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Thursday, August 3, 2017

गठबंधन हो गया, अब लड़ाई हो

      
नीतीश कुमार के दिल-बदल के साथ गठबंधनों की नई गोंद का आविष्कार हो गया है. सांप्रदायिकता के खिलाफ एकजुटता के दिन अब पूरे हुए. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई,  नया सेकुलरवाद या गैर कांग्रेसवाद है इसके सहारे राजनैतिक दल नए गठजोड़ों को आजमा सकते हैं. लेकिन ध्यान रहे कि कहीं यह नया सेकुलरवाद न बन जाए. सेकुलरवादी गठजोड़ों की पर्त खुरचते ही नीचे से बजबजाता हुआ अवसरवाद और सत्‍ता की हमाम में डुबकियों में बंटवारे के फार्मूले निकल आते थे इसलिए सेकुलर गठबंधनों की सियासत बुरी तरह गंदला गई.

सेकुलरवादफिर भी अमूर्त था. उसकी सफलता या विफलता सैद्धांतिक थी. उसकी अलग अलग व्‍याख्‍याओं की छूट थी संयोग से भ्रष्‍टाचार ऐसी कोई सुविधा नहीं देता. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई ठोस और व्यावहारिक है जिसके नतीजों को देखा और महसूस किया जा सकता है. यह भी ध्‍यान रखना जरुरी है भ्रष्‍टाचार से जंग छेड़ने वाले सभी लड़ाकों अतीत पर्याप्‍त तौर पर दागदार हैंइसलिए गठबंधनों के नए रसायन को सराहने से पहले पिछले तीन साल के तजुर्बोंतथ्यों व आंकड़ों पर एक नजर डाल लेनी चाहिए ताकि हमें भ्रष्टाचार पर जीत के प्रपंच से भरमाया न जा सके.
  •  क्रोनी कैपिटलिज्म का नया दौर दस्तक दे रहा है. बुनियादी ढांचेरक्षानिर्माण से लेकर खाद्य उत्पादों तक तमाम कंपनियां उभरने लगी हैंसत्ता से जिनकी निकटता कोई रहस्य नहीं है बैंकों को चूना लगाने वाले अक्‍सर उद्यमी मेक इन इंडिया का ज्ञान देते मिल जाते हैं. सत्ता के चहेते कारोबारियों की पहचानराज्यों में कुछ ज्या‍दा ही स्पष्ट है. द इकोनॉमिस्ट के क्रोनी कैपिटलिज्म इंडेक्स 2016 में भारत नौवें नंबर पर है.  
  •   सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार और रिश्वतों की दरें दोगुनी हो गई है. इस साल मार्च में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के सर्वे में बताया गया था कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 16 देशों में भारत सबसे भ्रष्ट हैजहां सेवाओं में रिश्वत की दर 69 फीसदी है. सीएमएस इंडिया करप्शन स्टडी (अक्तूबर-नवंबर 2016) के मुताबिक, पुलिसटैक्सन्यायिक सेवा और निर्माण रिश्वतों के लिए कुख्यात हैं. डिजिटल तकनीकों के इस्‍तेमाल से काम करने की गति बढ़ी है लेकिन कंप्यूटरों के पीछे बैठे अफसरों के विशेषाधिकार भी बढ़ गए है इसलिए छोटी रिश्‍वतें लगातार बड़ी होती जा रही हैं
  •   नोटबंदी की विफलता में बैंकों का भ्रष्टाचार बड़ी वजह थाजिस पर सफाई से पर्दा डाल दिया गया.
