उर्मिला अपने पति मनोज और बच्चों के साथ गरीबी को लेकर बीते
बरस ही गांव पहुंच गई थी. 2020 के लॉकडाउन ने फरीदाबाद में उसकी गृहस्थी उजाड़ दी थी.
पूरा साल बचत खाकर और कर्ज लेकर कटा. करीबी कस्बों में काम तलाशते हुए परिवार को
अप्रैल में कोरोना ने पकड़ लिया, पिता हांफते हुए गुजर गए, मनोज और उर्मिला बीमार हैं, खाने और इलाज के पैसे नहीं हैं.
कोविड की पहली लहर तक आत्ममुग्ध सरकारें मुतमइन थीं कि
बीमारी शहरों-कस्बों तक रह जाएगी लेकिन सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि पांच मई तक 243 अति पिछड़े जिलों (अधिकांश उत्तर प्रदेश,
बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिसा, झारखंड) में 36,000 मौतें हुईं हैं और संक्रमितों की संख्या करीब 39 लाख पर पहुंच गई जो बीते साल 16 सितंबर को पहली लहर के शिखर की तुलना में चार गुना ज्यादा
है.
शहरों में मौतें संसाधनों या खर्च क्षमता की कमी से नहीं
बल्कि तैयारियों की बदहवासी से हुई थीं. लेकिन गांवों में जहां पहली लहर गरीबी लाई
थी, वहीं दूसरी
बीमारी और मौत ला रही है.
●करीब 10 करोड़ लोग (मिस्र की आबादी के बराबर) भारत में हर पखवाड़े
बीमार होते हैं. 1,000 में 29 अस्तपाल में भर्ती होते हैं. बीमारियों की सबसे बड़ी वजह
संक्रमण हैं. गांवों में 35 फीसद लोग संक्रमण और उनमें भी 11 फीसद लोग सांस से जुड़ी बीमरियों का शिकार होते है.
(एनएसएसओ 75वां दौर 2018)
●गांवों के सरकारी अस्पतालों में प्रति 10,000 लोगों पर केवल 3.2 बिस्तर हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार (0.6), झारखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र में तो इससे भी कम. सामुदायिक स्वास्थ्य
केंद्रों पर 82 फीसद
स्वास्थ्यकर्मियों के पास कोई विशेषज्ञता नहीं है. (नेशनल हेल्थ प्रोफाइल सेंसस 2011)
●करीब 74 फीसद ओपीडी और 65 फीसद अस्पताल सुविधाएं निजी क्षेत्र से आती हैं जो नगरों
में हैं. गांवों में भी सरकारी अस्पतालों के जरिए इलाज में औसत 5,000 रुपए खर्च आता है. अस्पताल में भर्ती का न्यूनतम खर्च करीब
30,000 रुपए दैनिक है. आर्थिक समीक्षा 2021 ने बताया था कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं सुधरें तो इलाज पर
गरीबों का 60 फीसद खर्च बच
सकता है.
आयुष्मान भारत की याद आ रही है न?
महामारी में कहां गया गरीबों का सहारा या दुनिया का सबसे
बड़ा हेल्थ बीमा कार्यक्रम? कोविड (लॉकडाउन पहले और बीच में) के दौरान आयुष्मान के
संचालन पर नेशनल हेल्थ अथॉरिटी (आयुष्मान की रेगुलेटर) का डेटा एनालिटिक्स बताता
है कि इसकी क्या गत बनी है
■ कोविड से पहले तक करीब 21,573 अस्पताल (56 फीसद सरकारी, 44 फीसद निजी) आयुष्मान से जुड़े थे,
जिनमें करीब 51 फीसद अस्पताल कार्ड धारकों को सेवा दे रहे थे. लॉकडाउन के
बाद अस्पतालों की सक्रियता 50 फीसद तक घट गई. निजी (50 बेड से कम) और सरकारी (100 बेड से कम) अस्पतालों ने सबसे पहले खिड़की बंद की,
जिसका असर कस्बों पर पड़ा जहां ग्रामीणों को इलाज मिलता है.
■ आयुष्मान के तहत अस्पतालों की सेवाओं का उपयोग लॉकडाउन के
बाद 61 फीसद तक कम हो
गया.
■ बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक सहित करीब 13 राज्यों में आयुष्मान पूरी तरह चरमरा गई.
सरकार की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना महामारी की वास्तविकताओं
के हिसाब से बदल नहीं सकी, अलबत्ता इसके चलते कई प्रमुख राज्यों में सस्ते इलाज की
स्कीमें निष्क्रिय हों गईं.
उर्मिला और मनोज जिस भारत के जिस सबसे बड़े तबके आते हैं,
कोविड उनका सब कुछ तबाह कर देने वाला है. इनका परिवार उन 5.5 करोड़ लोगों का हिस्सा हैं जो केवल इलाज के कारण गरीब
(पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन सर्वे) होते हैं. इसमें भी अधिकांश गरीबी दवाओं की लागत
और प्राथमिक इलाज के कारण आती है.
इनका परिवार उन 19 करोड़ (करीब 14 फीसद आबादी) लोगों का हिस्सा भी है जो भारत में बुरी तरह
कुपोषण का शिकार हैं (वर्ल्ड फूड ऐंड न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2020-यूएनओ). सनद रहे कि भारत के भुखमरी की रैंकिंग (ग्लोबल हंगर
इंडेक्स) में 117 देशों में 102वें स्थान पर है.
मनोज-उर्मिला की गिनती उन 7.5 से 10 करोड़ लोगों में भी होती है जो लॉकडाउन और मंदी के दौरान
गरीबी की रेखा से नीचे खिसक गए और उन्हें 200-250 रुपए की दिहाड़ी के लाले पड़ गए.
कोविड की दूसरी लहर ने उत्तर प्रदेश,
बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ को ध्वस्त कर दिया है. तीसरी लहर पूरब के राज्यों
को लपेट सकती है. यह वक्त सब कुछ छोड़ नीतियों में तीन बड़े बदलाव का है. पहला—ग्रामीण इलाकों में अनाज नहीं भोजन की आपूर्ति का ढांचा
बनाना, दो—किसी भी कीमत पर बुनियादी दवाओं का पारदर्शी और मुफ्त वितरण
और तीन—लोगों को सीधी
नकद सहायता. गांवों में स्वास्थ्य सेवा की तबाही देखते हुए युद्ध स्तर की
आपातकालीन चिकित्सा तैयारियां करनी होंगी.
हमें महामारियों का इतिहास हमेशा पढऩा चाहिए,
जो शहरों से शुरू होती हैं और गांवों को तबाह कर देती हैं.
हुक्मरान याद रखें तीसरी लहर हमें स्पैनिश फ्लू (दूसरी व तीसरी सबसे मारक) जैसी
तबाही के करीब ले जा सकती है, जब गांवों में मृत्यु दर 50 फीसद दर्ज की गई थी.