क्योंकि हमने
सवाल पूछने बंद कर दिए,
हमें शक करते
रहना चाहिए था, सरकार के कामकाज पर,
रातोरात विशाल हो
जाती कंपनियों पर,
बैंक कर्ज पर चल
रहे कारोबारों पर
और सबसे ज्यादा
सवाल हमें करने चाहिए थे उन घोटालों की जांच पर जो अदालतों में दम तोड़ गईं.
हर वित्तीय घोटाला पिछले की
तुलना में ज्यादा सफाई और बेहयाई से किया जाता है.
और निगहबान पिछले
की तुलना में और ज्यादा नाकारा पाए जाते हैं.
इस घोटाले का
किस्सा बस इतना है कि नीरव और मेहुल ने की तरह बैंकों के बीच लेन-देन और छोटी अवधि
के कर्ज का इस्तेमाल किया,
विदेश में विदेशी
मुद्रा में भुगतान ले लिया और चंपत हो गए. हर्षद मेहता और केतन पारेख ने भी इसी रास्ते
का इस्तेमाल किया था.
हमें नहीं पता कि
सरकार इनका क्या कर पायेगी लेकिन इस लूट को रोकना हरगिज संभव है अगर हम सरकारों पर
रीझना छोड़ दें.
रोशनी की मांग
इस घोटाले में
एफआइआर के 15 दिन बाद कोहराम क्यों
मचा. दरअसल, जब पीएनबी ने इस
मामले की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज को दी तब पता चला कि हुआ क्या है. कारोबारियों को
जनता की अदालत में लाया जाना चाहिए. 50 करोड़ रु. से ऊपर की प्रत्येक कंपनी के लिए जनता को
भागीदारी देने और शेयर बाजार में सूचीकरण की शर्त जरूरी है. भारत में दस हजार
करोड़ रु. तक के कारोबार वाली कंपनियां हैं, जो बैंकों से कर्ज लेती हैं और कंपनी विभाग के पास एक
सालाना रिटर्न भरकर छुट्टी पा जाती हैं. हमें पता नहीं, वे क्या कर रही
हैं और कब चंपत हो जाएंगी. इस पारदर्शिता से आम लोगों के लिए निवेश के अवसर भी बढ़ेंगे.
कर्ज चाहिए तो
पूंजी दिखाइए
यदि प्रवर्तक
अपनी पूंजी पर जोखिम नहीं लेता तो फिर डिपॉजिटर की बचत पर जोखिम क्यों कर्ज पर कारोबार
के (डेट फाइनेंस) के नियम बदलना जरूरी है. अब उन कंपनियों की जरूरत है जो पारदर्शिता
के साथ जनता से पूंजी लेकर कारोबार करती हैं या फिर प्रवर्तक अपनी पूंजी लगाते
हैं.
गड्ढे और भी हैं
हम बकाया बैंक
कर्ज (एनपीए) के पहाड़ को बिसूर रहे थे और नीरव-मेहुल छोटी अवधि के बायर्स क्रेडिट
(90-180-360 दिन) के कर्ज के
जरिए 11,000 करोड़ रु. (या 20,000 करोड़ रु.) ले
उड़े, जिसका इस्तेमाल
आयातक, वर्किंग कैपिटल
के लिए करते हैं.
उधार में कारोबार, सप्लाई चेन की
कमजोरी और खराब कैश फ्लो की वजह से भारतीय कंपनियां सक्रिय कारोबारी (वर्किंग)
पूंजी को लेकर हमेशा दबाव में रहती हैं. जब भारत की बड़ी कंपनियों को अपने
संचालन को सहज बनाने के लिए सालाना चार
खरब रु. (अर्न्स्ट ऐंड यंग—2016)
की अतिरिक्त वर्किंग
कैपिटल चाहिए तो छोटी फर्मों की क्या हालत होगी.
बैंकों से छोटी
अवधि के कर्ज की प्रणाली में बदलाव चाहिए. गैर जमानती कर्ज सीमित होने के बाद
कंपनियां अपने संचालन को चुस्त करने पर बाध्य होंगी. जमाकर्ताओं के पैसे पर धंधा
घुमाना बंद करना पड़ेगा.
राजनैतिक चंदे की
गंदगी
हीरा कारोबारियों
की राजनैतिक हनक से कौन वाकिफ नहीं है. जो हुक्काम के साथ डिनर करते हैं वही चंदा
भी देते हैं, वे ही बैंकों के
सबसे बड़े कर्जदार भी हैं. अगर देश को यह पता चल जाए कि कौन-सी कंपनी किस पार्टी
को कितना चंदा देती है, तो बहुत बड़ी
पारदर्शिता आ जाएगी, जिसमें सियासी
रसूख के जरिए बैकों की लूट भी शामिल है.
ध्यान रहे कि
मेहुल चोकसी का कारोबारी रिकार्ड कतई इस लायक नहीं था कि उन्हें या उनके भांजे पर
पंजाब नेशनल बैंक इस कदर दुलार उड़ेलता, हां यह बात जरुर है कि उनका राजनीतिक रसूख
उन्हें हर स्याह सफेद की सुविधा देता था.
बड़े बैंक चाहिए
सिर्फ एक बड़ी
धोखाधड़ी से देश का दूसरा सबसे बड़ा बैंक घुटनों पर आ गया. इस घोटाले की राशि
पीएनबी के मुनाफे की दस गुनी है. बैंक को हाल में सरकार से जितनी पूंजी मिली थी, उसका दोगुना यह
दोनों लूट ले गए. अर्थव्यवस्था का आकार बढऩे के साथ देश को बड़े बैंक चाहिए ताकि इस
तरह के झटके झेल सकें.
भ्रष्टाचार चेहरा
देखकर या भाषणों से नहीं रुकता. संस्थागत भ्रष्टाचार के खिलाफ सफलताएं हमेशा
संस्थाओं (कानून, अदालत, ऑडिटर) की मदद से
ही मिली हैं. पिछले चार साल में न तो संस्थाएं मजबूत और विकसित हुईं और न नए कानून, नियम बनाए या
बदले गए.
भ्रष्टाचार जब तक
बंद था तब तक आनंद था, अब खुल रहा है तो
खिल रहा है.
बैंक किसी भी
अर्थव्यवस्था में भरोसे का आखिरी केंद्र हैं. इसमें रखा पैसा हमारी बचत का है, सरकार का नहीं.
अगर यह लूट खत्म करनी है,
तो पारदर्शिता के
नए प्रावधान चाहिए. सरकारें तब तक पारदर्शिता नहीं बढ़ाएंगी जब तक हम उनके कामकाज
पर गहरा शक नहीं करेंगे. हमें उनसे वही सवाल बार-बार पूछने होंगे जिनके जवाब वे
कभी नहीं देना चाहतीं.