  •  आर्थिकनीतिगत और तकनीकी कारणों से बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित हो रही है. जीएसटी चुनिंदा कंपनियों को बड़ा बाजार हासिल करने में मददगार बनेगा. टेलीकॉम क्षेत्र में तीन या चार कंपनियों के हाथ में पूरा बाजार पहुंचने वाला है.
  •   राजनैतिक मकसदों के अलावा पिछली सरकार के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच या तो असफल होकर दम तोड़ चुकी है या फिर शुरू ही नहीं हुई. विदेश से काला धन लाने के वादों के विपरीत पनामा में भारतीयों के खातों के दस्‍तावेज आने के बावजूद एफआईआर तो दूर एक नोटिस भी नहीं दिया गया
  •  सतर्कता आयोगलोकपाललोकायुक्त जैसी संस्थाएं निष्क्रिय हैं और भ्रष्टाचार रोकने के नए कानूनों पर काम जहां का तहां रुक गया है  
सरकारी कामकाज में 'साफ-सफाई' के कुछ ताजा नमूने सीएजी की ताजा रिपोर्टों में भी मिले हैं यह रिपोर्ट पिछले तीन साल के कामकाज पर आधारित हैं
  •    बीमा कंपनियां फसल बीमा योजना का 32,000 करोड़ रुपए ले उड़ींयह धन किन लाभार्थियों को मिला उनकी पहचान मुश्किल है
  •    रेलवे के मातहत सेंट्रल ऑर्गेनाइजेशन फॉर रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन के ठेकों में गहरी अनियमितताएं पाई गई हैं.
  •   रेलवे में खाने की क्वालिटी इसलिए खराब है क्योंकि खानपान सेवा पर चुनिंदा ठेकेदारों का एकाधिकार है.
  •  और नौसेना व कोस्ट गार्ड में कुछ महत्वपूर्ण सौदों को सीएजी ने संदिग्ध पाया है.
सेकुलरवाद को समझने में झोल हो सकता है लेकिन व्यवस्था साफ-सुथरे होने की   पैमाइश मुश्किल नहीं है
  •  सरकारें जितनी फैलती जाएंगी भ्रष्टाचार उतना ही विकराल होगा. सनद रहे कि नई स्‍कीमें लगातार नई नौकरशाही का उत्‍पादन कर रही हैं
  •   भ्रष्टाचार गठजोड़ों और भाषण नहीं बल्कि ताकतवर नियामकों व कानूनों से घटेगा.
  •   अदालतें जितनी सक्रिय होंगी भ्रष्‍टचार से लड़ाई उतनी आसान हो जाएगी.
  •   बाजारों में प्रतिस्पर्धा बढ़ाते रहना जरूरी है ताकि अवसरों का केंद्रीकरण रोका जा सके. 
भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनैतिक एकजुटता से बेहतर क्‍या हो सकता है लेकिन इस नए गठजोड़ के तले भ्रष्‍टाचार का घना और खतरनाक अंधेरा है. उच्चपदों पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार अब फैशन से बाहर है कोई निपट मूर्ख राजनेता ही खुद अपने नाम पर भ्रष्‍टाचार कर रहा होगा. चहेतों को अवसरों की आपूर्ति और उनका संरक्षण राजनीतिक भ्रष्‍टाचार के नए तरीके हैं इसलिए इस हमाम की खूंटियों पर सभी दलों के नेताओं के कपड़े टंगे पाए जाते हैं

