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Saturday, June 1, 2019

अब नहीं तो कब?


नरेंद्र मोदी भारत के आर्थिक उदारीकरण की एक नई लहर का नेतृत्व करने के करीब खड़े हैंअमेरिका और चीन का व्यापार युद्ध भारत को इस मुकाम पर ले आया है जहां से भारतीय अर्थव्यवस्था का दूसरा वैश्वीकरण शुरू हो सकता है.

इस बदले परिदृश्य को समझने में इतिहास हमारी मदद के लिए खड़ा है

क्रिस्टोफर कोलम्बस की अटलांटिक पार यात्रा में अभी 62 साल बाकी थेकोलम्बस के जहाजी बेड़े सांता मारिया से पांच गुना बड़े जहाजी कारवां के साथ अफ्रीका तक की छह ऐतिहासिक यात्राओं के बाद महान चीनी कप्तान जेंग ही जब तक चीन लौटा (1424), तब तक मिंग सम्राट योंगल का निधन हो चुका थाचीन के नए राजवंश ने समुद्री यात्राओं पर पाबंदी लगाते हुए दो मस्तूल से अधिक बड़े जहाज बनाने पर मौत की सजा का ऐलान कर दियाचीन का विदेश व्यापार जिस समय अंधेरे में गुम हो रहा थाउस समय स्पेन और पुर्तगाल के बंदरगाहों पर जहाजों के बेड़े सजने लगे थे जो एशिया की तरफ कूच करने वाले थे.

चीन को यह बात समझने में 500 से अधिक साल लगे कि जहाज बंदरगाह पर खड़े होने के लिए नहीं बनाए जातेदूसरी तरफ मुक्त बाजार के संस्कारों की छाया में स्वाधीन होने वाले भारत को भी यह समझने में वक्त लगा कि व्यापार से दुनिया का कोई देश कभी बर्बाद नहीं हुआ है (बेंजामिन फ्रैंकलिन).

चीन ने जब एक बार ग्लोबलाइजेशन की सवारी की तो दुनिया फिर उसके पीछे हो ली लेकिन मुक्त व्यापार के फायदों से सराबोर भारत की दुविधाएं पिछले पांच साल में कई गुना बढ़ गई हैं.

नरेंद्र मोदी यदि पिछले कार्यकाल की तरफ देखना चाहें तो उन्हें नजर आएगा कि एक तरफ वे ताबड़तोड़ विदेश यात्राएं कर रहे थेदूसरी तरफ स्वदेशी और संरक्षणवाद में जकड़ी उनकी विदेश व्यापार नीति उन फायदों को भी गंवा रही थी जो उनके पूर्ववर्तियों ने उठाए थे.

अलबत्तासमय मोदी को जहां ले आया हैवहां वे भारत के दूसरे ग्लोबलाइजेशन के अगुआ बन सकते हैंअमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के नजरिये से भारत के हालात 1980 के चीन जैसे हैं जब अमेरिका-जापान के बीच व्यापार युद्ध चल रहा थाजापान के साथ कारोबार में अमेरिकी घाटा कुल घाटे का 80 फीसदी (आज के चीन से ज्यादापर थाअमेरिका ने जापान से आयात पर शत प्रतिशत कस्टम ड्यूटी  लगाने का ऐलान किया जिसके बाद 1985 में दोनों के बीच प्लाजा समझौता हुआजापानी येन मजबूत हुआप्रॉपर्टी बाजार गरमाकर फट गया और जापान लंबी मंदी में धंस गया.


अमेरिका बनाम जापान के दौरान देंग शियाओ ‌पिंग के नेतृत्व में चीन का ग्लोबलाइजेशन शुरू हुआजापान से उखड़े निवेशक चीन में उतरने लगे और दो दशक में चीन मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बन गयाइसके बूते उसने तीन दशक तक दुनिया के व्यापार पर राज किया है.

