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Friday, September 18, 2020

पांव के नीचे जमीन नहीं

 

प्रधान की भैंस तालाब के गहरे पानी में फंस गई. सलाहकारों ने गांव के सबसे दुबले और कमजोर व्यक्तिको आगे करते हुए कहा कि इसमें जादू की ताकत है, यह चुटकियों में भैंस खींच लाएगा. दुर्बल मजदूर को तालाब के किनारे ले जाकर भैंस की रस्सी पकड़ा दी गई. सलाहकार नारे लगाने लगे और देखते-देखते बेचारा मजदूर भैंस के साथ तालाब में समा गया.

इस घटना को देखकर आया एक यात्री अगले गांव में जब यह किस्सा सुना रहा था तब कोई एक बड़ा नेता टीवी पर देश को यह बता रहा था कि जीडीपी के -24 फीसद टूटने पर सवाल उठाने वाले नकारात्मक हैं. लॉकडाउन के बीच भी खेती की ग्रोथ नहीं दिखती?  नए कानूनों की गाड़ी लेकर निजी कंपनियां खेतों तक पहुंच रही हैं. मंदी बस यूं गई, समझो.

मंडियों में निजी क्षेत्र के दखल के कानूनों में नए बदलावों पर भ्रम हो सकता है लेकिन इस पर कोई शक नहीं कि दिल्ली का निजाम खेती की हकीकत से गाफिल है. उसे अभी भी लगता है कि उपज की मार्केटिंग में निजी क्षेत्र को उतार कर किसानों की कमाई बढ़ाई जा सकती है जबकि खेती की दरारें बहुत चौड़ी और गहरी हो चुकी हैं.

जहां समर्थन मूल्य बढ़ाने के बावजूद 2019 में किसानों को तिमाही वजीफा देना पड़ा था, उस खेती को महामंदी से उबारने की ताकत से लैस बताया जा रहा है. पहली तिमाही में 3.4 फीसद की कृषिविकास दर चमत्कारिक नहीं है. खेती के कुल उत्पादन मूल्य (जीवीए) में बढ़ोतरी बीते बरस से खासी कम (8.6 से 5.7 फीसद) है. यानी उपज का मूल्य न बढ़ने से, पैदावार बढ़ाकर किसान और ज्यादा गरीब हो गए.

खेती में आय पिछले चार-पांच वर्षों से स्थिर है, बल्कि महंगाई के अनुपात में कम ही हो गई है. 81.5 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास एक एकड़ से कम जमीन है. जोत का औसत आकार अब घटकर केवल 1.08 एकड़ पर आ चुका है. नतीजतन, भारत में किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित) 6,000 रुपए से ज्यादा नहीं हो पाती. यह 200 रुपए रोज की दिहाड़ी है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है. क्या हैरत कि 2018 में 11,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की.

90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरिक्त दैनिक कमाई पर निर्भर हैं. ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि 60 फीसद आय गैर कृषिकामों से आती है. खेती से आय एक गैर कृषिकामगार की कमाई की एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है. जो शहरी दिहाड़ी से हुई बचत गांव भेजकर गरीबी रोक रहे थे लॉकडाउन के बाद वे खुद गांव वापस पहुंच गए हैं.

सरकार बार-बार खेती की हकीकत समझने में चूक रही है. याद है न समर्थन मूल्य पर 50 फीसद मुनाफे का वादा और उसके बाद बगलें झांकना या 2014 में भूमि अधिग्रहण कानून की शर्मिंदगी भरी वापसी. अब आए हैं तीन नए कानून, जो उपज के बाजार का उदारीकरण करते हैं और व्यापारियों के लिए नई संभावनाएं खोलते हैं.

फसलों से उत्पाद बनाने की नीतियां कागजों पर हैं. सरकार के दखल से उपजों का बाजार बुरी तरह बिगड़ चुका है. किसान ज्यादा उगाकर गरीब हो रहा है. जब सरकार ही उसे सही कीमत नहीं दे पाती तो निजी कारोबारी क्या घाटा उठाकर किसान कल्याण करेंगे.