यदि भ्रष्टाचार के खिलाफ गठबंधनों को सत्‍ता के अवसरवाद से बचाना है तो इसे सेकुलरवाद बनने से रोकना होगा. कौन कितना सेकुलर है यह वही लोग तय करते थे जिन्हें खुद उन पर कसा जाना था. ठीक इसी तरह कौन कितना साफ है यह तय करने की कोशिश भी वही लोग करेंगे जो जिन्‍हें खुद को साफ सुथरा साबित करना है सतर्क रहना होगा क्‍यों कि नए गठजोड़ भ्रष्टाचार को दूर करने के बजाय इसे ढकने के काम आ सकते हैं.  

भ्रष्‍टाचार से जंग में कामयाबी के पैमाने देश की जनता को तय करने होंगे. यदि इस लड़ाई की सफलता तय करने का काम भी नेताओं पर छोड़ दिया गया तो हमें बार-बार छला जाएगा.





Tuesday, June 23, 2015

फिसलन की शुरुआत

मोदीसत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकरावकॉर्पोरेट और नेता गठजोड़क्रोनी कैपटिलिज्मग्रैंड करप्शनतरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी.
बात इसी अप्रैल की है. वित्त मंत्री अरुण जेटली सीबीआइ दिवस पर कह रहे थे कि देश की शीर्षस्थ जांच एजेंसी को फैसलों में गलती (ऑनेस्ट एरर) और भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा. इसके लिए सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून को भी बदलेगी. वित्त मंत्री की बात अफसरों के कानों में शहद घोल रही थी क्योंकि भ्रष्टाचार की दुनिया तोवैसे भी बचने के विभिन्न रास्तों से भरी पड़ी है. इस बीच अगर सरकार का सबसे ताकतवर मंत्री ईमानदार गलती और भ्रष्टाचार के बीच फर्क करने की सलाह दे रहा है तो यह मुंहमांगी मुराद जैसा था. अलबत्ता यह अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तर्क का सबसे पहला इस्तेमाल सरकार को अपनी वरिष्ठतम मंत्री सुषमा स्वराज के बचाव में करना पड़ेगासरकार में आते ही जिनकी कथित मानवीयता कानून की नजर में बड़े गुनाहगार के काम आई है. आइपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी के खिलाफ फरारी के नोटिस की पुष्टि करने के बादसुषमा के बचाव में वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास साफ नीयत की दुहाई के अलावा और कुछ नहीं था. ऐसा लग रहा था कि मानो जेटलीसुषमा-ललित मोदी प्रकरण को ऑनेस्ट एरर कहना चाहते थे.  
इसी जगह हमने जून की शुरुआत में (http://goo.gl/cVAy8P) लिखा था कि मोदी सरकार ने पिछले एक साल में ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे पारदर्शिता बढ़ना तो दूर, बने रहने का भी भरोसा जगता हो. इसलिए भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार की साख खतरे में है. अब जब कि सुषमा-ललित मोदी-वसुंधरा प्रकरण में सरकार बुरी तरह लिथड़ चुकी है तो यह समझना जरूरी है कि पारदर्शिता का परचम लहराने वाली एनडीए सरकार के लिए पहले ही साल में यह नौबत क्यों आ गई, यूपीए जिससे अपनी दूसरी पारी के अंत में दो चार हुई थी.
सवाल बेशक पूछा जाना चाहिए कि प्रवर्तन निदेशालय ने ललित मोदी को वह नोटिस पिछले एक साल में क्यों नहीं भेजे जो यह प्रकरण खुलने के बाद दागे गए हैं? मोदी सरकार ने पिछले एक साल में यूपीए के घोटालों की जांच को कोई गति नहीं दी. एयरसेल मैक्सिस, नेशनल हेराल्ड, सीडब्ल्यूजी, आदर्श, वाड्रा, महाराष्ट्र सिंचाई जैसे बड़े घोटालों में जांच जहां की तहां ठप पड़ी है. इनमें आइपीएल भी शामिल है, जिसकी जांच अगर गंभीरता से होती तो ललित मोदी वर्ल्ड टूर पर न होते. सरकार के देखते देखते व्यापम घोटाले के प्रमुख सूत्र मौत का शिकार होते चले गए. राष्ट्रमंडल घोटाले में जमानत पर रिहा सुरेश कलमाडी व उनके सहायक ललित भनोत एशियन एथलेटिक्स एसोसिएशन के पदाधिकारी बन गए और बीजेपी बेदाग सरकार का पोस्टर बांटती रही. नतीजा यह हुआ है कि राज्यों में भी भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच धीमी पड़ गई है. घोटालों की जांच से बचना सदाशयता नहीं है बल्कि यह साहस व संकल्प की कमी है जिसने पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार की बोहनी खराब कर दी है.
