अंतरिम बजट के आंकड़े गढ़ने तक मोदी सरकार को यह एहसास
हो गया था कि अर्थव्यवस्था की पूंछ पकड़कर लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार नहीं होगी. नतीजतन, पांच साल
तक न्यू इंडिया का बिगुल बजाने के बाद नरेंद्र मोदी पाकिस्तान से आर-पार के नाम पर चुनाव मैदान में उतर गए.
मार्च में चुनावी राष्ट्रवाद का पारा चढ़ने तक अर्थव्यवस्था
में अच्छे दिनों के दुर्दिन शुरू हो गए थे और बाजार मुतमइन हो चुके थे कि चुनाव के
नतीजे चाहे जो हों लेकिन
एक— अंतरिम बजट में सरकार ने आंकड़ों की जो खिचड़ी पकाई है, वह जल्द ही सड़ जाएगी. सरकार की कमाई घटेगी और घाटा धर
दबोचेगा.
दो— आर्थिक आंकड़ों को चमकाने की हजार कोशिशों के बावजूद 2019 की आखिरी तिमाही में विकास दर गिरेगी
और नरेंद्र मोदी पिछले पांच साल की सबसे खराब अर्थव्यवस्था के साथ वोट मांगने निकलेंगे.
(संदर्भ पिछले अर्थात्)
सबसे तेज झटका
चौथे चरण का मतदान खत्म होने तक सरकारी राजस्व में रिकॉर्ड
गिरावट दर्ज हो गई और वित्त मंत्रालय ने मान लिया कि अर्थव्यवस्था मंदी में है...अलबत्ता यह किसी ने नहीं सोचा था कि
भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा इंजन भी थमने लगेगा.
निर्यात, सरकार का खर्च,
निजी निवेश और खपत—इन चार इंजनों पर चलती है भारतीय
अर्थव्यवस्था. इनमें खपत यानी आम लोगों का खर्च सबसे बड़ी ताकत
है. निर्यात पहले से मृतप्राय था. बीते
दिसंबर में निजी और सरकारी कंपनियों का निवेश 14 साल के न्यूनतम
स्तर पर आ गया था. घाटे की मारी सरकार ने 2018-19 की आखिरी तिमाही में खर्च भी काट दिया. इन सबके बीच खर्च-खपत ही था जो अर्थव्यवस्था को ढुलका रहा था अलबत्ता चुनाव के गर्द-ओ-गुबार के बीच बाजार को जब यह नजर आया कि मांग की कमी
मकानों से लेकर कार और मोटरसाइकिल से होते हुए साबुन, तेल,
मंजन तक फैल गई है, तो खौफ लाजिमी था. खपत में गिरावट ऐसा झटका है जिसके लिए अर्थव्यवस्था हरगिज तैयार नहीं है.
क्यों गिरी खपत
पिछले ढाई दशक में पहली बार भारत में खपत गिर रही है
यानी कि 135 करोड़ लोगों की अर्थव्यवस्था
(पीपीपी) की सबसे मजबूत बुनियाद डगमगा रही है!
क्यों?
उपभोग या खपत के दो हिस्से हैं और दोनों एक साथ टूट गए
हैं.
पहला
है वह उपभोग जो कर्ज के सहारे बढ़ता है,
इसमें ऑटोमोबाइल और हाउसिंग प्रमुख हैं. बकाया
कर्ज से दबे बैंक उद्योगों को नया कर्ज देने की हालत में पहले से ही नहीं थे अलबत्ता
नोटबंदी के दौरान बैंकों में बड़ी मात्रा में जो धन जमा हुआ था उसका बड़ा हिस्सा गैर
बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को
कर्ज के तौर पर मिला. तभी तो 2016 से 2018
के बीच ऑटो लोन में एनबीएफसी का हिस्सा 77 फीसद
हो गया. लेकिन यह मांग सिर्फ कर्ज के कारण बढ़ी, तेज विकास के कारण नहीं.
इस साल कई बड़ी एनबीएफसी के वित्तीय संकट में फंसने के
बाद कर्ज की पाइपलाइन पूरी तरह बंद हो गई इसलिए बाजार को गुलजार करने वाली खपत टूट
गई है. मकानों की मांग पहले से ही गर्त में
बैठी है इसलिए कर्ज आधारित खपत लौटने में वक्त लगेगा.
उपभोग का दूसरा हिस्सा कमाई या बचत पर आधारित
है जिसमें उपभोक्ता उत्पाद, खाद्य,
कपड़े आदि आते हैं. अगर आम लोगों की वित्तीय बचतों
के आंकड़े पर गौर फरमाया जाए तो साबुन, तेल, मंजन की मांग कम होने की वजह उसमें मिल जाएगी. 2011 में
लोगों की वित्तीय बचत जीडीपी के अनुपात में 9.9 फीसदी थी जो
2018 में 6.6 फीसदी रह गई. यानी कि कमाई में कमी के कारण लोग खपत घटाने को मजबूर हैं.
2013-18 के बीच अचल संपत्ति यानी मकानों
की कीमतें स्थिर रही हैं लेकिन कुल बचत के अनुपात में भौतिक बचत गिरना मकानों की मांग
न बढ़ने का सबूत है. सोने के आयात व मांग में कमी भी इसी क्रम
में है
पिछले पांच साल की तथाकथित तेज
विकास दर के बीच रिकॉर्ड बेकारी का असर समझना जरूरी है. दुनिया के विभिन्न
देशों का तजुर्बा बताता है कि जो देश तेज विकास दर के दौरान पर्याप्त रोजगार नहीं बनाते,
उनके यहां बचत दर गिरती जाती है जो अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए विस्फोटक
है. सनद रहे कि 2017 में भारत में आम लोगों
की कुल बचत दर बीस साल के सबसे निचले स्तर (जीडीपी के अनुपात
में 17 फीसदी) पर आ गई थी.
चुनाव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन मोदी सरकार के कामकाज
का सबसे बड़ा नतीजा आ गया है. अर्थव्यवस्था
के आंकड़े रहस्य नहीं हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था आय-बचत-खपत-निवेश में समन्वित गिरावट
के दुष्चक्र की तरफ खिसक रही है. विकास दर का आकलन घटाए जाने
का दौर शुरू हो चुका है, सबसे बड़ी चिंता यह है कि नई सरकार आने
पर कोई जादू नहीं होने वाला है. चुनाव की आंधी तो 23 मई को थम जाएगी लेकिन आर्थिक संकट के थपेड़े हमें लंबे समय तक बेहाल रखेंगे.