कृषिमें अब दरअसल यह होने वाला हैः

खरीफ में अनाजों का बुवाई बढ़ना अच्छी खबर नहीं है. लॉकडाउन में नकदी फसलों में नुक्सान के कारण किसान फिर अनाज उगाने लगे हैं, जहां उन्हें कभी फायदे का सौदा नहीं मिलता.

घटती मांग के बीच अनाज की भरमार होने वाली है. खेती भी मंदी की तरफ मुखातिब है, स्थानीय महंगाई से किसान को कुछ नहीं मिलता बल्कि उपभोक्ता इस बोझ को उठाता है.

करीब 50 करोड़ लोग या 55 फीसद ग्रामीणों के पास जमीन का एक टुकड़ा तक नहीं है. देश में 90 लाख मजदूर मौसमी प्रवासी (जनगणना 2011) हैं, जो खेती का काम बंद होने के बाद शहर में दिहाड़ी करते हैं. लॉकडाउन के बाद ये सब निपट निर्धनता की कगार पर पहुंच गए हैं.

जरूरत से ज्यादा मजदूर, मांग से ज्यादा पैदावार और शहरों से आने वाले धन के स्रोत बंद होने से ग्रामीण आय में कमी तय है.

बीते 67 सालों में जीडीपी की वृद्धि दर 3 से 7.29 फीसद पर पहुंच गई लेकिन खेती की विकास दर 2 से 3 फीसद के बीच झूल रही है. इस साल भी कोई कीर्तिमान बनने वाला नहीं है. जीडीपी में केवल 17 फीसद हिस्से वाली खेती इस विराट मंदी से क्या उबारेगी. यह मंदी तो 43 फीसद रोजगारों को संभालने वाली इस आर्थिक गतिविधिको नई गरीबी की फैक्ट्री में बदलने वाली है.

सरकार को दो काम तो तत्काल करने होंगे. एकअसंख्य स्कीमों को बंद कर यूनिवर्सल बेसिक इनकम की शुरुआत और दूसरा न्यूनतम मजदूरी दर को महंगाई से जोड़ना.

सनद रहे कि गांवों के पास मंदी का इलाज होने या ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ताकत बताने वाले सिर्फ भरमा रहे हैं. गांवों की हकीकत दर्दनाक है. शहर जब तक मंदी की गर्त से निकल कर तरक्की की सीढ़ी नहीं चढ़ेंगे गांव उठकर खड़े नहीं होंगे.

Monday, October 22, 2018

बाजी पलटने वाले!