ईमानदार गलती व भ्रष्टाचार के बीच अंतर बताने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 13 को बदलने की कोशिशों पर सवाल इसलिए नहीं उठे थे क्योंकि फैसलों की रक्रतार बढ़ाने और अधिकारियों को दबाव से मुक्त करने पर विरोध था बल्कि अपेक्षा यह थी कि सरकार ऐसा करने से पहले लोकपाल गठित करेगी और सतर्कता ढांचे को मजबूत करेगी ताकि पारदर्शिता को लेकर भरोसा बन सके. सरकार ने नियामकों और निगहबानों को ताकत देना तो दूर पारदर्शिता की उपलब्ध खिड़कियों पर भी पर्दे टांग दिए. सूचना के अधिकार पर पहरे बढ़ा दिए गए. सरकार के फैसलों पर पूछताछ वर्जित हो गई और स्वयंसेवी संस्थाओं के हर कदम की निगहबानी होने लगी. पारदर्शिता के मौजूदा तंत्र पर रोक और नए ढांचे की अनुपस्थिति से कामकाज की गति तो तेज नहीं हुई अलबत्ता सरकार के इरादे जरूर गंभीर सवालों में घिर गए. 
सवाल तो बनता ही है कि क्रिकेट में 2008 से लेकर आज तक दर्जनों घोटाले हुए हैं और बीजेपी हर घोटाले के विरोध में आगे रही है तो सत्ता में आने के बाद क्रिकेट को साफ करने के कदम क्यों नहीं उठाए गए जबकि विपक्ष में रहते हुए यह पार्टी इसके लिए कानून की मांग कर रही थी. साफ-सुथरी सरकार का यह चेहरा समझ से परे था जिसमें बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे थे. इस संसदीय समिति लामबंदी के बाद सरकार ने खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का फैसला अंततः ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनसेवाओं को पारदर्शी बनाने, छोटे और बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक संस्थागत ढांचा बनाने और नियामक संस्थाओं की मजबूती पर ध्यान न देने से पारदर्शिता को लेकर सरकार में यथास्थितिवाद पैठ गया है. इसकी वजह से पहले ही साल में एक बड़ी गफलत सामने आ गई है.
ललित मोदी-वसुंधरा-सुषमा प्रकरण भारत में उच्च पदों पर हितों के टकराव और फायदों के लेन-देन का बेहद ठोस उदाहरण है. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा के बेटे की कंपनी में ललित मोदी का निवेश और सुषमा स्वराज परिवार से मोदी के प्रोफेशनल व निजी रिश्ते प्रामाणिक हैं. वित्तीय धांधली के आरोपी ललित मोदी को इन रिश्तों के बदले मिले फायदे भी दस्तावेजी हैं. बीजेपी इन मामलों पर बचाव के लिए कांग्रेस के धतकरमों को ढाल बना सकती है लेकिन बात भ्रष्टाचार में प्रतिस्पर्धा की नहीं है बल्कि पिछली सरकार से प्रामाणिक रूप से अलग होने की है.
अपनी ताजा यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी को चीन के स्वच्छता मिशन के बारे में जरूर पता चला होगा, जहां राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी ही पार्टी के 1.82 लाख पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार को लेकर कार्रवाई कर चुके हैं. भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार से भी ऐसे ही साहस की अपेक्षा थी क्योंकि मोदी, सत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकराव, कॉर्पोरेट और नेता गठजोड़, क्रोनी कैपटिलिज्म, ग्रैंड करप्शन, तरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी. मोदी को समझना होगा कि उच्च पदों पर पारदर्शिता तय करना उनको मिले जनादेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है और इस मामले में उनकी सरकार की फिसलन शुरू हो चुकी है.

