किस्मत हो तो अखिलेश यादव और विजय बहुगुणा जैसी। क्यों कि ममता बनर्जी और प्रकाश सिंह बादल जैसी किस्मत से फायदा भी क्या। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बनने के लिए शायद इससे अच्छा वक्त नहीं हो सकता। अखिलेश और विजय बहुगुणा को सिर्फ कुर्सी नहीं बल्कि भरे पूरे खजाने भी मिले हैं यानी कि दोहरी लॉटरी। दूसरी तरफ कंगाल बंगाल की महारानी, ममता दरअसल जीत कर भी हार गई हैं। और रहे बादल तो वह किसे कोसेंगे, उन्हें तो अपना ही बोया काटना है। राज्यों के मामले में हम एक बेहद कीमती और दुर्लभ परिदृश्य से मुखातिब है। जयादातर राज्यो के बजट में राजस्व घाटा खत्म ! करीब दो दर्जन सरकार की कमाई के खाते में सरप्लस यानी बचत की वापसी ! खर्च पर नियंत्रण। कर्ज के अनुपातों में गिरावट। ... प्रणव बाबू अगर राज्यों के यह आंकड़े देखें तो वह अपने बजट प्रबंधन ( भारी घाटा) पर शर्मिंदा हुए बिना नहीं रहेंगे। अर्से बाद राज्यों की वित्तीय सेहत इतनी शानदार दिखी है। तीन चार साल की हवा ही कुछ ऐसी थी कि यूपी बिहार जैसे वित्तीय लद्धढ़ भी बजट प्रबंधन के सूरमा बन गए, तो जिन्हें नहीं सुधरना था (बंगाल, पंजाब) वह इस मौके पर भी नहीं सुधरे। राज्यों के वित्तीय सुधार की यह खुशी शत प्रतिशत हो सकती थी, बस अगर बिजली कंपनियों व बोर्डों के घाटे न होते। राज्यों के वित्तीय प्रबंधन की चुनौती अब उनके बजट यानी टैक्स या खर्च से के दायरे से बाहर है। राज्यों की बिजली कंपनियां अब सबसे बड़ा वित्तीय खतरा बन गई हैं।
जैसे इनके दिन बहुरे
नजारा बड़ा दिलचस्प है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश झारखंड, बजटीय संतुलन की कक्षा में मेधावी हो गए हैं जबकि पुराने टॉपर महाराष्ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा और यहां तक कि गुजरात का भी रिपोर्ट कार्ड दागी है। राज्यों की पूरी जमात में पंजाब, हरियाणा और बंगाल तीन ऐसे राज्य हैं जो वित्तीय सेहत सुधारने मौसम में भी ठीक नहीं हो सके। अन्य राज्यों और पिछले वर्षों की तुलना में इनका राजसव् गिरा और घाटे व कर्ज बढे हैं। वैसे अगर सभी राज्यों के संदर्भ में देखा जाए तो घाटों, कर्ज और असंतुलन का अजायबघर रहे राज्य बजटों का यह पुनरोद्धार