डिजिटल करेंसी, सरकारी कंपनियों के निजीकरण और फसलों की सही कीमत के बीच क्या रिश्ता है? सरकार इन तीनों को ही टालना चाहती थी लेकिन वक्त ने इनको अपरिहार्य बना दिया. तीन साल से दायें-बायें कर रहा और प्रतिबंधों पर टिका निजाम अंतत: डिजिटल करेंसी के लिए कानून लाने पर मजबूर हो गया. ठीक इसी तरह बजट के घाटे ने यह हालत कर दी कि अब खुलकर कहना पड़ा कि सार्वजनिक कंपनियों के निजीकरण के अलावा कोई रास्ता नहीं है.
बदलता वक्त बेहद तेज आवाज में सरकार को
बता रहा है कि भारत में फसलों का पारदर्शी और उचित मूल्य (प्राइस रियलाइजेशन) तय
करने के सुधारों का वक्त आ गया है. आंदोलन कर रहे किसान दिल्ली का तख्त नहीं बस
यही सुधार तो मांग रहे हैं. और सरकार फसल मूल्यों की पारदर्शी व्यवस्था के बगैर
हवा में फसलों का बाजार खड़ा कर देना चाहती है. इसलिए शक सुलग उठे और किसानों का
ध्वस्त भरोसा अब किसान महापंचायतों में उमड़ रहा है.
किसानों को अचानक सपना नहीं आया कि वह
उठकर समर्थन मूल्य की गारंटी मांगने लगे और न ही वह ऐसा कुछ मांग रहे हैं जो सरकार
के एजेंडे में नहीं था. सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के जिस
वादे को बार बार दोहरा रही थी, फसलों की
सही कीमत (केवल सीमित सरकारी खरीद नहीं) उसका अपरिहार्य हिस्सा रही है. इन बिलों
से पहले तक तैयार हुए तीन आधिकारिक दस्तावेज बताते हैं कि किसानों की आय बढ़ाने
के लक्ष्य के तहत फसल मूल्य सुधारों के एजेंडे पर काम चल रहा था, जिससे किसान भी अनभिज्ञ नहीं थे.
फसल की वाजिब कीमत के अलावा कृषि सुधार
और हैं क्या? खेती की जमीन बढ़ नहीं सकती. फसलों का
विविधीकरण, नई तकनीकों के इस्तेमाल करने, खेती में निजी निवेश बढ़ाने या फिर छोटे किसानों की आय बढ़ाने के सभी
उपाय इस बात पर केंद्रित हैं कि उत्पादक (किसान) को अधिकांश उत्पादन (फसल) की सही
कीमत कैसे मिले. खेती में तरक्की के सभी रास्ते इससे ही निकलते हैं.
नवंबर 2018 में नीति आयोग ने न्यू इंडिया @75 नाम का दस्तावेज बनाया था, जिसकी
भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखी थी. इसमें 2022 तक कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी)
को खत्म कर एग्री प्राइसिंग ट्रिब्यूनल बनाने का लक्ष्य रखा गया. नीति आयोग से कहा
गया था कि वह
● एमएसपी के समानांतर मिनिमम रिजर्व प्राइस
(एमआरपी) की प्रक्रिया तय करे. इस एमआरपी पर मंडियों में फसल की नीलामी शुरू होनी
चाहिए.
● तैयारी यह भी थी कि देश में सरप्लस
उत्पादन, देश में कम लेकिन विदेश में ज्यादा और
दोनों जगह कम उत्पादन वाली फसलों के लिए एमएसपी से अलग कीमत तय की जाए.
● मंडी कमीशन और फीस का ढांचा बदलने की भी
राय थी ताकि किसानों को एमएसपी का प्रतिस्पर्धी मूल्य मिल सके.
● अच्छे और खराब मानसून के दौरान अलग-अलग
कीमतें तय करने पर भी बात हो रही थी.
यह दस्तावेज किसानों की आय दोगुनी करने
वाली समिति की सिफारिशों (सिंतबर 2018) के बाद
बना था जिसमें किसानों की समग्र उत्पादन लागत पर कम से कम 50 फीसदी मुनाफा देने की सिफारिश की गई थी. इससे पहले 2011 में नरेंद्र मोदी (तब मुख्यमंत्री) की
अध्यक्षता वाली समिति एमएसपी को महंगाई से जोडऩे और बाजार में फसल की बिक्री
एमएसपी पर आधारित करने के वैधानिक उपाय की राय दे चुकी थी.
ये तैयारियां से पहले सरकार यह स्वीकार कर चुकी थी
■ अधिकांश फसल (सरकारी खरीद कुल उपज का
केवल 13%) लागत से कम कीमत पर बिकती है. विभिन्न
फसलों में खलिहान मूल्य (हार्वेस्ट प्राइस) बाजार के खुदरा मूल्य से 35 से 63 फीसदी तक कम हैं—नीति आयोग
■ 1980 के बाद से अब तक किसानों की आय कभी भी
गैर खेतिहर श्रमिकों की आय के एक तिहाई से ज्यादा नहीं हो सकी. यानी 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने को उनकी
कमाई सालाना 10.4 फीसदी की दर से बढ़ानी होगी.
इस हकीकत और तैयारी की रोशनी में नए
कानूनों पर हैरत लाजिमी है जिनमें फसलों की वाजिब कीमत तय करने की योजना तो दूर
समर्थन मूल्य शब्द का जिक्र भी नहीं था. यानी मंदी के बीच किसान अर्से से जिन
सुधारों की बाट जोह रहे थे उनकी जगह उन्हें कुछ और दे दिया गया. नतीजा: आशंकाएं
जन्मी और विरोध उबल पड़ा.
यहां न सरकार गुमराह है, न किसान. सरकारें आदतन आलसी होती हैं. किसी 'खास’ को फायदा देने के अलावा वे अक्सर संकट और सियासी नुक्सान पर ही
जागती हैं. सो कभी कभी आंदोलन भी सुधार का रास्ता खोल देते हैं. फसल मूल्य सुधार
जटिल हैं, इनसे तत्काल बड़े राजनैतिक नारे नहीं
बनेंगे लेकिन इन सुधारों को अब शुरू करना ही होगा क्योंकि उस विचार को कोई भी ताकत
रोक नहीं सकती जिसका समय आ गया है (विक्टर ह्यूगो).