Tuesday, April 14, 2015

कैंसर के पैरोकार

तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश हर राजनीतिक दल ने की है.

भारत में यह अपने तरह की पहली घटना थी जब एक संसदीय समिति के सदस्य किसी उद्योग के लिए खुली लॉबीइंग कर रहे थे और उद्योग भी कुख्यात तंबाकू का. बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर न केवल अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे हैं बल्कि बीड़ी पीने-पिलाने की खुली वकालत भी कर रहे थे. अलबत्ता सबसे ज्यादा शर्मनाक यह था कि सरकार ने इस संसदीय समिति की बात मान ली और तंबाकू से खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का काम रोक दिया. दिलचस्प है कि सांसदों की यह लामबंदी बीड़ी तंबाकू की बिक्री रोकने के खिलाफ नहीं थी बल्कि महज सिगरेट के पैकेट पर कैंसर की चेतावनी का आकार बड़ा (40 से 85 फीसद) करने के विरोध में थी. बस इतने पर ही सरकार झुक गई और फैसले पर अमल रोक दिया गया. संसदीय समिति के सदस्यों और बीड़ी किंग सांसद के बयानों पर सवाल उठने के बाद प्रधानमंत्री के ''गंभीर'' होने की बात सुनी तो गई लेकिन यह लेख लिखे जाने तक न तो सरकार ने सिगरेट की पैकिंग पर चेतावनी का आकार बढ़ाने की अधिसूचना जारी की और न ही बीड़ी सुल्तान को संसदीय समिति (सबऑडिर्नेट लेजिसलेशन) से हटाया गया है. नशीली दवाओं पर मन की बातों और किस्म-किस्म की नैतिक शिक्षाओं के बीच तंबाकू पर सरकार क्या कदम उठाएगी, यह तो पता नहीं. अलबत्ता तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर जरूर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश लगभग हर राजनीतिक दल ने की है. सरकारी फाइलों तक निजी कंपनियों के कारिंदों की पहुंच के ताजे मामलों की तुलना में बीड़ी प्रसंग कई कदम आगे का है जहां कंपनियों के प्रवर्तक जनप्रतिनिधि के रूप में खुद अपने लिए ही कानून बना रहे हैं. तंबाकू, जिसका घातक होना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित है, जब उसके पक्ष में खुले आम लामबंदी हो सकती है तो अन्य उद्योगों से जुड़ी नीतियों को लेकर कई गुना संदेह लाजिमी है. बीड़ी तंबाकू प्रकरण केंद्र सरकार की नीतियों से जुड़ा है. जब प्रधानमंत्री की नाक के नीचे यह हाल है तो राज्यों की नीतियां किस तरह बनती होंगी इसका सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है.
भारत में उद्योगपति सांसद और कारोबारी नेताओं का ताना-बाना बहुत बड़ा है. बीड़ी उद्योगपति सांसद जैसे दूसरे उदाहरण भी हमारे सामने हैं. 'जनसेवा' के साथ उनकी कारोबारी तरक्की हमें खुली आंखों से दिख सकती है लेकिन इसे स्थापित करना मुश्किल है. पारदर्शिता के लिए पैमाने तय करने की जरूरत होती है. भारत की पूरी सियासत ने गहरी मिलीभगत के साथ राजनीति और कारोबार के रिश्तों की कभी कोई साफ परिभाषा तय ही नहीं होने दी. नतीजतन नेता कारोबार गठजोड़ महसूस तो होता है पर पैमाइश नहीं हो पाती. हालांकि पूरी दुनिया हम जैसी नहीं है. जिन देशों में इस गठजोड़ को नापने की कोशिश की गई है वहां नतीजों ने होश उड़ा दिए हैं.
अमेरिका के ओपन डाटा रिसर्च, जर्नलिज्म और स्वयंसेवी संगठन, सनलाइट फाउंडेशन ने पिछले साल नवंबर में एक शोध जारी किया था जो अमेरिका में कंपनी राजनीति गठजोड़ का सबसे सनसनीखेज खुलासा था. यह शोध साबित करता है कि अमेरिका में राजनीतिक रूप से सक्रिय 200 शीर्ष कंपनियों ने राजनीतिक दलों को चंदा देने और लॉबीइंग (अमेरिकी कानून के मुताबिक लॉबीइंग पर खर्च बताना जरूरी ) पर 2007 से 2012 के बीच 5.8 अरब डॉलर खर्च किए (http://bit.ly/vvvDvIw) और बदले में उन्हें सरकार से 4.4 खरब डॉलर का कारोबार और फायदे हासिल हुए. सनलाइट फाउंडेशन ने एक साल तक कंपनियों, चंदे, चुनाव आदि के करीब 1.4 करोड़ दस्तावेज खंगालने के बाद पाया कि पड़ताल के दायरे में आने वाली कंपनियों ने अपने कुल खर्च का लगभग 26 फीसद हिस्सा सियासत में निवेश किया. सनलाइट फाउंडेशन ने इसे फिक्स्ड फॉरच्यूंस कहा यानी सियासत में निवेश और मुनाफे की गारंटी.

