यशवंत सिन्हा देश को बता रहे हैं कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है। सोना गिरवी रखा जाएगा। विदेशी मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्ज लिया जा रहा है। रुपया बुरी तरह गिरा है। ... वह युवा निवेशक पसीने लथपथ होकर जाग गया ! कितना बुरा सपना था ! 1991 वाला। अचानक उसे याद आया कि उसने कल ही तो रिजर्व बैंक के ताजे आंकडे पलटे थे और यह भी पढ़ा था कि गवर्नर सुब्बाराव 1991 के दुर्दिन की याद कर रहे हैं। विदेशी मुद्रा भंडार का तेजी से गिरना, व्यापार घाटे (आयात निर्यात का अंतर) में अभूतपूर्व उछाल, रुपये पर दबाव, छोटी अवधि के विदेशी कर्जों का विस्फोटक स्तर और साथ में ऊंचा राजकोषीय घाटा यानी कि जुड़वा घाटों की विपत्ति। तकरीबन ऐसा ही तो था 1991। बस अंतर सिर्फ यह है कि तब भारत ग्यारह लाख करोड़ की (जीडीपी) अर्थव्यवस्था था और जो आज 50 लाख करोड़ की है। अर्थव्यवस्था बड़ी होने से संकट छोटा नहीं हो जाता इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार से लेकर बैंकों के गलियारों तक खौफ की ठंडी लहरें दौड़ रही हैं। मगर दिल्ली के राजनीतिक कानों पर रेंगने लिए शायद हाथी जैसी जूं चाहिए, इसलिए दिल्ली बेफिक्र ऊंघ रही है।
विस्फोटक आंकड़े
याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि संकट ही याद न रहे। अभी 21 साल पहले की ही बात है जब जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम रह गया यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया। निर्यातों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए तीन दिन में रुपये का 24 फीसदी अवमूल्यन हुआ। आईएमएफ से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लिया गया और 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड व यूनियन बैंक ऑफ सिवटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डॉलर उठाये गए, तब आफत टली। ... यह खौफनाक अतीत जिस परिस्थिति से निकला था आज के आंकड़े उससे जयादा खराब