इस पर मायूस हुआ जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले एक दशक के सबसे बुरे वक्त में जो बजट मिलने जा रहा है वह संसद से निकलते ही चुनाव के मेले में खो जाएगा। वैसे तो भारत के सभी बजट सियासत के नक्कारखानों में बनते हैं इसलिए यह बजट भी लीक पीटने को आजाद है। अलबत्ता पिछले बीस साल में यह पहला मौका है जब वित्त मंत्री के पास लीक तोड कर बजट को अनोखा बनाने की गुंजायश भी मौजूद है जो लोग सडकों पर उतर कर कानून बनवा या बदलवा रहे हैं, वही लोग बजटों के पुराने आर्थिक दर्शन पर भी झुंझला रहे हैं। बीस साल पुराने आर्थिक सुधारों में सुधार की बेचैनी सफ दिखती है क्यों कि बजट बदलते वक्त से पिछड़ गए हैं। बजट, लोकतंत्र का सबसे महतत्वपूर्ण आर्थिक राजनीतिक आयोजन है और संयोग से इसका रसायन बदलने के लिए मांग, मूड और मौका तीनों ही मौजूद हैं।
बजटों में बदलाव का पहला संदेशा नई आबादी से आया है। भारत एक दशक में शहरों का देश हो जाएगा। बजट, इस जनसांख्यिकीय सचाई से कट गए हैं। 2001 से 2011 के बीच नगरीय आबादी करीब 31 फीसदी की गति से बढी जो गांवों का तीन