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Monday, November 17, 2014

मोदी की कूटनीतिक करवट


अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत ने अपना हमसफर चुन लिया है. जी 20 की बैठक के बाद अगर भारत और अमेरिका की दोस्ती देखने लायक होगी तो भारत और चीन के रिश्तों का रोमांच भी दिलचस्‍प रहेगा

मेरिकी अभियान की सफलता के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सलाहकारों को यह एहसास हो गया था कि तमाम पेचोखम से भरपूर, व्यापार की ग्लोबल कूटनीति में भारत कुछ अलग-थलग सा पड़ गया है. चीन और अमेरिका की जवाबी पेशबंदी जिस नए ग्लोबल ध्रुवीकरण की शुरुआत कर रही है, दो विशाल व्यापार संधियां उसकी धुरी होंगी. अमेरिका की अगुआई वाली ट्रांस पैसिफिक नेटवर्क (टीपीपी) और चीन की सरपरस्ती वाली एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) अगले कुछ वर्षों में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को निष्प्रभावी कर सकती हैं. इन दोनों संधियों में भारत का कोई दखल नहीं है और रहा डब्ल्यूटीओ तो वहां भी एक बड़ा समझैता रोक कर भारत हाशिए पर सिमटता जा रहा था. यही वजह थी कि जी20 के लिए प्रधानमंत्री के ब्रिस्बेन पहुंचने से पहले भारत के कूटनीतिक दस्ते ने न केवल अमेरिका के साथ विवाद सुलझकर डब्ल्यूटीओ में गतिरोध खत्म किया बल्कि दुनिया को इशारा भी कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत ने अपना हमसफर चुन लिया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र् मोदी की कूटनीतिक वरीयताएं स्पष्ट होने लगी हैं. राजनयिक हलकों में इसे लेकर खासा असमंजस था कि चीन के आमंत्रण के बावजूद, प्रधानमंत्री एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर बैठक के लिए बीजिंग क्यों नहीं गए?

Monday, September 9, 2013

मंदी से बड़ी चुनौती


मध्‍य पूर्व के तेल और अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता, पूरी दुनिया की ऐतिहासिक विवशता है। इनके समाधान के बिना दुनिया के बाजार स्‍वस्‍थ व स्‍वतंत्र नहीं हो सकते।

साहस, समझदारी व सूझबूझ से महामंदी तो टाली जा सकती है लेकिन ऐतिहासिक विवशताओं का समाधान नहीं हो सकता। सीरिया और अमेरिकी मौद्रिक नी‍ति में संभावित बदलावों ने ग्‍लोबल बाजारों को इस हकीकत का अहसास कर दिया है कि अरब देशों का तेल व अमेरिका का डॉलर, मंदी से बड़ी चुनौतियां हैं, और मध्‍य पूर्व के सिरफिरे तानाशाह व दुनिया के शासकों की भूराजनीतिक महत्‍वाकांक्षायें आर्थिक तर्कों की परवाह नहीं करतीं। वित्‍तीय बाजारों को इस ऐतिहासिक बेबसी ने उस समय घेरा है, जब मंदी से उबरने का निर्णायक जोर लगाया जा रहा है। सीरिया का संकट पेट्रो बाजार में फट रहा है जिस ईंधन का फिलहाल कोई विकल्‍प उपलब्‍ध नहीं है जबकि अमेरिकी मौद्रिक नीति में बदलाव वित्‍तीय बाजारों में धमाका करेगा जिनकी किस्‍मत दुनिया की बुनियादी करेंसी यानी अमेरिकी डॉलर से बंधी है। विवशताओं की यह विपदा उभरते बाजारों पर सबसे ज्‍यादा भारी है जिनके पास न तो तेल की महंगाई झेलने की कुव्‍वत है और न ही पूंजी बाजारों से उड़ते डॉलरों को रोकने का बूता है। सस्‍ती अमेरिकी पूंजी की आपूर्ति में कमी और तेल की कीमतें मिलकर उत्‍तर पूर्व के कुछ देशों में 1997 जैसे हालात पैदा कर सकते हैं। भारत के लिए यह 1991 व 1997 की कॉकटेल होगी यानी तेल की महंगाई और कमजोर मुद्रा, दोनों एक साथ।
अमेरिका टॉम हॉक्‍स मिसाइलों को दमिश्‍क में उतारने की योजना पर दुनिया को सहमत नहीं कर पाया। सेंट पीटर्सबर्ग के कांस्‍टेटाइन पैलेस की शिखर बैठक में रुस व अमेरिका के बीच जिस तरह पाले खिंचे वह ग्‍लोबर बाजारों के लिए डरावना है। 1983-84 में सीरियाई शासक असद