सस्ती या रियायती बिजली क्या दिल्ली वालों की ही किस्मत में लिखी है? उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बंगाल या बिहार में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? बिजली बिलों को बिसूरते हुए गर्मी से भेंट से पहले यह जान लेना जरूरी है कि सरकारों ने हमें कौन-सी अंधी सुरंग में पटक दिया है.
• भारत दुनिया में बिजली का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. 2006 से 2018 के बीच बिजली की उत्पादन क्षमता 124 गीगावाट से बढ़कर 344 गीगावाट पर पहुंच चुकी है. 8.9 फीसद की दर से यह बढ़ोतरी जीडीपी से ज्यादा तेज है.
• उत्पादन क्षमता की बढ़ोतरी की रफ्तार, पीक डिमांड (सबसे ज्यादा मांग के समय-बिजली की मांग 24 घंटे एक सी नहीं रहती) बढ़ने की गति यानी पांच फीसद से ज्यादा है. नेशनल इलेक्ट्रिसिटी प्लान 2016 के अनुसार, 2021-22 तक भारत में पीक डिमांड 235 गीगावाट होगी यानी कि उत्पादन क्षमता पहले ही इससे कहीं ज्यादा हो चुकी है.
• 2012 से 2016 के बीच बिजली पारेषण (ट्रांसमिशन) क्षमता 7 फीसद की दर से बढ़ी. यानी जो बिजली बन रही थी उसे बिजली वितरण कंपनियों तक पहुंचाने वाला नेटवर्क छह साल में बढ़कर 3.9 लाख किमी पर पहुंच गया.
• 2003 के इलेक्ट्रिसिटी ऐक्ट के तहत उपभोक्ता खुले बाजार से बिजली खरीद (ओपन एक्सेस) सकते हैं, जहां सस्ती बिजली उपलब्ध है. भारत में स्टॉक एक्सचेंज की तरह पावर एक्सचेंज है लेकिन न उपभोक्ताओं को यह सस्ती बिजली मिलती है और न ही बिजली वितरण कंपनियों को.
पर्याप्त बिजली उत्पादन और पारेषण क्षमता, यथेष्ट सस्ती बिजली, और भरपूर मांग के बावजूद औसत बिजली इतनी महंगी (औसत 6-8 रुपए प्रति यूनिट, उद्योग के लिए और महंगी) क्यों?
इस सवाल का तयशुदा जवाब बीते बरस अप्रैल में सरकार की मेज पर पहुंच गया था. नीति आयोग ने बिजली वितरण की चुनौतियों पर क्रिसिल से एक अध्ययन कराया, जिसने न केवल पूरे बिजली सुधारों की विफलता का सबूत दिया बल्कि दिल्ली में बिजली सुधारों से नसीहत लेने की राय दी. इस रिपोर्ट के बाद मांग पर बिजली देने के बड़बोले दावे बंद हो गए, बिजली कंपनियों के बकाए को राज्यों के बजट पर थोप देने वाली उदय स्कीम की नाकामी स्वीकार कर ली गई और बिजली दरों में बढ़ोतरी अबाध जारी रही.
क्रिसिल की रिपोर्ट बताती है कि
• बाजार (पावर एक्सचेंज) में सस्ती बिजली उपलब्ध है लेकिन बिजली वितरण कंपनियां महंगी बिजली खरीदने को बाध्य हैं.
• समस्या की जड़ है बिजली दरों का ढांचा. बिजली दरें फिक्स्ड और एनर्जी, दो हिस्सों में बंटी होती हैं. फिक्सड चार्ज, लोड या डिमांड पर आधारित होते हैं जिसके तहत कंपनियां उत्पादन, पारेषण, मेंटेनेंस लागत और ब्याज व पूंजी पर रिटर्न वसूलती हैं जबकि एनर्जी चार्ज बिजली की वास्तविक खपत पर आधारित होता है.
• कंपनियां फिक्स्ड चार्ज से पूरी लागत नहीं निकाल पातीं इसलिए बिजली महंगी होती जाती है. कई उपभोक्ता वर्गों जैसे, किसान, सरकारी संस्थानों को सस्ती बिजली देने के लिए राज्य सरकारें वक्त पर सब्सिडी नहीं देतीं. जिन राज्यों में सब्सिडी वाले उपभोक्ता जितने अधिक हैं उतना ही ज्यादा अंतर है बिजली की खरीद लागत और आपूर्ति राजस्व में. यह आंध्र प्रदेश में दो रुपए प्रति यूनिट से ऊपर है और दिल्ली में सबसे कम 19 पैसे.
• यह व्यवस्था शायद दुनिया की सबसे जटिल बिजली दरों के ढांचे से पाली-पोसी जाती है, अलग-अलग राज्यों में उपभोक्ताओं के 9 से लेकर 18 वर्ग हैं और दरों के 14 से लेकर 72 स्लैब हैं. अधिकांश उपभोक्ता जानते ही नहीं कि यह जटिल बिलिंग कैसे होती है.
• अक्षम बिजली दर ढांचे, लागत और राजस्व में अंतर यानी घाटे के कारण वितरण कंपनियों को लंबे समय के लिए महंगे बिजली खरीद सौदे करने होते हैं ताकि उधार आपूर्ति हो सके. अगर कोई उपभोक्ता बाजार से खरीदकर सस्ती बिजली की आपूर्ति चाहे भी तो कंपनियां भारी सप्लाई चार्ज लगाती हैं. नतीजतन ओपेन एक्सेस व्यवस्था टूट चुकी है.
सरकारें कभी बिजली दरों का ढांचा ठीक नहीं करना चाहतीं. सब्सिडी को सीधे उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचाना चाहतीं. इसमें अकूत भ्रष्टाचार और उत्पादकों-वितरकों की अक्षमता का संरक्षण निहित है. सरकार बिजली दरों को नियामकों के हाथ से निकाल बाजार के हवाले नहीं करना चाहती. इसलिए बिजली तो सस्ती बनती है लेकिन मिलती नहीं.
2001 से 2015 के बीच बिजली बोर्ड या वितरण कंपनियों को बकाए और कर्ज से उबरने के लिए तीन पैकेज (सबसे ताजा उदय) दिए गए लेकिन 2019 में बिजली कंपनियों का घाटा 27,000 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है. उन्हें करीब 81,000 करोड़ रु. बिजली उत्पादन कंपनियों को चुकाने हैं.
बहु प्रचारित सुधार वीरों की अगुआई में कई राज्यों में बिजली दरें बढ़ चुकी हैं. बिजली की महंगाई और कटौती के बीच दुनिया के तीसरे सबसे बड़े बिजली उत्पादक देश के उपभोक्ता एक और कठिन गर्मी झेलने को तैयार हो रहे हैं.