अर्थार्थ
जनकल्याण के रास्ते अगर आपदा के गर्त में पहुंचा दें तो? एकजुट होने से सुविधा व सुरक्षा के बजाय समस्या व संकट बढ़ने लगे तो? दुनिया के अमीर पहलवान यदि अपनी खुराक के लिए पिद्दी पिछड़ों पर निर्भर हो जाएं तो? तो क्या करेंगे आप? यही न कि, सिद्धांतों को फिर से लिखने की सोचेंगे? जरा गौर से आसपास देखिए, इस समय कई सिद्धांत एक साथ शीर्षासन कर रहे हैं। यूरोप का प्रसिद्ध कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) कर्ज के ढेर में सर के बल खड़ा है। विकासशील चीन की एक करवट वित्तीय बाजार में अब परमाणु ताकतों के घुटने कंपा देती है। दुनिया को जीतने के लिए यूरो करेंसी के जहाज पर सवार हुए यूरोप के मुल्कों का अब यह जजीरा खुद डूबता व उन्हें डुबोता नजर आ रहा है। यह शक्ति संतुलन, आर्थिक एकजुटता और राज्य व्यवस्था से जुड़े सिद्धांतों का बिल्कुल ही नया चेहरा है। स्थापित परिभाषाएं और मान्यताएं बड़ी निर्ममता के साथ बदल रही हैं।
कल्याण की कीमत
मोटे बेकारी भत्ते, तनख्वाह सहित साल भर लंबी छुट्टी, सुरक्षित नौकरी, तरह तरह की सरकारी रियायतें, पचास साल के बाद सेवानिवृत्ति, मोटी पेंशन, मुफ्त चिकित्सा और शानदार व सस्ता रहन सहन! यूरोप के पास दुनिया को जलाने व चिढ़ाने के लिए बहुत कुछ है। यूरोप यूं ही, रोटी व दवा को तरसते अफ्रीका के लिए जन्नत और बेहतर जीवन स्तर के लिए बेकरार एशिया के लिए आदर्श नहीं बन गया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहां की सरकारों ने अपनी आबादी को मुफ्त शिक्षा, चिकित्सा, मोटी पेंशन जैसी रियायतों व सामाजिक सुरक्षा की छांव में रखा। वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य के पालने में बैठी यूरोप की जनता अपने वर्तमान व भविष्य से इतनी बेफिक्र और बेलौस थी कि अभी हाल तक यूरोप में कल्याणकारी राज्य के नॉर्डिक (डेनमार्क, स्वीडन) कॉन्टीनेंटल (जर्मनी, फ्रांस, ऑस्टि्रया), एंग्लोसैक्सन (ब्रिटेन व आयरलैंड) और मेडीटरेनियन (ग्रीस, इटली, पुर्तगाल) मॉडलों के तहत दी जा रही सुविधाओं के बीच होड़ चलती थी। मसलन जर्मनी में अगर नौकरी जाने के बदले सरकार की तरफ से बेकारी भत्ते के तौर पर 60 फीसदी तनख्वाह मुकर्रर है तो ग्रीस में नौकरी हर हाल में सुरक्षित थी। यूरोप की जनता को अब पता चला कि सरकारों की उदारता का (सरकारों के कुल खर्च का 25 से 40 फीसदी तक जल कल्याण स्कीमों पर) यह करिश्मा कर्ज पर आधारित है। बस एक छोटी सी मंदी और वित्तीय संकट ने इस कल्याणकारी राज्य को कर्ज के गटर में घसीट लिया। यूरोप में पेंशन वेतन घट रहे हैं, नौकरियां जा रही हैं, सरकार कंजूस हो रही है और वेलफेयर स्टेट बिखर रहा है। आशावादी कहते हैं कि 70-80 के दशक की राजकोषीय सख्ती की तरह कुछ नुकसान के साथ यह तूफान भी गुजर जाएगा लेकिन आंकड़े बताते हैं कि बेशुमार कर्ज, कमजोर विकास दर और यूरो की कमजोरी से घिरे वेलफेयर स्टेट का अब फेयरवेल हो सकता है। नतीजा तो वक्त बताएगा, अलबत्ता नसीहतें लेनी हों तो कल्याणकारी राज्य से इस समय यूरोप की सड़कों पर मिला जा सकता है जहां वह जनता का गुस्सा झेल रहा है।
संकट बढ़ाने वाली एकता