सियासत अगर इतिहास को नकारे नहीं तो नेताओं पर कौन भरोसा करेगा? सियासत यह दुहाई देकर ही आगे बढ़ती है कि इतिहास हमेशा खुद को नहीं दोहराता लेकिन बाजार इतिहास का हलफनामा लेकर टहलता है, उम्मीदों पर दांव लगाने के लिए वह अतीत से राय जरूर लेता है. 
जैसे गांवों या खेती को ही लें.
इस महीने की शुरुआत में जब किसान दिल्ली की दहलीज पर जुटे थे तब सरकार को इसमें सियासत नजर आ रही थी लेकिन आर्थिक दुनिया कुछ दूसरी उधेड़बुन में थी. निवेशकों को 2004 और 2014 याद आ रहे थे जब आमतौर पर अर्थव्यवस्था का माहौल इतना खराब नहीं था लेकिन सूखा, ग्रामीण मंदी व आय में कमी के कारण सरकारें भू लोट हो गईं.
चुनावों के मौके पर भारतीय राजनीति की भारत माता पूरी तरह ग्रामवासिनी हो जाती है. अर्थव्यवस्था और राजनीति के रिश्ते विदेशी निवेश या शहरी उपभोग की रोशनी में नहीं बल्कि लोकसभा की उन 452 ग्रामीण सीटों की रोशनी में पढ़े जाते हैं जहां से सरकार बनती या मिट जाती है.
समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी और कर्ज माफी के बावजूद गांवों में इतनी निराशा या गुस्सा क्यों है?
पानी रे पानी: 2015 से 2018 तक भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरी मंदी से जूझती रही है. पहले दो साल (2015 और 2016) सूखा, फिर बाद के दो वर्षों में सामान्य से कम बारिश रही और इस साल तो मॉनसून में सामान्य से करीब 9 फीसदी कम बरसात हुई जो 2014 के बाद सबसे खराब मॉनसून है. हरियाणा, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र (प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्य) में 2015 से 2019 के बीच मॉनूसन ने बार-बार धोखा दिया है. इन राज्यों के आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा 17 से 37 फीसदी तक है.
यह वह मंदी नहीं: दिल्ली के हाकिमों की निगाह अनाजों के पार नहीं जाती. उन्हें लगता है कि अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ाने से गांवों में हीरे-मोती बिछ जाएंगे. लेकिन मंदी तो कहीं और है. दूध और फल सब्जी का उत्पादन बढऩे की रफ्तार अनाज की तुलना में चार से आठ गुना ज्यादा है. छोटे मझोले किसानों की कमाई में इनका हिस्सा 20 से 30 फीसदी है. पिछले तीन साल में इन दोनों उत्पाद वर्गों को मंदी ने चपेटा है. बुनियादी ढांचे की कमी और सीमित प्रसंस्करण सुविधाओं के कारण दोनों में उत्पादन की भरमार है और कीमतें कम. इसलिए दूध की कीमत को लेकर आंदोलन हो रहे हैं. उपभोक्ता महंगाई के आंकड़े इस मंदी की ताकीद करते हैं.
गांवों में गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है. शहरी मंदी, गांवों की मुसीबत बढ़ा रही है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और उसे मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी?  
कमाई कहां है ?: गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. एक ताजा रिपोर्ट (जेएम फाइनेंशियल-रूरल सफारी) बताती है कि सूखे के पिछले दौर में भवन निर्माण, बालू खनन, बुनियादी ढांचा निर्माण, डेयरी, पोल्ट्री आदि से गैर कृषि आय ने गांवों की मदद की थी. लेकिन नोटबंदी जीएसटी के बाद इस पर भी असर पड़ा है. गैर कृषि आय कम होने का सबसे ज्यादा असर पूर्वी भारत के राज्यों में दिखता है. इस बीच गांवों में जमीन की कीमतों में भी 2015 के बाद से लगातार गिरावट आई है.
महंगाई के पंजे: अनाज से समर्थन मूल्य में जितनी बढ़त हुई है उसका एक बड़ा हिस्सा तो रबी की खेती की बढ़ी हुई लागत चाट जाएगी. कच्चे तेल की आग उर्वरकों के कच्चे माल तक फैलने के बाद उवर्रकों की कीमत 5 से 28 फीसदी तक बढऩे वाली है. डीएपी की कीमत तो बढ़ ही गई है, महंगा डीजल रबी की सिंसचाई महंगी करेगा.
मॉनसून के असर, ग्रामीण आय में कमी और गांवों में मंदी को अब आर्थिक के बजाए राजनैतिक आंकड़ों की रोशनी में देखने का मौका आ गया है. याद रहे कि गुजरात के चुनावों में गांवों के गुस्से ने भाजपा को हार की दहलीज तक पहुंचा दिया था. मध्य प्रदेश जनादेश देने की कतार में है.  
हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां 2015 से 2019 के बीच दो से लेकर पांच साल तक मॉनसून खराब रहा है; ग्रामीण आय बढऩे की रफ्तार में ये राज्य सबसे पीछे और किसान आत्महत्या में सबसे आगे हैं.
सनद रहे कि ग्रामीण मंदी से प्रभावित इन राज्यों में लोकसभा की 204 सीटे हैं. और इतिहास बताता है कि भारत के गांव चुनावी उम्मीदों के सबसे अप्रत्याशित दुश्मन हैं.


Monday, February 5, 2018

बजट की कसौटी

एनडीए सरकार उसी घाट फिसल गई जिसको उसे सुधारना था. सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पढ़ते हुए महसूस होता है कि सरकारों के तौर-तरीके आत्मा की तरह अजर-अमर हैं. यह आत्मा हर पांच वर्ष में राजनैतिक दलों के नाशवान शरीर बदलती है.