अमेरिका-चीन के ताजा व्यापार युद्ध के दो संभावित असर हो सकते हैंएकयुआन का अवमूल्यन जिसके बाद अमेरिका और ड‍्यूटी लगाएगादोचीन की अर्थव्यवस्था का पुनर्गठननिर्यात पर कम निर्भरता यानी तात्कालिक मंदीग्लोबल मंदी के झटके हमें भी लगेंगे लेकिन यह व्यापार युद्ध भारत के लिए मौका है. 

आज का भारत 1980 के चीन से बेहतर स्थिति में हैउदारीकरण की नींव पर कुछ मंजिलें बन चुकी हैंफायदे स्थापित हैंनीति आयोग के मुखिया रहे अरविंद पानगड़िया की आंकड़ों से लैस महत्वपूर्ण ताजा किताब (फ्री ट्रेड ऐंड प्रॉस्पेरिटीबताती है कि मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन के चलते पिछले दो दशक में भारत की ग्रोथ में 4.6 फीसदी का इजाफा हुआ हैइसी ‘चमत्कार’ से 1992-93 से 2011-12 के बीच गरीबी रेखा से नीचे की आबादी 45 फीसदी से घटकर 22 फीसदी रह गई.

स्वदेशी के दकियानूसी आग्रहों को तथ्यों सहित काटते हुए पानगड़िया उदाहरणों के साथ यह सिद्ध करते हैं कि समझदार सरकारें अक्षम देशी उद्योगों के संरक्षण के बजाएहमेशा भविष्य के विजेताओं को चुनती हैं क्योंकि आर्थिक नीति का अंतिम मकसद रोजगार और आय में बढ़ोतरी हैपिछले पांच वर्षों में बंद दरवाजों वाली विदेश व्यापार नीति के तहत भारतीय निर्यात की बदहालीअंतरराष्ट्रीय व्यापार में घटती हिस्सेदारी और व्यापार समझौतों की नामौजूदगीमुक्त बाजार के पक्ष को सही साबित करती है.

भारत से निर्यात पर अमेरिकायूरोपकनाडाऑस्ट्रेलिया के डब्ल्यूटीओ में मुकदमेअमेरिकी आयात में वरीयता की समाप्ति और लंबित व्यापार समझौतेप्रधानमंत्री मोदी की दूसरी पारी का इंतजार कर रहे हैंमोदी के एक तरफ होगी ढहती अर्थव्यवस्था और दूसरी तरफ होगा भारत के अभूतपूर्व उदारीकरण का मौका.

सनद रहे कि संरक्षणवाद सबसे सस्ता राष्ट्रवाद है जो आर्थिक सुरक्षा को कमजोर करता है.

कोफी अन्नान कहते थे कि वैश्वीकरण के खिलाफ बहस करना गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध बहस करने जैसा हैक्या नई सरकारनए वैश्वीकरण को नए भारत का परचम बनाएगी?

Sunday, May 26, 2019

यह भी मुमकिन है!


 
लोकप्रिय नेता हमेशा साहसी सुधारक ही हों या बहुमत से गढ़ी सरकारें सुधारों की चैम्पियन ही साबित हों इसकी कोई गारंटी नहीं है!

सिर्फ यही दो पुरानी मान्यताएं बची हैंनरेंद्र मोदी को अब इन्हें  भी तोड़ देना चाहिए क्योंकि भारत के लोगों ने उनके लिए सरकारें चुनने का तौर-तरीका सिरे से बदल दिया है.

पिछले तीन-चार दशक के किसी भी काल खंड में ऐसा दौर नहीं मिलेगा जिसमें भारत की जटिल क्षेत्रीय और राजनैतिक अस्मिताएं किसी एक नेता में इस कदर घनीभूत हो गई होंजैसा कि मोदी के साथ हुआ है.

इतिहास गवाह है कि भारत के वोटर नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतेमंदीबेकारीग्रामीण बदहाली के बाद अगले चुनाव में ही सरकारों को सिर के बल खड़ा कर देते हैं लेकिन इस बार लोगों ने दर्द और निराशा को दबाकर मोदी के पक्ष में पहले से बड़ी लहर बना दीकिसी राजनेता से उम्मीदों का यह अखिल भारतीय उछाहताजा राजनैतिक अतीत के लिए अजनबी है.

