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Friday, February 12, 2021

गुम राह की तलाश


डिजिटल करेंसी, सरकारी कंपनियों के निजीकरण और फसलों की सही कीमत के बीच क्या रिश्ता है? सरकार इन तीनों को ही टालना चाहती थी लेकिन वक्त ने इनको अपरिहार्य बना दिया. तीन साल से दायें-बायें कर रहा और प्रतिबंधों पर टिका निजाम अंतत: डि‍जिटल करेंसी के लिए कानून लाने पर मजबूर हो गया. ठीक इसी तरह बजट के घाटे ने यह हालत कर दी कि अब खुलकर कहना पड़ा कि सार्वजनिक कंपनियों के निजीकरण के अलावा कोई रास्ता नहीं है.

बदलता वक्त बेहद तेज आवाज में सरकार को बता रहा है कि भारत में फसलों का पारदर्शी और उचित मूल्य (प्राइस रियलाइजेशन) तय करने के सुधारों का वक्त आ गया है. आंदोलन कर रहे किसान दिल्ली का तख्त नहीं बस यही सुधार तो मांग रहे हैं. और सरकार फसल मूल्यों की पारदर्शी व्यवस्था के बगैर हवा में फसलों का बाजार खड़ा कर देना चाहती है. इसलिए शक सुलग उठे और किसानों का ध्वस्त भरोसा अब किसान महापंचायतों में उमड़ रहा है.

किसानों को अचानक सपना नहीं आया कि वह उठकर समर्थन मूल्य की गारंटी मांगने लगे और न ही वह ऐसा कुछ मांग रहे हैं जो सरकार के एजेंडे में नहीं था. सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के जिस वादे को बार बार दोहरा रही थी, फसलों की सही कीमत (केवल सीमित सरकारी खरीद नहीं) उसका अपरिहार्य हिस्सा रही है. इन बिलों से पहले तक तैयार हुए तीन आधि‍कारिक दस्तावेज बताते हैं कि किसानों की आय बढ़ाने के लक्ष्य के तहत फसल मूल्य सुधारों के एजेंडे पर काम चल रहा था, जिससे किसान भी अन‍भि‍ज्ञ नहीं थे.

फसल की वाजिब कीमत के अलावा कृषि‍ सुधार और हैं क्या? खेती की जमीन बढ़ नहीं सकती. फसलों का विविधीकरण, नई तकनीकों के इस्तेमाल करने, खेती में निजी निवेश बढ़ाने या फिर छोटे किसानों की आय बढ़ाने के सभी उपाय इस बात पर केंद्रित हैं कि उत्पादक (किसान) को अधि‍कांश उत्पादन (फसल) की सही कीमत कैसे मिले. खेती में तरक्की के सभी रास्ते इससे ही निकलते हैं.

नवंबर 2018 में नीति आयोग ने न्यू इंडिया @75 नाम का दस्तावेज बनाया था, जिसकी भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखी थी. इसमें 2022 तक कृषि‍ लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) को खत्म कर एग्री प्राइसिंग ट्रिब्यूनल बनाने का लक्ष्य रखा गया. नीति आयोग से कहा गया था कि वह

एमएसपी के समानांतर मि‍निमम रिजर्व प्राइस (एमआरपी) की प्रक्रिया तय करे. इस एमआरपी पर मंडियों में फसल की नीलामी शुरू होनी चाहिए.

  तैयारी यह भी थी कि देश में सरप्लस उत्पादन, देश में कम लेकिन विदेश में ज्यादा और दोनों जगह कम उत्पादन वाली फसलों के लिए एमएसपी से अलग कीमत तय की जाए.

  मंडी कमीशन और फीस का ढांचा बदलने की भी राय थी ताकि किसानों को एमएसपी का प्रतिस्पर्धी मूल्य मिल सके.

अच्छे और खराब मानसून के दौरान अलग-अलग कीमतें तय करने पर भी बात हो रही थी.

यह दस्तावेज किसानों की आय दोगुनी करने वाली समिति की सिफारिशों (सिंतबर 2018) के बाद बना था जिसमें किसानों की समग्र उत्पादन लागत पर कम से कम 50 फीसदी मुनाफा देने की सिफारि‍श की गई थी. इससे पहले 2011 में नरेंद्र मोदी (तब मुख्यमंत्री) की अध्यक्षता वाली समिति एमएसपी को महंगाई से जोडऩे और बाजार में फसल की बिक्री एमएसपी पर आधारित करने के वैधानिक उपाय की राय दे चुकी थी.

ये तैयारियां से पहले सरकार यह स्वीकार कर चुकी थी 

अधि‍कांश फसल (सरकारी खरीद कुल उपज का केवल 13%) लागत से कम कीमत पर बिकती है. विभि‍न्न फसलों में खलिहान मूल्य (हार्वेस्ट प्राइस) बाजार के खुदरा मूल्य से 35 से 63 फीसदी तक कम हैंनीति आयोग

1980 के बाद से अब तक किसानों की आय कभी भी गैर खेतिहर श्रमिकों की आय के एक तिहाई से ज्यादा नहीं हो सकी. यानी 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने को उनकी कमाई सालाना 10.4 फीसदी की दर से बढ़ानी होगी.

