व्‍यापार घाटे ने पूरी कर दी.

त‍ितल‍ियो की बेरुखी

विदेशी निवेशक केवल डॉलर नहीं लाते. वे लाते हैं अरबो डॉलर का भरोसा. इसलिए क्‍यों कि वे भारत की आर्थि‍क भव‍िष्‍य पर दांव लगा रहे थे. महमारी की घोर मंदी में भी उनका निवेश सूखा नहीं क्‍यों कि वापसी की उम्‍मीद थी.

तो अब क्‍या हो रहा है?

भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को लेकर पैमाना बदल रहा है. पूंजी की लागत बढ रही है जबकि भारत की विकास दर के आकलन गिर रहे हैं. यदि अगले कुछ साल में भारत की महंगाई रहित शुद्ध विकास दर  5-6 फीसदी रहती है तो इक्‍व‍िटी पर 10-11 फीसदी से ज्‍शदा रिटर्न मुश्‍क‍िल है. शेयर बाजार में कुछ अच्‍छी कंपनियां रहेंगी अलबत्‍ता लेक‍िन वह महंगी भी होंगी. अर्थव्‍यवस्‍था जब तक 13-14 फीसदी की महंगाई सहित दर विकास दर दर्ज नहीं करती भारत की एक तिहाई आबादी की कमाई और मांग नहीं बढ़ेगी और न ही उत्‍पादों का बाजार और कंपनियों के मुनाफे

रुपया विदेशी मुद्रा भंडार और महंगाई के साझा समाधान के लिए अगर सरकार को कोई एक दुआ मांगनी हो तो  वह यही होनी चाहिए कि क‍िसी तरह शेयर बाजार दौड़ने लगे.  विदेशी निवेशक वापस कर लें. उनकी पूंजी आई तो रुपये की ढलान रुकेगी. आयाति‍त मंहगाई कम होगी. अर्थव्‍यवस्‍था में भरोसा आएगा. घरेलू निवेशकों के छोटे निवेश बाजार को ढहने नहीं देंगी लेक‍िन बाजार को दौड़ाने की दम इस निवेश में नहीं है. लेक‍िन इसके भारत की सरकार को सब कुछ छोड़ कर अर्थव्‍यवस्‍था को ढलान रोकने का अनुष्‍ठान करना होगा जो जैसा कि 1991 में या 2008 के लीमैन संकट के वक्‍त हुआ था. विदेशी ताकत के मोर्च पर भारत या श्रीलंका पाकिस्‍तान में सबसे बड़ा फर्क यह है कि गैर इमर्जिंग अर्थव्‍यवस्‍थाओं में विकास दर भले ही तेज हो लेक‍िन यहा कैपिटल मार्केट नहीं है, निर्यात के अलावा गैर कर्ज वाली विदेशी पूंजी के स्रोत नहीं है इसलिए यह हमेशा खतरे में होंती हैं और आईएमएफ की मोहताज हैं

भारत इ‍मर्ज‍िंग इकोनॉमी इसलिए है क्‍यों क‍ि यहां डॉलरों की एक और पाइपलाइन खुलती है जो शेयर बाजार में आती है और हमें सुरक्षि‍त करती है. यह पूंजी भविष्‍य पर ग्‍लोबल भरोसे का प्रमाण है.

शेयर बाजार में बेयर ट्रैप या मंदी की भविष्‍यवाण‍ियां तैर रही हैं. अर्थव्‍यवस्‍था विदेशी निवेशकों की वापसी बर्दाश्‍त नहीं कर सकता. क्‍यों कि  आयात निर्यात वाले मुद्रा भंडार के मामले में दुन‍िया से बहुत फर्क नहीं है

 

 


Friday, September 20, 2019

बदकिस्मत सुधार !

अगर मंदी खपत गिरने की वजह से है तो फिर कंपनियों को करीब 1.47 लाख करोड़ की टैक्स रियायत क्योंइतनी ही रियायत उपभोक्ताओं को दी जाती तो कंपनियां तो मांग बढ़ाने के उपाय मांग रही थी सरकार ने उनके मुनाफे बढ़ाने का इंतजाम कर दिया.