इनकार के लिए मशहूर भारतीय वोटरों का भव्य स्वीकार, 69 वर्षीय नरेंद्र मोदी को ऐसे मुकाम पर ले आया है जहां वे अब ऐसे नेता हो सकते हैं जो न केवल लोकप्रिय होते हैं बल्कि बड़े सुधारक भीरोनाल्ड रेगनली क्वान यूया मार्गरेट थैचर जैसेयानी कि अगले कई दशकों के लिए अपने देशों की दिशा बदलने वाले नेता.

अमेरिकी विचारक जेम्स फ्रीमैन कहते थे कि कि राजनेता अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं और राष्ट्र नेता अगली पीढ़ी के बारे में.

2019 के बाद के नरेंद्र मोदी कोपिछले पांच साल के मोदी से अलहदा होना पड़ेगा. 2014 से 2019 तक नरेंद्र मोदीअपनी पार्टी के राष्ट्रव्यापी चुनावी अश्वमेध के नायक रहे हैंहर चुनाव हर कीमत पर जीतने का उनका अभियान 2019 में लोकसभा दोबारा जीतने के मकसद पर केंद्रित थायह मुहिम ही थी जिसके चलते मोदी का अपेक्षित सुधारकअवतार नहीं ले सकावे सुधारक और लोकलुभावन राजनीति के ध्रुवों के बीच तालमेल बनाते रह गए और पांच कीमती साल गुजर गए.

अभूतपूर्व लोकप्रियता के बाद मोदी को इतना बड़ा जन विश्वास फिर मिल गया है जिससे वे सभी बड़े सुधार संभव हैं जिनके बारे में उनके पूर्ववर्ती सोचकर रह जाया करते थेमोदी यकीनन अब विरासत खड़ी करना चाहेंगेकुछ ऐसा करना चाहेंगे जिससे उन्हें भारत के अंतरराष्ट्रीय नेता के बतौर याद किया जाए.

बड़े सुधारक हमेशा आर्थिक सुधारों से पहचाने जाते हैंव अपने देश के लोगों की आय बढ़ाकर जीवन स्तर बदलते हैं.

रोनाल्ड रेगन (1981-89) के बड़े टैक्स सुधारोंभव्य निजीकरणआर्थिक नियमों में ढीलसुरक्षा पर भारी निवेश और अर्थव्यवस्था की जड़ों तक पहुंचने वाली नीतियों के बाद अमेरिका में न केवल बेरोजगारी में निर्णायक गिरावट और जीडीपी में रिकॉर्ड बढ़त (महामंदी-1929-39 के बाद सर्वोच्चहुई बल्कि सबसे बड़ा बदलाव यह था कि सरकारी संस्थाओं में लोगों के विश्वास (क्राइसिस ऑफ कॉन्फीडेंस-जिमी कार्टर 1979) में उल्लेखनीय इजाफा हुआ.

1970 के दशक के अंत में ब्रिटेन की बिखरती अर्थव्यवस्था और नीति शून्यता की पृष्ठभूमि में मार्गरेट थैचर ने ब्रिटेन की सत्ता संभाली थीलेकिन बदलाव 1983 के बाद आया जब भारी बेरोजगारी के बावजूद विभाजित विपक्ष के चलते थैचर को जबदरस्त जनादेश मिलाउन्होंने इस मौके का लाभ लेकर ब्रिटेन के वेलफेयर स्टेट को बदलकर मुक्त बाजार की राह खोलीमहंगाई पर नियंत्रण और निजी हाउसिंग के साथ थैचर ने ब्रिटेन का नया मध्यम वर्ग तैयार किया

1965 में मलेशिया से आजाद हुआ ली कुआन यू (1965-90) का सिंगापुर कुछ ही दशकों में मैन्युफैक्च‌‌रिंग और विदेशी निवेश उदारीकरण से ग्लोबल कंपनियों का केंद्र बन गयाभ्रष्टाचार पर नियंत्रण और सामाजिक नीतियों में सुधार के साथ यू ने सिंगापुर को विकसित मुल्कों की कतार में पहुंचा दिया.