अगर बजट से सरकार की कमाई और खर्च को संसदीय मंजूरी निकाल दी जाए तो फिर इस सालाना जलसे में बचता क्या हैक्यों बजट इतने मूल्यवान हैं जबकि अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्साभाग्यवशबजट यानी सरकार के नियंत्रण से बाहर हैजहां बजट की भूमिका परोक्ष ही होती है. 

बजट इसलिए उत्सुकता जगाते हैं क्‍यों कि इनसे एक तो सरकार की नई सूझ का पता चलता है और दूसरा सरकार ने अपनी पिछली सूझ (फैसलोंनीतियों) पर अमल कितने दुरुस्त तरीके से किया है. बजट देखकर हम आश्वस्त हो सकते हैं कि हमसे लिया गया टैक्स कायदे से खर्च हो रहा है और बैंकों में हमारी जमा जो कर्ज में बदल कर सरकार को मिल रही हैउसका सही इस्तेमाल हो रहा है.

बजट हमेशा तात्‍कालिक और  दूरगामी कसौटी पर कसे जाते हैं तात्‍कालिक कसौटी यह है कि जिंदगी जीने की लागत बढ़ेगी या कम होगी. महंगाई ओर ब्‍याज दरें इस कसौटी का हिस्‍सा हैं.  दूरगामी कसौटी यह है कि जिंदगी कितनी सुविधाजनक होगी. सरकारी  स्‍कीमों का क्रियान्‍वयन इस कसौटी की बुनियाद है  

आगे और महंगाई है

महंगाई जिंदगी जीने की लागत बढ़ाती है. इस बजट के पीछे भी महंगाई थी जो जीएसटी से निकली थी और आगे भी महंगाई खड़ी है.

एकखेती के बढ़े हुए समर्थन मूल्य किसानों को भले ही न मिलें लेकिन बाजार को 
यह अहसास हो गया है कि खाद्य उत्‍पादों के मूल्‍य बढ़ेंगे. कई बाजारो में उन फसलों को लेकर तेजी माहौल बनने लगा है जिन की उपज आमतौर पर मांग से कम है. दालें इनमें प्रमुख हैं महंगाई उपभोक्‍ताओं के दरवाजे पर खड़ी है कीमतों तेजी रबी की फसल बाजार में आने के साथ प्रारंभ हो सकती है

दोढेर सारी चीजों पर सीमा शुल्क बढ़ा है जीएसटी का असर कीमतों पर पहले से है खासतौर  टैक्‍स के चलते सेवायें महंगी हुई हैं

तीनराजकोषीय घाटा बढऩे से सरकार का कर्ज बढ़ेगा जो महंगाई की वजह होगा.

चार- कच्‍चे तेल की कीमतें बढ़ने लगी है, पेट्रोल-डीजल पर नया सेस लगाया गया है. जो ईंधन की महंगाई को असर करेगा.

इस बजट ने फिर यह साबित किया कि महंगाई बढ़ाए बिनासरकार खुद को नहीं चला सकती. सरकार अपना खर्च कम करने को तैयार नहीं है इसलिए लोग महंगाई या टैक्स की मार के बदले ही कुछ पाने की उम्मीद कर सकते हैं.

ताकि सनद रहे: पहले बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकारी खर्च के पुनर्गठन का वादा किया था.

स्‍कीम-राज !
भारतीय गवर्नेंस अच्छे इरादों को खोखले वादों में बदलने वाली मशीन है. जिंदगी को सुविधाजनक बनाने के लिए सरकारी स्कीमों का क्रियान्वयन बेहतर होना जरूरी है. जेटली जब 'दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा स्कीम का ऐलान कर रह थेउनकी अपनी ही सरकार की दो असफल स्वास्थ्य बीमा स्कीमें उनके पीछे खड़ी थीं. सरकारों की स्कीमबाजी उबाऊ हो चली है. इनकी असफलता असंदिग्ध है. नई सरकारें नई स्‍कीमें लाती हैं तो लोग निराश होते हैं उम्‍मीद यह होती है कि सरकार पुरानी स्कीमों की डिलीवरी को चुस्त करेगी.