इस हकीकत और तैयारी की रोशनी में नए कानूनों पर हैरत लाजिमी है जिनमें फसलों की वाजिब कीमत तय करने की योजना तो दूर समर्थन मूल्य शब्द का जिक्र भी नहीं था. यानी मंदी के बीच किसान अर्से से जिन सुधारों की बाट जोह रहे थे उनकी जगह उन्हें कुछ और दे दिया गया. नतीजा: आशंकाएं जन्मी और विरोध उबल पड़ा.

यहां न सरकार गुमराह है, न किसान. सरकारें आदतन आलसी होती हैं. किसी 'खास’ को फायदा देने के अलावा वे अक्सर संकट और सियासी नुक्सान पर ही जागती हैं. सो कभी कभी आंदोलन भी सुधार का रास्ता खोल देते हैं. फसल मूल्य सुधार जटिल हैं, इनसे तत्काल बड़े राजनैतिक नारे नहीं बनेंगे लेकिन इन सुधारों को अब शुरू करना ही होगा क्योंकि उस विचार को कोई भी ताकत रोक नहीं सकती जिसका समय आ गया है (विक्टर ह्यूगो).


Monday, February 8, 2016

सबसे बड़े मिशन का इंतजार


खेती को लेकर पिछले छह दशकों की नसीहतें बताती हैं कि बहुत सारे मोर्चे संभालने की बजाए खेती के लिए एक या दो बड़े समयबद्ध कदम पर्याप्त होंगे. 