रेगनथैचर और यू के सुधारों में मोदी के भावी एजेंडे का ब्लूप्रिंट मिल सकता हैये तीनों नेता राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर अपनी दो टूक नीतियों और कड़े फैसलों के‍ लिए भी जाने जाते हैं.

भारत में पिछले अधिकांश आर्थिक सुधार संकटों से बचने के लिए हुए हैंसिर्फ इनसे ही भारत कितना बदल गया हैअब अगर सुविचारित भविष्योन्मुखी ढांचागत बदलावों की शुरुआत हो तो अगले पांच साल भारत के अगले पंद्रह साल को सुरक्षित कर सकते हैं.

ताजा इतिहास में मोदी पहले ऐसे नेता हैं जिनके सामने कोई बड़ा संकट नहीं हैउम्मीद से उपजी लोकप्रियता ने उन्हें अभूतपूर्व अवसरों का आशीर्वाद दिया हैचुनावी इतिहास तो बन गया हैअब मोदी को सुधारों का इतिहास गढ़ना चाहिए.

सर्वश्रेष्ठ नेताओं की उपस्थिति महसूस ही नहीं होतीवे जब कुछ करते हैं तो लोग कहते हैं कि यह हमने खुद किया है.— लाओ त्सेप्राचीन चीनी दार्शनिक और लेखक


Sunday, May 19, 2019

अबकी बार अलोकप्रिय...



नादेशों में हमेशा एक लोकप्रिय सरकार ही नहीं छिपी होतीकभी-कभी लोग ऐसी सरकार भी चुनते हैं जिसके पास अलोकप्रिय हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. 23 मई को जनादेश का ऊंट चाहे जिस करवट बैठेनई सरकार को सौ दिन के भीतर ही अलोकप्रियता का नीलकंठ बनना पड़ेगा.

अगर हर हाल में सत्ता पाना सबसे बड़ा चुनावी मकसद न होता तो जैसी आर्थिक चुनौतियां व हिमालयी दुविधाएं चौतरफा गुर्रा रही हैं उनके बीच किसी भी नए या पुराने नायक को जहर बुझी कीलों का ताज पहनने से पहले एक बार सोचना पड़ता.

भारत को संभालने की चुनौतियां हमेशा से भारत जितनी ही विशाल रही हैं लेकिन गफलत में मत रहिए, 2019, न तो 2009 है और न ही  2014. यह तो कुछ ऐसा है कि जिसमें अब श्रेय लेने की नहीं बल्कि कठोर फैसलों  से सियासी नुक्सान उठाने की बारी हैकरीब दस साल (मनमोहन-मोदीकी लस्तपस्त विकास दरढांचागत सुधारों के सूखे और आत्मतघाती नीतियों (नोटबंदीके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने नए नायक के लिए कांटों की कई कुर्सियां लिए बैठी है.

■ भारतीय कृषि अधिक पैदावार-कम कीमत के नियमित दुष्चक्र की शिकार हो चुकी हैसरकार कोई भी होजब तक बड़ा सुधार नहीं होताकम कमाई वाले ग्रामीणों को नकद सहायता (डायरेक्ट इनकमदेनी होगीअन्यथा गांवों का गुस्सासंकट में बदल जाएगा. 

■ भारत में निजी कॉर्पोरेट मॉडल लड़खड़ा गया हैपिछले पांच साल में निजी निवेश नहीं बढ़ाकंपनियों पर कर्ज बढ़ा और मुनाफे घटे हैंडूबती कंपनियों (जेटआइडीबीआइको उबारने का दबाव सरकार पर बढ़ रहा है या फिर बैंकों को बकाया कर्ज पर नुक्सान उठाना पड़ रहा है.बाजार में सिमटती प्रतिस्पर्धा और उभरते कार्टेल नए निवेशकों को हतोत्साहित कर रहे हैं.