अगर सरकारी बैंकों का विलय इतना ही क्रांतिकारी है तो फिर बाजार  क्यों कह रहा है कि यह अगले कुछ वर्ष तक बैंकों पर बड़ा भारी पड़ेगा?

अगर इलेक्ट्रिक वाहनों की इतनी जरूरत है तो फिर नीति और रियायतों के ऐलान के बाद सरकार को क्यों लगा कि जल्दबाजी ठीक नहीं है?

यह दोनों ही सिद्धांत की कसौटी पर सौ टंच सुधार हैं जैसे कि जीएसटी या फिर रियल एस्टेट रेगुलेटर (रेराआदिइनकी जरूरत से किसे इनकार होगालेकिन यह नामुराद अर्थव्यवस्था अजीब ही शय हैयहां सबसे ज्यादा कीमती होती है नीतियों की सामयिकतावक्त की समझ ही नीतियों को सुधार बनाती है.

पिछले पांच-छह वर्षों में सुधारों की टाइमिंग बिगड़ गई हैदवाएं बीमार कर रही हैं और सहारे पैरों में फंसकर मुंह के बल गिराने लगे हैं.

बैंकों का महाविलय अभी क्यों प्रकट हुआयह फाइल तो वर्षों से सरकार की मेज पर हैबैंकों को कुछ पूंजी देकर एक चरणबद्ध विलय 2014 में ही शुरू हो सकता थाया फिर स्टेट बैंक (सहायक बैंकऔर बैंक ऑफ बड़ोदा (देना बैंकके ताजा विलय के नतीजों का इंतजार किया जाताइस समय मंदी दूर करने के लिए सस्ते बैंक कर्ज की जरूरत है लेकिन अब बैंक कर्ज बांटने की सुध छोड़कर बहीखाते मिला रहे हैं और घाटा बढ़ने के डर से कांप रहे हैंनुक्सान घटाने के लिए कामकाज में दोहराव खत्म होगा यानी नौकरियां जाएंगी.

बैंकों के पास डिपॉजिट पर ब्याज की दर कम करने का विकल्प नहीं हैजमा टूट रही है तो फिर वह रेपो रेट के आधार पर कर्ज कैसे देंगेयह सुधार भी बैंकों के हलक में फंस गया.

रियल एस्टेट रेगुलेटरी बिल (रेराएक बड़ा सुधार थालेकिन यह आवास निर्माण में मंदी के समय प्रकट हुआनतीजतन असंख्य प्रोजेक्ट बंद हो गएडूबा कौनग्राहकों का पैसा और बैंकों की पूंजीअब जो बचेंगे वे मकान महंगा बेचेंगेरिजर्व बैंक ने यूं ही नहीं कहा कि भारत में मकानों की महंगाई सबसे बड़ी आफत है और यह बढ़ती रहेगीक्योंकि कुछ ही बिल्डर बाजार में बचेंगे.

ऑटोमोबाइल की मंदी गलत समय पर सही सुधारों की नुमाइश हैमांग में कमी के बीच डीजल कारें बंद करने और नए प्रदूषण के नियम लागू किए गए और जब तक यह संभलतासरकार बैटरी वाहनों की दीवानी हो गई. इन सबकी जरूरत थी लेकिन क्या सब एक साथ करना जरूरी थानतीजे सामने हैंकई कंपनियां बंद होने की तरफ बढ़ रही हैं.

एक और ताजा फैसलाजब शेयर बाजारअर्थव्यवस्था की बुनियाद दरकने से परेशान था तब उस पर टैक्स लगा दिए गएबाजार पर टैक्स पहले भी कम नहीं थे लेकिन बेहतर ग्रोथ के बीच उनसे बहुत तकलीफ नहीं हुईसरकार जब तक गलती सुधारती तब तक विदेशी निवेशक बाजार से पैसा निकाल कर रुपए को मरियल हालत में ला चुके थे.

नोटबंदी सिद्धांतों की किताब में सुधार जरूर है लेकिन यह जरूरी नहीं था कि हर अर्थव्यवस्था इसे झेल सकेकाला धन नहीं रुकाकैशलैस इकोनॉमी नहीं बनी लेकिन कारोबार तबाह हो गए.

सिंगल यूज प्लास्टिक बंद होना चाहिए लेकिन विकल्प तो सोच लिया जाताइस मंदी में केवल प्लास्टिक ही एक सक्रिय लघु उद्योग हैयह फैसला इस कारोबार पर भारी पड़ेगा.