भारत में अगर इस तरह की बेबाक पड़ताल हो तो नतीजे हमें अवाक कर देंगे. मुंबई की ब्रोकरेज फर्म एक्विबट कैपिटल ने राजनीतिक संपर्क वाली 75 कंपनियों को शामिल करते हुए पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों का इंडेक्स बनाया था जो यह बताता था कि 2009 से 2010 के मध्य तक इन कंपनियों के शेयरों में तेजी ने मुंबई शेयर बाजार के प्रमुख सूचकांक बीएसई 500 को पछाड़ दिया. अलबत्ता 2010 में घोटालों पर कैग की रिपोर्ट आने के बाद यह सूचकांक तेजी से टूट कर अक्तूबर 2013 में तलहटी पर आ गया. राजनीतिक रसूख वाली कंपनियों के सूचकांक ने जनवरी 2014 से बढ़त और अप्रैल 2014 से तेज उछाल दिखाई है. तब तक भारत में नई सरकार के आसार स्पष्ट हो गए थे.
भारत में नेता कारोबार गठजोड़ की बात तो नेताओं के वित्तीय निवेश और राज्यों में सरकारी ठेकों की बंदरबांट के तथ्यों तक जानी चाहिए लेकिन यहां सनलाइट फाउंडेशन जैसी पड़ताल या पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों के साम्राज्य को ही पूरी तरह समझना मुश्किल है. भारत के पास राजनीतिक पारदर्शिता का ककहरा भी नहीं है. हम न तो राजनीतिक दलों के चंदे का पूरा ब्योरा जान सकते हैं और न ही कंपनियों के खातों से यह पता चलता है कि उन्होंने किस पार्टी को कितना पैसा दिया. इस हमाम में सबको एक जैसा रहना अच्छा लगता है.
अचरज नहीं हुआ कि बीजेपी ने अपने बीड़ी (क्रोनी) कैपटलिज्म को हितों में टकराव कहते हुए हल्की-फुल्की चेतावनी देकर टाल दिया. सिगरेट पैकिंग पर चेतावनी के खिलाफ सांसदों की लामबंदी और बीजेपी के बड़े नेताओं की चुप्पी सिर्फ यही नहीं बताती कि बीजेपी पारदर्शी राजनीति के उतनी ही खिलाफ है जितनी कि कांग्रेस और अन्य दल. ज्यादा हैरत इस बात पर है कि जब नेताओं और मंत्रियों पर प्रधानमंत्री की निगरानी किस्सागोई में बदल चुकी हो तो तंबाकू उद्योग के लिए कानून बनाने का काम बीड़ी निर्माता को कैसे मिल जाता है? यकीनन, सरकार के पहले एक साल में बड़े दाग नहीं दिखे हैं लेकिन दाग न दिखने का मतलब यह नहीं है कि दाग हैं ही नहीं. चेतने का मौका है क्योंकि अगर एक बार दाग खुले तो बढ़ते चले जाएंगे.


Monday, January 6, 2014

भ्रष्‍टाचार वाली महंगाई

भारत की कितनी मूल्‍य वृद्धि ऐसी है जो केवल भ्रष्‍टाचार की गोद में पल रही है ?

भारत में कितने उत्पाद इसलिए महंगे हैं कि क्‍यों कि उनकी कीमत में कट- कमीशन का खर्च शामिल होता है ? बिजली को महंगा करने में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का भ्रष्‍टाचार कितना जिम्‍मेदार है ? कितने स्‍कूल सिर्फ इसलिए महंगे हैं क्‍यों कि उन्‍हें खोलने चलाने की एक अवैध लागत है ? कितनी महंगाई सरकारी स्‍कीमों भ्रष्‍ट तंत्र पर खर्च के कारण बढी है जिसके लिए सरकार कर्ज लेती है और रिजर्व बैंक से करेंसी छापता  है।.... पता नहीं भारत की कितनी मूल्‍य वृद्धि ऐसी है जो केवल भ्रष्‍टाचार की गोद में पल रही है ? ताजा आर्थिक-राजनीतिक बहसों से यह सवाल इसलिए नदारद हैं क्‍यों कि भ्रष्‍टाचार व महंगाई का सीधा रिश्‍ता स्‍थापित होते ही राजनीति के हमाम में हड़बोंग और तेज हो जाएगी। अलबत्‍ता सियासी दलों की ताल ठोंक रैलियों के बीच जनता ने भ्रष्‍टाचार व महंगाई के रिश्‍ते को जोड़ना शुरु कर दिया है।
 महंगाई एक मौद्रिक समस्या है, जो मांग आपूर्ति के असंतुलन से उपजती है जबकि भ्रष्‍टाचार निजी फायदे के लिए सरकारी ताकत का दुरुपयोग है। दोनों के बीच सीधे रिश्‍ते का रसायन जटिल है लेकिन अर्थविद इस समझने पर, काम कर रहे हैं। इस रिश्‍ते को परखने वाले कुछ ग्‍लोबल पैमानों की रोशनी में भारत की जिद्दी महंगाई की जड़