प्रधान की भैंस तालाब के गहरे पानी में फंस गई. सलाहकारों ने गांव के सबसे दुबले और कमजोर व्यक्ति को आगे करते हुए कहा कि इसमें जादू की ताकत है, यह चुटकियों में भैंस खींच लाएगा. दुर्बल मजदूर को तालाब के किनारे ले जाकर भैंस की रस्सी पकड़ा दी गई. सलाहकार नारे लगाने लगे और देखते-देखते बेचारा मजदूर भैंस के साथ तालाब में समा गया.
इस घटना को देखकर आया एक यात्री अगले गांव में जब यह किस्सा सुना रहा था
तब कोई एक बड़ा नेता टीवी पर देश को यह बता रहा था कि जीडीपी के -24 फीसद टूटने पर सवाल उठाने वाले नकारात्मक हैं.
लॉकडाउन के बीच भी खेती की ग्रोथ नहीं दिखती? नए कानूनों की गाड़ी लेकर निजी कंपनियां
खेतों तक पहुंच रही हैं. मंदी बस यूं गई, समझो.
मंडियों में निजी क्षेत्र के दखल के कानूनों में नए बदलावों पर भ्रम हो
सकता है लेकिन इस पर कोई शक नहीं कि दिल्ली का निजाम खेती की हकीकत से गाफिल है. उसे अभी भी लगता है कि उपज की मार्केटिंग में निजी क्षेत्र
को उतार कर किसानों की कमाई बढ़ाई जा सकती है जबकि खेती की दरारें बहुत चौड़ी और गहरी
हो चुकी हैं.
जहां समर्थन मूल्य बढ़ाने के बावजूद 2019 में किसानों को तिमाही वजीफा देना पड़ा था, उस खेती को महामंदी से उबारने की ताकत से लैस बताया जा रहा है. पहली तिमाही में 3.4 फीसद की कृषि विकास दर चमत्कारिक नहीं है. खेती के कुल उत्पादन मूल्य
(जीवीए) में बढ़ोतरी बीते बरस से खासी कम
(8.6 से 5.7 फीसद) है.
यानी उपज का मूल्य न बढ़ने से, पैदावार बढ़ाकर
किसान और ज्यादा गरीब हो गए.
खेती में आय पिछले चार-पांच
वर्षों से स्थिर है, बल्कि महंगाई के अनुपात
में कम ही हो गई है. 81.5 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास एक एकड़
से कम जमीन है. जोत का औसत आकार अब घटकर केवल 1.08 एकड़ पर आ चुका है. नतीजतन, भारत
में किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित)
6,000 रुपए से ज्यादा नहीं हो पाती. यह
200 रुपए रोज की दिहाड़ी है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है.
क्या हैरत कि 2018 में 11,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की.
90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरिक्त दैनिक कमाई पर निर्भर हैं. ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि
60 फीसद आय गैर कृषि कामों से आती है.
खेती से आय एक गैर कृषि कामगार की कमाई की एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है.
जो शहरी दिहाड़ी से हुई बचत गांव भेजकर गरीबी रोक रहे थे लॉकडाउन के
बाद वे खुद गांव वापस पहुंच गए हैं.
सरकार बार-बार खेती की हकीकत समझने
में चूक रही है. याद है न समर्थन मूल्य पर 50 फीसद मुनाफे का वादा और उसके बाद बगलें झांकना या 2014 में भूमि अधिग्रहण कानून की शर्मिंदगी भरी वापसी.
अब आए हैं तीन नए कानून, जो उपज के बाजार का उदारीकरण
करते हैं और व्यापारियों के लिए नई संभावनाएं खोलते हैं.
फसलों से उत्पाद बनाने की नीतियां कागजों पर हैं. सरकार के दखल से उपजों का बाजार बुरी तरह बिगड़ चुका है.
किसान ज्यादा उगाकर गरीब हो रहा है. जब सरकार ही
उसे सही कीमत नहीं दे पाती तो निजी कारोबारी क्या घाटा उठाकर किसान कल्याण करेंगे.
कृषि में अब दरअसल यह होने
वाला हैः
■ खरीफ में अनाजों
का बुवाई बढ़ना अच्छी खबर नहीं है. लॉकडाउन में नकदी फसलों में नुक्सान के कारण किसान फिर अनाज उगाने लगे हैं,
जहां उन्हें कभी फायदे का सौदा नहीं मिलता.
■ घटती मांग के बीच
अनाज की भरमार होने वाली है. खेती भी मंदी की तरफ मुखातिब है, स्थानीय महंगाई से किसान को कुछ नहीं मिलता बल्कि
उपभोक्ता इस बोझ को उठाता है.
■ करीब 50 करोड़ लोग या 55 फीसद ग्रामीणों के पास जमीन का एक टुकड़ा तक नहीं है. देश में 90 लाख मजदूर मौसमी प्रवासी (जनगणना 2011) हैं, जो खेती का काम
बंद होने के बाद शहर में दिहाड़ी करते हैं. लॉकडाउन के बाद ये
सब निपट निर्धनता की कगार पर पहुंच गए हैं.
■ जरूरत से ज्यादा
मजदूर, मांग से ज्यादा पैदावार और शहरों से आने वाले धन के स्रोत
बंद होने से ग्रामीण आय में कमी तय है.
बीते 67 सालों में जीडीपी की
वृद्धि दर 3 से 7.29 फीसद पर पहुंच गई लेकिन
खेती की विकास दर 2 से 3 फीसद के बीच झूल
रही है. इस साल भी कोई कीर्तिमान बनने वाला नहीं है. जीडीपी में केवल 17 फीसद हिस्से वाली खेती इस विराट मंदी
से क्या उबारेगी. यह मंदी तो 43 फीसद रोजगारों
को संभालने वाली इस आर्थिक गतिविधि को
नई गरीबी की फैक्ट्री में बदलने वाली है.
सरकार को दो काम तो तत्काल करने होंगे. एक—असंख्य स्कीमों को बंद कर यूनिवर्सल बेसिक इनकम की
शुरुआत और दूसरा न्यूनतम मजदूरी दर को महंगाई से जोड़ना.
सनद रहे कि गांवों के पास मंदी का इलाज होने या ग्रामीण अर्थव्यवस्था की
ताकत बताने वाले सिर्फ भरमा रहे हैं. गांवों की हकीकत दर्दनाक है. शहर जब तक मंदी की गर्त
से निकल कर तरक्की की सीढ़ी नहीं चढ़ेंगे गांव उठकर खड़े नहीं होंगे.