गोलिएथ जैसी भीमकाय, पुराने वजनदार कवचसे लदी, धीमी और लगभग अंधी भारतीय पारंपरिक राजनीति का मुकाबला छोटे लेकिन चुस्त, सचेतन, सक्रिय युवा व मध्यवर्गीय डेविड से है।
वह भी दिसंबर ही था। 2011 का दिसंबर। जब लोकपाल पर संसद में बहस के
दौरान मुख्यधारा की राजनीति को पहली बार खौफजदा, बदहवास और चिढ़ा हुआ देखा गया था। ठीक दो साल बाद वही राजनीति दिल्ली
के चुनाव नतीजे देखकर आक्रामक विस्मय और अनमने स्वीकार के साथ खुद से पूछ रही है
कि क्या परिवर्तन शुरु हो गया है? लोकपाल बहस में गरजते नेता कह रहे थे कि सारे पुण्य-परिवर्तनों के
रास्ते पारंपरिक राजनीतिक दलों के दालान से गुजरते हैं। जिसे बदलाव चाहिए उसे
दलीय राजनीति के दलदल में उतर कर दो दो हाथ करने चाहिए। रवायती राजनीति एक स्वयंसेवी
आंदोलन को दलीय सियासत के फार्मेट में आने के लिए इसलिए ललकार रही थी क्यों कि
उसे लगता था कि इस नक्कारखाने में आते ही बदलाव की कोशिश तूती बन जाएगी। आम आदमी
पार्टी ने दलीय राजनीति पुराने मॉडल की सीमा में रहते हुए बदलाव की व्यापक
अपेक्षायें स्थापित कर दी हैं और चुनावी सियासत के बावजूद राजनीति की पारंपरिक
डिजाइन से इंकार को मुखर कर दिया है। दिल्ली में आप की सफलता से नगरीय राजनीति की
एक नई धारा शुरु होती है जो तीसरे विकल्पों की सालों पुरानी बहस को नया संदर्भ दे रही है।
देश की कास्मोपॉलिटन राजधानी में महज डेढ़ साल साल पुराने दल के
हैरतअंगेज चुनावी प्रदर्शन को शीला दीक्षित के प्रति वोटरों के तात्कालिक गुस्से
का इजहार का मानना फिर उसी गलती को दोहराना होगा जो अन्ना के आंदोलन के दौरान हुई
थी, जब स्वयंसेवी संगठनों के पीछे सड़क पर
आए लाखों लोगों ने राजनीति की मुख्यधारा को कोने में टिका दिया लेकिन सियासत के सर
रेत