ताकि सनद रहे: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा लक्ष्य गवर्नेंस यानी कि सरकारी कार्यक्रमों का क्रियान्वयन सुधारना था. लेकिन बजट दर बजट उन्हें नई स्कीमें लानी पड़ी हैं ताकि पिछली स्कीमों के खराब क्रियान्वयन को भुलाया जा सके. स्कीमों की भीड़ और उनके बुरे हाल से अब इस सरकार की ही नहींअगली सरकारों की साख भी खतरे में रहेगी.

कर्ज जो रहेगा महंगा

सस्ता कर्ज नोटबंदी के सबसे बड़े मकसदों में एक था. हालांकि ऐसा   हुआ नहीं. फंसे हुए कर्जों ने बैंकों के हाथ बांध दिये थे. नोटबंदी ने उन पर ब्‍याज का बोझ बढ़ा दिया. बैंकों की सरकारी मदद ( पूंजीकरण) पहुंचने तक महंगाई आ पहुंची. सात फरवरी को रिजर्व बैंक जब मौद्रिक नीति की समीक्षा करेगातो उसे महंगाई और राजकोषीय घाटे को लेकर खतरे की चेतावनियां भेजनी होंगी. ब्‍याज दरें कम होने की उम्‍मीद अब कम है. अचरज नहीं कि अगर ब्‍याज दरें बढ़ जाएं. स्‍टेट ने अपने डिपॉजिट पर ब्‍याज बढ़ाई है ताकि जमाकर्ता बैंकों से जुडे रहे हैं. इसका असर कर्ज की ब्‍याज दर पर होगा

मोदी सरकार के पहले दो बजट (जुलाई 2014 और फरवरी 2015 ) अभी कल की ही बात लगते हैं जब दहाई के अंकों में विकास दरनई गवर्नेंसबिग आइडियासब्सिडी में कटौतीखर्च में कमीघाटे पर काबूसस्‍ते कर्ज के आह्वान उम्मीदें जगाते थे लेकिन आखिरी बजट आते-आते महंगाईकच्चे तेल की बढ़ती कीमतस्कीमों की बारात और भारी टैक्स लौट आए हैं. और मंदी अभी तक गई नहीं है 

हाल के दशकों में सबसे भव्य जनादेश वाली सरकार का आखिरी बजट यही बता रहा है कि चुनावों में सरकार तो बदली जा सकती है लेकिन 'सरकार’ को बदलना नामुमकिन है.  

Monday, January 8, 2018

जिसका डर था...


मंदी हमेशा बुरी होती है, लंबी मंदी और भी बुरी. 2018 में सात वर्ष पूरे कर रही मंदी ने भारत की सबसे बड़ी आर्थिक दरार खोल दी है. 1991 के बाद पहली बार किसान और उपभोक्ता आमने-सामने खड़े हो गए हैं. पिछले 25 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ जब गांव और शहर इस तरह आमने-सामने आए हों.

आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि इसने गांव और शहर के बीच राजनैतिक बंटवारे को सिकोड़ दिया था. सुधारों के पहले पांच साल में ही गांव और शहरों के बीच की दूरी घटने लगी थी. दोनों अर्थव्यवस्थाओं के पास एक दूसरे को देने के लिए कुछ न कुछ था. शहरों के पास बढ़ती आबादी थी और गांवों के पास उपज. शहरों के पास अवसर थे, गांवों के पास श्रम था. शहरों के पास सुविधाएं, सेवाएं, तकनीक थीं, गांवों के पास उनकी मांग.

सुधारों के करीब ढाई दशक बाद आज यह समझा जा सकता है कि इस बदलाव ने सरकारों और राजनीति को, गांव और शहरों को (सड़क, मोबाइल, बिजली) जोडऩे पर बाध्य किया न कि बांटने पर. 2006-07 में तेज आर्थिक विकास के बीच कांग्रेस ने मनरेगा के जरिए गांवों को राजनीति के केंद्र में लाने की आंशिक कोशिश की. मनरेगा तेज आर्थिक विकास के बीच आई थी इसलिए इससे एक ओर गांवों में आय बढ़ी तो दूसरी ओर उद्योगों को नई मांग मिली.