जन धनबैंकरप्टसी कानूनमेक इन इंडियाडिजिटल इंडिया... गौर से देखें तो इन सब की टाइमिंग इन्हें धोखा दे गई हैजीएसटी तो 1991 के बाद सामयिकता की सफलता और विफलता की सबसे बड़ी नजीर है.

वैट या वैल्यू एडेड टैक्सआज के जीएसटी का पूर्वज थाउसे जिस समय लागू किया गया (2005) तब देश की अर्थव्यवस्था बढ़त पर थीसुधार सफल रहाखपत बढ़ी और राज्यों के खजाने भर गएलेकिन जीएसटी जब अवतरित हुआ तब नोटबंदी की मारी अर्थव्यवस्था बुरी तरह घिसट रही थीजीएसटी खुद भी डूबा और कारोबारों व बजट को ले डूबाइसलिए ही तो मंदी में टैक्स सुधार उलटे पड़ते हैं.

सुधार की सामयिकता का सबसे दिलचस्प सबक रुपए के अवमूल्यन के इतिहास में दर्ज हैआजादी के बाद रुपए का दो बार अवमूल्यन हुआएक 6.6.66 को जब इंदिरा गांधी ने रुपए का 57 फीसद अवमूल्यन किया. 1965 के युद्ध के बाद हुआ यह फैसला उलटा पड़ा और अर्थव्यवस्था टूट गई और असफल इंदिरा गांधी लाइसेंस परमिट राज की शरण में चली गईंदूसरा अवमूल्यन 1991 में हुआ वह भी 72 घंटे में दो बारउसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मुड़कर नहीं देखा.

सुधारों की सामयिकता लोकतंत्र से आती हैपिछले कई बड़े सुधार शायद इसलिए मुसीबत बन गए क्योंकि उनसे प्रभावित होने वालों से कोई संवाद ही नहीं किया गयायह समस्या शायद अब तक कायम है

मंदी की हां-ना के बीच पांच पैकेज न्योछावर हो चुके हैं. कारपोरेट टैक्स कम होने से खपत बढेगी क्यानिवेश तो खपत का पीछा करता है. मांग थी तो ऊंचे टैक्स पर भी कंपनियां निवेश कर रही थीं.

दुआ कीजिये कि इन रियायतों से मांग या निवेश बढ़े. नतीजे अगली तिमाही तक सामने होंगे. क्यों कि अगर यह भी एक और बदकिस्मत असामयिक सुधार साबित हुआ तो घाटे का अंबार बजटीय संतुलन का क्रिया कर्म कर देगा. 


Sunday, July 15, 2018

रुपये के संस्कार


रुपए की गिरावट पर भाजपा नेताओं के कंटीले चुनावी भाषण राजनेताओं के लिए नसीहत हैं कि अर्थव्‍यवस्‍था की कथा में राजनीति के ढोर-डंगर नहीं हांकने चाहिए. रुपये की लुढ़कन पर सरकारी बयान वीर बगलें झांक रहे हैं क्‍योंकि उनकी वैचारिक जन्‍मघुट्टी में रुपये की कमजोरी का अपराध बोध घुला हुआ है.

बाजार से पूछ कर देखिएवहां एक नौसिखुआ भी कह देगा कि रुपये की कमजोरी पर स्‍यापा फिजूल है. इसके वजन में कमी से नुक्सान नहीं है.

जानना चाहिए कि पिछले ढाई दशक में रुपया आखिर कितना कमजोर हुआ है और इस कमजोरी से क्‍या कोई "तबाही'' बरपा हुई है? 

पिछले 18 साल (2000-2018) में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 2.2 फीसदी सालाना की दर हल्‍का हुआ है. यह गिरावट 1990 से लेकर 2000 की ढलान के मुकाबले कम है जब रुपया औसत सात फीसदी की दर से गिरा था. 2008 से 2018 के बीच रुपया 4.9 फीसदी सालाना की दर से कमजोर हुआ. पिछले चार साल में अन्‍य मुद्राओं के मुकाबले रुपया स्थिर और ठोस रहा है.