बीते सप्ताह प्रधानमंत्री जब फसल बीमा पर मन की बात कह रहे थे तो खेती को जानने-समझने वालों के बीच एक अजीब-सा अनमनापन था. इसलिए नहीं कि सरकारी कोशिशें उत्साह नहीं बढ़ातीं बल्कि इसलिए कि कृषि का राई-रत्ती समझने वाली भारतीय राजनीति खेती को लेकर अभी भी कितनी आकस्मिक है और तीन फसलें बिगडऩे के बाद भी आपदा प्रबंधन की मानसिकता से बाहर नहीं निकल सकी.
पिछले साल खरीफ व रबी की फसल खराब होने और किसान आत्महत्या की खबरों (दिल्ली के जंतर मंतर पर किसान की आत्महत्या) के साथ खेती में गहरे संकट की शुरुआत हो गई थी. मई में इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि खेती को लेकर नीतिगत और निवेशगत सुधार शुरू करने के अलावा अब कोई विकल्प नहीं है. अफसोस कि सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के और बिगडऩे का इंतजार किया.
कृषि बीमा की पहल सिर माथे लेकिन अगर खेती की चुनौतियों को वरीयता में रखना हो तो शायद कुछ और ही करना होगा. फसल बीमा जरूरी है और नई स्कीम पिछले प्रयोगों से बेहतर है, फिर भी भारत में फसल बीमा का अर्थशास्त्र, स्कीमों की जटिलताएं और तजुर्बा, इनकी सफलता को लेकर बहुत मुतमइन नहीं करता.
खेती को लेकर पिछले छह दशकों की नसीहतें बताती हैं कि बहुत सारे मोर्चे संभालने की बजाए खेती के लिए एक या दो बड़े समयबद्ध कदम पर्याप्त होंगे. अगर अगला बजट खेती के प्रति संवेदनशील है तो उसे सिंचाई क्षमताओं के निर्माण को मिशन मोड में लाना होगा. सिर्फ 35 फीसदी सिंचित भूमि और दो-तिहाई खेती की बादलों पर निर्भरता वाली खेती बाजार तो छोड़िए, किसान का पेट भरने लायक भी नहीं रहेगी.
बारहवीं योजना के दस्तावेज के मुताबिक, देश में करीब 337 सिंचाई परियोजनाएं लंबित हैं, जिनमें 154 बड़ी, 148 मझोली और 35 विस्तार व आधुनिकीकरण परियोजनाएं हैं. केंद्र सरकार इस बजट से नेशनल इरिगेशन फंड (बारहवीं योजना में प्रस्तावित) बनाकर या समग्र सिंचाई व निर्माण कार्यक्रम लाकर इन परियोजनाओं को समयबद्ध ढंग से पूरा कर सकती है. मनरेगा को सिंचाई निर्माणों से जोड़कर ग्रामीण रोजगार के लक्ष्य भी संयोजित हो सकते हैं. सिंचाई ही दरअसल एक ऐसा क्षेत्र है जहां अभी बड़े निर्माणों की गुंजाइश है. इन निर्माणों से सीमेंट, स्टील, तकनीक व रोजगार की मांग बढ़ाई जा सकती है. 
सरकार के लिए दूसरा मिशन कृषि उत्पादों का घरेलू मुक्त बाजार होना चाहिए. याद कीजिए कि 2014 में सरकार ने राज्यों से मंडी कानून बदलने को कहा था लेकिन विपक्ष को तो छोड़िए, बीजेपी के राज्य भी कानून बदलने को राजी नहीं हुए. कृषि उत्पादों का मुक्त देशी बाजार खेती का संकटमोचक है, इसके बिना 125 करोड़ उपभोक्ताओं की ताकत खेती तक नहीं पहुंच सकती. वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, भारत का खाद्य और किराना कारोबार दुनिया में छठा सबसे बड़ा बाजार है जो 104 फीसदी की ग्रोथ के साथ 2020 तक 482 अरब डॉलर हो जाएगा.
छोटे-छोटे किसानों को मिलाकर बनी फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां सामूहिक उत्पादन के जरिए छोटी जोतों का समाधान निकाल रही हैं. लोकसभा में 2014 में प्रस्तुत सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब 235 फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां पंजीकृत हो चुकी हैं. करीब 4.33 लाख किसान इसका हिस्सा होंगे. ठीक इसी तरह बिहार और मध्य प्रदेश में अनाज व तिलहन की रिकॉर्ड उपज, उत्तर प्रदेश में नई दुग्ध क्रांति, देश के कई हिस्सों में फल-सब्जी उत्पादन के नए कीर्तिमान और गुजरात में लघु सिंचाई क्षेत्रीय सफलताएं हैं.
इन सफलताओं को पूरे देश में कृषि उत्पादों का मुक्त बाजार चाहिए. भारत में मंडी कानून बदलने और एक कॉमन नेशनल एग्री मार्केट बनाने के लिए इससे बेहतर और कोई मौका नहीं हो सकता. केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन 12 राज्यों की सत्ता में मौजूद है. अगर एक दर्जन राज्य अपने मंडी कानून बदल लें तो बाकी राज्यों को राजी करना मुश्किल नहीं होगा.
नेताओं के लिए कृषि बेचारगी और सियासत का जरिया हो लेकिन किसानों की नई पीढ़ी इस तथ्य से वाकिफ है कि 125 करोड़ लोगों का पेट भरना नुक्सान का धंधा नहीं है. नए नजरिए से खेती को देखा जाए तो यह ऐसी आर्थिक गतिविधि बन चुकी है जिसे अपने बाजार की जानकारी है और पिछले एक दशक में उत्पादन (दोगुना), आय, विविधता बढ़ाकर, देश के किसानों ने अपने आधुनिक होने का सबूत दिया है. खेती को किसानों की उद्यमिता में चूक या मांग की कमी नहीं बल्कि सीमित सिंचाई और बंद बाजार मारते हैं. अगर इनका समाधान हो सके तो उभरते उपभोक्ता बाजार में खेती नई ताकत बन सकती है. 
भारत के इतिहास में 2007 में पहली बार ऐसा हुआ था जब केंद्र और राज्य सरकारों ने विशेष रूप से बैठक कर खेती पर व्यापक चर्चा की थी. यह बैठक राष्ट्रीय विकास परिषद के तहत हुई थी जो योजना आयोग की व्यवस्था में देश के विकास पर फैसले करने वाली सर्वोच्च संस्था थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खेती पर कुछ ऐसी ही बड़ी पहल करनी होगी, और राज्यों को साथ लेकर खेती पर समयबद्ध और ठोस रणनीति बनानी होगी.
आर्थिक और राजनैतिक, दोनों मोर्चों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बदहाली के नतीजे आ चुके हैं. कंपनियों के आंकड़े बता रहे हैं कि गांवों में ग्रोथ के बिना औद्योगिक अर्थव्यवस्था भी नहीं चल सकती. बिहार के चुनाव नतीजों ने भी बता दिया है कि गांवों को हल्के में लेना महंगा पड़ता है.

खेती मौसमी कारणों से दो दशकों के सबसे बुरे हाल में है लेकिन पिछले अच्छे दिन बताते हैं कि भारतीय कृषि अपना चोला बदलने को तैयार है. ताजा संकट से निबटने के लिए सब्सिडी बढ़ाने और कर्ज माफी के पुराने तरीके चुने जा सकते हैं या फिर बीमा स्कीमों या सॉयल हेल्थ कार्ड जैसे छोटे प्रयोगों को बड़ा बताया जा सकता है. दूसरा विकल्प यह है कि सिंचाई और मुक्त बाजार जैसे बड़े सुधारों की राह खोल कर खेती को चिरंतन आपदा प्रबंधन की श्रेणी से निकाल लिया जाए. ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण मोदी सरकार का सबसे बड़ा मिशन होना चाहिए, और 2016 का बजट इस मौके के सबसे करीब खड़ा है बशर्ते...!