दक्षेस व आसियान में एकल मुद्रा के पैरोकार आजकल चुप हैं। अगले साल यूरोजोन में शामिल होने की बारात सजाए बैठे आइसलैंड व एस्टोनिया भी सन्नाटा खींच गए हैं। विश्व के देश जिस अनोखी यूरोपीय मौद्रिक एकता को भविष्य का सफल मॉडल माने बैठे थे , वही देश अब इसके पतन की तारीख गिन रहे हैं। यूरो जोन के संकट ने इस सिद्धांत को औंधे मंुह पटक दिया है कि आर्थिक या मौद्रिक एकजुटता संकट से बचाव है। यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं को लगता था कि उनकी साझी मुद्रा उनका कवच बन जाएगी और एक के संकट के समय दूसरे की साख काम आएगी लेकिन यहां तो सबने मिल कर यूरो की साख को ही संकट में डाल दिया। ग्रीस, इटली, पुर्तगाल, स्पेन ने एक दूसरे के बीच कर्ज-कर्ज का खेल खेला था। जर्मनी फ्रांस सहित दूसरे भी इस खेल में शामिल थे। तभी तो ग्रीस कर्ज में यूरोजोन के बैंकों का हिस्सा 150 हिस्सा तक है। इसलिए एक के डूबते ही यूरो के डूबने की नौबत आ जाएगी। बचाव के लिए कोई आजादी नहीं है क्योंकि सबकी मुद्रा एक है। अर्थात कोई नोट छाप कर घाटा नहीं भर सकता। अब यूरोजोन में शामिल होने की नहीं बल्कि इसे छोड़ने की मुहिम शुरू होने वाली है। अफ्रीकी व कैरेबियाई दुनिया से बाहर यह पहली बड़ी व अहम मौद्रिक एकता थी। यूरोजोन के बिखरते ही आर्थिक एकजुटता का सिद्धांत नई व्याख्या मांगने लगेगा।
ताकत की नई परिभाषा
बीते सप्ताह बाजारों में अफवाह दौड़ी कि चीन यूरोजोन के बांडों में 630 बिलियन डॉलर के निवेश पर अपना रुख बदल रहा है और यूरो चार साल के सबसे निचले स्तर पर आ गया। बाजार भरभरा गए। चीन ने अगले दिन इस बात को नकारा तो बाजारों की सांस लौटी लेकिन दो दिन बाद बाजार इस खबर पर फिर कांप गया कि चीन में उत्पादन घट रहा है। 2447 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार (विश्व के गैर स्वर्ण विदेशी मुद्रा भंडार का 31 फीसदी) पर बैठे चीन ने दुनिया में आर्थिक ताकत का संतुलन बदल दिया है। चीन की डॉलर तिजोरी दुनिया के विदेशी मुद्रा भंडार में पांच सबसे बड़े देशों के कुल भंडार से भी बड़ी है। इस ताकत के जरिए चीन दुनिया के दोनों बड़े वित्तीय बाजारों, अमेरिका और यूरोप के बीच दिलचस्प ढंग से कूटनीतिक व आर्थिक संतुलन बना रहा है। चीन का जरा सा गर्दन हिलाना इन दोनों बाजारों की धड़कनें बढ़ा देता है। यूरोप को उसने पहले डराया और फिर अभयदान दे दिया। इधर अमेरिकी सरकार के ट्रेजरी बांडों में भी चीन का निवेश 780 बिलियन डॉलर के करीब है। ताकत की इसी नाप तौल के बाद अमेरिका ने चीन की मुद्रा युआन की कमजोरी के खिलाफ अपनी मुहिम फाइलों में बंद कर दी है। यह दुनिया में शक्ति का अनदेखा और अनोखा संतुलन है। बताते चलें कि चीन दुनिया की परिभाषाओं में अभी विकासशील देश है!
यह स्तंभ लिखते-लिखते हंगरी में कर्ज संकट और डिफॉल्ट के खतरे की खबर भी आ गई। ग्रीक त्रासदी पूर्वी यूरोप तक पहुंच गई है। पूर्वी यूरोप को मदद देने वाले वैसे भी कम हैं। यूरोप का वर्तमान देख कर तीसरी दुनिया को सबसे ज्यादा डरना चाहिए। जहां अभी कल्याणकारी राज्य की कायदे से शुरुआत भी नहीं हुई है, और बाजार इसकी ऊंची लागत को अस्वीकृत करने लगा है। इन मुल्कों की गरीब आबादी को इज्जत की जिंदगी देने की ऊंची लागत बड़ी उलझन बनने वाली है। अगर यूरोजोन ढहा तो छोटे मुल्कों के आर्थिक भविष्य और दुनिया की व्यापारिक एकजुटता के सवाल और बडे़ हो जाएंगे। रही बात चीन को तो इसे अब बहुत गौर से देखने की जरूरत है। हमारा यह पड़ोसी आने वाले एक दशक में दुनिया में बहुत कुछ बदलने की कुव्वत रखता है।
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