■ रोजगार की कमी ने आय व बचत सिकोड़ कर खपत तोड़ दी है जिसे बढ़ाए बिना मांग और निवेश नामुमकिन है.

■ सुस्त विकासकमजोर मांग और घटिया जीएसटी के कारण सरकारों (केंद्र व राज्यका खजाना बदहाल हैकेंद्र का राजस्व (2019) में 11 फीसदी गिराबैंकों के पास सरकार को कर्ज देने के लिए पूंजी नहीं है. 2018-19 में रिजर्व बैंक ने 28 खरब रुपए के सरकारी बॉन्ड खरीदेजो सरकार के कुल जारी बॉन्ड का 70 फीसदी है.

■ बैंकों के बकाया कर्ज का समाधान निकलता इससे पहले ही गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसीबैंक कर्ज चुकाने में चूकने लगींकरीब 30 फीसदी एनबीएफसी को बाजार से नई पूंजी मिलना मुश्किल हैइधर 2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी शुरू होने वाली है.

इन पांचों मशीनों को शुरू करने के लिए सरकार को ढेर सारे संसाधन चाहिए ताकि वह किसानों को नकद आय दे सकेबैंकों को नई पूंजी दे सकेथोड़ा बहुत निवेश कर सके जिसकी उंगली पकड़ कर मांग वापस लौटे और यहीं से उसकी विराट दुविधा शुरू होती हैसंसाधनों के लिए नई सरकार को अलोकप्रिय होना ही पड़ेगा.

होने वाला दरअसल यह है कि

■ सब्सिडी (उर्वरकएलपीजीकेरोसिनअन्य स्कीमेंमें कटौती होगी ताकि खर्च बच सकेक्योंकि लोगों को नकद सहायता दी जानी हैजब तक रोजगार नहीं लौटते तब तक यह कटौती लाभार्थियों पर भारी पड़ेगी.

■ सरकारों (खासतौर पर राज्योंको बिजलीपानीट्रांसपोर्ट जैसी सेवाओं की दरें बढ़ानी होंगी ताकि कर्ज और राजस्व का संतुलन ठीक हो सके. 

■ इसके बाद भी सरकारें भरपूर कर्ज उठाएंगीजिसका असर महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के तौर पर दिखेगा.

■ खजाने के आंकड़े बताते हैं कि आने वाली सरकार अपने पहले ही बजट में टैक्स बढ़ाएगीजीएसटी की दरें बढ़ सकती हैसेस लग सकते हैं या फिर इनकम टैक्स  बढे़गा. 

भारतीय अर्थव्यवस्था आम लोगों की खपत पर चलती है और बदकिस्मती यह हैताजा संकट के सभी समाधान यानी नए टैक्स और महंगा कर्ज (मौसमी खतरे जैसे खराब मॉनसूनतेल की कीमतें यानी महंगाईखपत पर ही भारी पड़ेंगेइसलिए मुश्किल भरे अगले दो-तीन वर्षों में सरकारों के लिए भरपूर अलोकप्रियता का खतरा निहित है.

1933 की मंदी के समय मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से कहा था कि अब चुनौती दोहरी हैएकअर्थव्यवस्था को उबारनाऔर दोबड़े और लंबित सुधार लागू करनातत्काल विकास दर के लिए तेज फैसले और नतीजे चाहिए जबकि सुधारों से यह रिकवरी जटिल और धीमी हो जाएगीजिससे लोगों का भरोसा कमजोर पड़ेगा.

लोगों का चुनाव पूरा हो रहा हैअब सरकार को तय करना है कि वह क्या चुनती हैकठोर सुधार या खोखली सियासतअब नई सरकार को तारीफें बटोरने के मौके कम ही मिलेंगे.