यही वह समय था जब गांवों में एक नया मध्य वर्ग तैयार हुआ. पिछले एक दशक में शिक्षा, चिकित्सा, संचार की अधिकांश नई मांग इसी ग्रामीण और अर्धनगरीय मध्य वर्ग से निकली है. 2007 के बाद ग्रामीण और कस्बाई बाजार के लिए रणनीतियां हर कंपनी की वरीयता पर थीं.

ताजा मंदी ने यह संतुलन बिगाड़ दिया. मंदी ने हमें 2011-12 में पकड़ा. 2014 में सरकार बदलते वक्त ई-कॉमर्स, शेयर बाजार, होटल और यात्रा जैसे कुछ क्षेत्र ही दहाई के अंकों की रफ्तार दिखा रहे थे. औद्योगिक उत्पादन और भवन निर्माण ठप था, सेवाएं भी सुस्त पड़ गई थीं.

फिर भी 2008 से 2014 के बीच माकूल मौसम, समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी, नगरीय आबादी की बढ़ती मांग, गांवों में जमीन की बेहतर कीमत और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कृषि जिंसों की तेजी ने खेती को दौड़ाए रखा था. 2014 के सूखे के बाद चार साल में उपज बिगड़ी और कीमतें गिरीं.

पिछले 25 साल में आर्थिक सुस्ती के छोटे दौर आए हैं लेकिन यह पहला सबसे लंबा कालखंड है जबकि अर्थव्यवस्था के सभी इंजन सुस्त या बंद हैं.

सबसे बड़ी दुविधा

2014 में सरकार ने इस संकल्प के साथ शुरुआत की थी कि अब समर्थन मूल्य नहीं बढ़ेंगे क्योंकि इनसे महंगाई बढ़ती है. भूमि अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक चोट और सूखे के कारण समर्थन मूल्य बढ़ाना पड़ा. महंगाई आई तो दालों के आयात से बाजार में कीमतें टूट गईं. नतीजतन मंदसौर में दाल की कीमत मांगते किसानों को पुलिस की गोलियां मिलीं.

गांव और शहर अब दो ध्रुवों पर खड़े हैं:

- किसान को अपनी उपज का मूल्य चाहिए. पैदावार पर 50 फीसदी मुनाफे का चुनावी वादा (जो तर्कसंगत नहीं था) राजनैतिक आफत है. कहां 2014 में सरकार समर्थन मूल्यों को सीमित कर रही थी लेकिन अब हरियाणा में सब्जी पर भी सरकारी कीमत देने की कोशिश हो रही है, हालांकि वह बेहद कम है. सरकारों के बजट इससे ज्यादा की इजाजत नहीं देते.

- दूसरी तरफ समर्थन मूल्य में कोई भी बढ़त महंगाई को दावत है. इस साल की शुरुआत मुद्रास्‍फीति के साथ हुई है. तेल कीमतें, बजट घाटा सब मिलकर महंगाई के लिए ईंधन जुटा रहे हैं. शहरों में बेकारी और आय में कमी के बीच चुनाव के साल में महंगाई का जोखिम राजनैतिक मुसीबत बन जाएगा.

किसान और उपभोक्ता के बीच संतुलन का इलाज खुदरा बाजार में विदेशी निवेश और मंडी कानून की समाप्ति हो सकती थी लेकिन वहां भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक है, जिसने दोनों बेहद संवेदनशील सुधार परवान नहीं चढऩे दिए. इन्हीं की एक घुड़की में जीएसटी का शीर्षासन हो गया.


पिछले दो दशक में यह पहला मौका है जब किसान और उपभोक्ता, दोनों एक साथ परेशान हैं. दोनों जगह आय घटी है और अवसर कम हुए हैं. प्रोत्साहन की चौखट पर अब किसान और उपभोक्ता, दोनों को एक साथ बिठाना असंभव हो चला है. इस साल का बजट बताएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांव की पूंछ पकड़ चुनावी वैतरणी उतरेंगे या उपभोक्ताओं को पुचकार कर सियासत साधेंगे. मंदी न चाहते हुए भी गांव बनाम शहर की विभाजक सियासत को चुनाव के केंद्र में ले आई है.