नब्बे के शुरुआती दशकों में अगर सत्तर की इंदिरा गांधी या आज के नरेंद्र मोदी की तरह बहुमत से लैस कोई प्रधानमंत्री होता तो क्या हमें टी.एन. शेषन मिल पाते या भारत के लोग कभी सोच भी पाते कि लोकतंत्र को रौंदते नेताओं को उनकी सीमाएं बताई जा सकती हैं.
अगर 1991 के बाद भारत में साझा बहुदलीय सरकारें न होतीं तो क्या हम उन स्वतंत्र नियामकों को देख पाते, जिन्हें सरकारों ने अपनी ताकत सौंपी और जिनकी छाया में आर्थिक उदारीकरण सफल हुआ.
क्या भारत का राजनैतिक व आर्थिक लोकतंत्र बहुदलीय सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित है? पिछले ढाई दशक के अद्भुत अखिल भारतीय परिवर्तन ने जिस नए समाज का रचना की है, क्या उसे संभालने के लिए साझा सरकारें ही चाहिए?
भारतीय लोकतंत्र का विराट और रहस्यमय रसायन अनोखे तरीके से परिवर्तन को संतुलित करता रहा है. इंद्रधनुषी (महामिलावटी नहीं) यानी मिलीजुली सरकारों से प्रलय का डर दिखाने वालों को इतिहास से कुछ गुफ्तगू कर लेनी चाहिए. सत्तर पार कर चुके भारतीय लोकतंत्र को अब किसी की गर्वीली चेतावनियों की जरूरत नहीं है. उसके पास इतना अनुभव उपलब्ध है जिससे वह अपनी समझ और फैसलों पर गर्व कर सकता है.
1991 से पहले के दौर की एक दलीय बहुमत से लैस ताकतवर इंदिरा और राजीव गांधी की सरकारों के तहत लोकतांत्रिक आर्थिक संस्थाओं ने खासा बुरा वक्त देखा है.
अचरज नहीं कि भारत के आर्थिक और लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे अच्छे दशक बहुमत के दंभ से भरी सरकारों ने नहीं बल्कि समावेशी, साझा सरकारों ने गढ़े. 1991 के बाद भारत ने केवल ढाई दशक के भीतर गरीबी को कम करने, आय बढ़ाने, रिकॉर्ड ग्रोथ, तकनीक के शिखर छूने और दुनिया में खुद स्थापित करने का जो करिश्मा किया, उसकी अगुआई अल्पमत की सरकारों ने की.
तो क्या भारत के नए आर्थिक लोकतंत्र की सफलता केंद्र की अल्पमत सरकारों में निहित थी?
स्वतंत्र नियामकों का उदय भारत का सबसे बड़ा सुधार था. दरअसल, मुक्त बाजार में निवेशकों के भरोसे के लिए दो शर्तें थीं.
एक— नीति व नियमन की व्यवस्था पेशेवर विशेषज्ञों के पास होनी चाहिए, राजनेताओं के हाथ नहीं. यानी कि सरकार को अपनी ताकत कम करनी थी ताकि स्वतंत्र नियामक बन सकें.
दो— सरकार को कारोबार से बाहर निकल कर अवसरों का ईमानदार बंटवारा सुनिश्चित करना चाहिए.
उदारीकरण के बाद कई नए रेगुलेटर बने और रिजर्व बैंक जैसी पुरानी संस्थाओं को नई आजादी बख्शी गई. ताकतवर सेबी के कारण भारतीय शेयर बाजार की साख दिग-दिगंत में गूंज रही है. बीमा, दूरंसचार, खाद्य, फार्मास्यूटिकल्स-पेट्रोलियम, बीमा, पेंशन, प्रतिस्पर्धा आयोग, बिजली...प्रत्येक नए रेगुलेटर के साथ सरकार की ताकत सीमित होती चली गई.
इसी दौरान पहली बार बड़े पैमाने पर सरकारी कंपनियों का निजीकरण हुआ. यह आर्थिक लोकतंत्र की संस्थाओं का सबसे अच्छा दौर था क्योंकि इन्हीं की जमानत पर दुनिया भर के निवेशक आए.
साझा सरकारें भारत के राजनैतिक लोकतंत्र के लिए भी वरदान थीं. चुनाव आयोग को मिली नई शक्ति (जिसे बाद में कम कर दिया गया) राज्य सरकारों को लेकर केंद्र की ताकत को सीमित करने वाले और नए कानूनों को प्रेरित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले इसी दौर में आए. सबसे क्रांतिकारी बदलाव दसवें से चौदहवें (1995 से 2015) वित्त आयोगों के जरिए हुआ जिन्होंने केंद्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का ढांचा पूरी तरह बदलकर राज्यों की आर्थिक आजादी को नई ताकत दी.
बहुमत की कौन-सी सरकार नियामकों या राज्यों को अधिकार सौंपने पर तैयार होगी? मोदी सरकार के पांच साल में एक नया नियामक (रियल एस्टेट रेगुलेटर पिछली सरकार के विधेयक पर) नहीं बना, उलटे रिजर्व बैंक की ताकत कम कर दी गई, चुनाव आयोग मिमियाने लगा और सीएजी अपने दांत डिब्बों में बंद कर चुका है. यहां तक कि आधार जैसे कानून को पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल का इस्तेमाल हुआ.
सरकारें गलत फैसले करती हैं और माफ भी की जाती हैं. मुसीबतें उनके फैसलों के अलोकतांत्रिक तरीकों (मसलन, नोटबंदी) से उपजती हैं. इस संदर्भ में, साझा सरकारों का रिकॉर्ड एक दल के बहुमत वाली सरकारों से कहीं ज्यादा बेहतर रहा है.
पिछले सात दशक के इतिहास की सबसे बड़ी नसीहत यह है कि एक दलीय बहुमत वाली ताकतवर सरकारें और सशक्त लोकतांत्रिक संस्थाएं एक साथ चल नहीं पा रही हैं. जब-जब हमने एक दलीय बहुमत से लैस सरकारें चुनी हैं तो उन्होंने लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन ली है.
नेता तो आते-जाते रहेंगे, उभरते भारत को सशक्त लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में ‘‘सरकार को जनता से डरना चाहिए, जनता को सरकार से नहीं.’’