पिछले ढाई दशक में प्रत्‍येक दो या तीन साल बाद रुपये और डॉलर के रिश्‍तों में उतार-चढ़ाव का चक्र आता हैजिसमें  रुपया कमजोर होता है. यह गिरावट किसी भी तरह से न तो आकस्मिक है और न चिंताजनक. भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था जैसे-जैसे विश्‍व के साथ एकीकृत होती गईरुपया खुद को अन्‍य मुद्राओं के मुकाबले संतुलित करता गया है.

रुपये की मांसपेशियां फुलाये रखने के स्‍वदेशी हिमायती किस तरह की विदेशी मुद्रा नीति चाहते हैंयह उन्‍होंने कभी नहीं बताया अलबत्‍ता रुपये के गिरने से कोई तबाही बरपा होने के समाचार अभी तक नहीं मिले हैं. 1990 के विदेशी मुद्रा संकट और 1991 में पहले सोचे-विचारे अवमूल्‍यन के बाद अब तक भारत का निर्यात 21 गुना बढ़ा है. विदेशी मुद्रा भंडार जरूरत के हिसाब से बढ़ता रहा. विदेशी निवेश ने आना शुरू किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और भारतीय कंपनियों ने विदेश में खूब झंडे गाड़े.

रुपये की ताजा गिरावट चक्रीय भी हैमौसमी भी. अगर कमजोरी को कोसना ही है तो तेल की कीमतों पर नजला गिराया जा सकता है. आने वाले महीनों में डॉलर मजबूत रहेगा इसलिए रुपये की सेहत भी चुस्‍त रहेगी. रुपया एकमुश्‍त नहीं क्रमशः अपना वजन गंवाएगा.

तो सरकार करे क्‍यादरअसलरुपया गिरते ही सरकार को मौका लपक लेना चाहिए था.

भारत का निर्यातप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़ तोड़ विदेश यात्राओं से कतई नहीं रीझा. यह पिछले चार साल से एड़ि‍यां रगड़ रहा हैजबकि माहौल व्‍यापार के माफिक रहा है. रुपये की मजबूती निर्यात के लिए मुसीबत रही है. अब गिरावट है तो निर्यात को बढ़ाया जा सकता है. यह अमेरिका और चीन के व्‍यापार की जंग में भारत के लिए नए बाजार हासिल करने का अवसर है.

अभी-अभी सरकार छोड़कर रुखसत हुए अर्थशास्‍त्री अरविंद सुब्रह्मण्यम ने बजा फरमाया है कि अगर भारत निर्यात में 15 फीसदी की सालाना विकास दर हासिल नहीं करता तो भूल जाइए कि 8-9 फीसदी ग्रोथ कभी मिल पाएगी.

यकीनन यह सबको मालूम है कि ग्रोथ की मंजिल थुलथुल नहीं बल्कि चुस्‍त रुपये से मिल सकती है. गुजरात जो कि भारत के विदेश व्‍यापार का अगुआ हैवहां से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर यह कौन जानता होगा कि संतुलित विनिमय दर निर्यात के लिए कितनी जरुरी है लेकिन पिछले चार साल में रुपया मोटाता गया और निर्यात दुबला होता गया.

रुपये की कमजोरी पर रुदाली की परंपरा आई कहां से?

इस मामले में दक्षिणवाम और मध्यसब एक जैसी हीन ग्रंथि के शिकार हैं. 1991 में रुपये का अवमूल्‍यन करते हुए तत्‍कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव की "व्यथा'' का किस्‍सा इतिहास में दर्ज है.
रुपये की मजबूती का खोखला दंभ अंग्रेज सिखाकर गए थे. भारत उनके माल का (आयात) बाजार था. वह भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थेऔद्योगिक उत्पादों का नहीं. इसलिए आश्‍चर्य रुपये के गिरने पर नहीं बल्कि "स्वदेशियों'' पर होना चाहिए जो दशकों से ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति का मुर्दा ढो रहे हैं.

दिलचस्‍प है कि 2013-14 में जिनकी उम्र से रुपये की गिरावट को नापा गया था उन्‍हीं डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में पहली बार संसद को यह समझाया था कि थुलथले रुपये में कोई राष्‍ट्रवाद नहीं छिपा है. रुपये के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही होगा.

जब जागेतब सवेरा!