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Sunday, March 19, 2023

सबसे दर‍िद्र सरकारें


 

 

भारत का कोई शहर कभी भी दुनिया में सबसे सुरक्ष‍ित रहने योग्‍य शहरों की सूची पहले पचास क्‍या सौ में भी नहीं गिना जाता. मर्सेर के मोस्‍ट लिवेबल सिटीज की अद्यतन रैंकिंग (2019) में शाम‍िल 231 शहरों में भारत का पुणे 143वें  नंबर पर है. इससे पहले तो अफ्रीका के ट्यूनी‍सिया ट्यूनिस,  नामीबिया की राजधानी विंढोक और बोत्‍सवाना की राजधान गैबरोने आती है. कोविड से पहले तक कोलंबो की रैंकिंग की भारत से ऊपर थी.

स्‍मार्ट सिटी ?... इस गुब्‍बारे का धागा भी अब नहीं मिलता. स्‍मार्ट सिटी मिशन को नारेबाजी का दैत्‍य खा कर पचा गया. एक स्‍वच्‍छता मिशन भी था जो फोटो खिंचाऊ पाखंड के बाद धीरे धीरे वीआईपी इलाकों तक सीम‍ित हो गया.

इस सूची में राजधानी दिल्‍ली तो 162वें नंबर पर है. बोस्‍न‍िया हर्जेगोविना के सराजेवो और इक्‍वाडोर के क्‍वीटो से भी नीचे. अचरज भी क्‍या जिस देश की राजधानी में सीमाओं पर कूड़े के पहाड़ लोगों का स्‍वागत करते हों. जहां हर साल तीन महीने सांस लेना मुश्‍क‍िल हो, वह शहर रहने लायक कैसे हो सकता है.

वैसे मोस्‍ट लिवेबल सिटीज के पहले दस शहरों में अमेरिका का भी कोई शहर नहीं है. सनफ्रांसिस्‍को के साथ 34 वें नंबर से अमेरिका इस सूची में प्रवेश करता है. अमेरिकी शहर क्‍यों रहने लायक नहीं हैं इस पर हम आगे बात करकं लौटेंगे लेक‍िन कूड़े के पहाड़ और स्‍वच्‍छता मिशन के संदर्भ में अमेरिका का किस्‍सा सुनते हुए भारत की शहरों की दुखती रग पकडते हैं

1890 में अटलांटिक के दोनों तरफ शहर गंदगी से बजबजा रहे थे. शहरों में आना जाना घोड़ागाड‍ियों से होता था. घोडों की लीद के ढेर जमा थे, बदबू और बीमारियां थीं ऊपर से सफाई नदारद. यह घोड़ा लीद संकट यानी हॉर्स मैन्‍यूर क्राइसि‍स गंदगी एक किस्‍म की आपदा बनाई. 1898 में न्‍यूयार्क में जब पहली अंतरराष्‍ट्रीय अरबन प्‍लानिंग कांफ्रेंस हुई तो सबसे बडा एजेंडा था शहरों में फैला गोबर. 

1894 का न्यूयॉर्क इतना गंदा था कि न्यूयॉर्क पुलिस कमीशन के तत्कालीन प्रमुख थियोडोर रूजवेल्ट शहर की सफाई का जिम्मा लेने को राजी नहीं हुए. यही रुजवेल्‍ट बाद में अमेरिका के राष्‍ट्रपति बने

टेडी रुजवेल्‍ट की सलाह पर न्यूयॉर्क के मेयर विलियम स्ट्रांग ने पूर्व कर्नल और सेना में घुड़सवारी दस्तों के विशेषज्ञ जॉर्ज वेरिंग को सिटी क्लीनिंग डिपार्टमेंट का जिम्मा सौंपा. गंदगी के खिलाफ कर्नल वेरिंग ने युद्ध जैसी मुहिम चलाई. शहर के साथ सफाई में भ्रष्‍टाचार को साफ किया. कूड़े को रिसाइकल‍िंग के सफल प्रयोग किये. उनकी मुह‍िम विवादों, तरह-तरह की सख्ती और भारी खर्च से भरी थी. लेकिन 1898 में जब वे क्यूबा में सैनिटेशन का जिम्मा लेने रवाना हुए तब तक न्यूयॉर्क का चेहरा बदल चुका था.

नगरविकास विशेषज्ञ एडवर्ड ग्‍लीजर अपनी किताब ट्रांयम्‍फ आफ द सिटी शहर में ल‍िखते हैं कि सफाई और पेयजल व्‍यवस्‍था से बीमारियां खत्‍म हुईं और 1910 तक जीवन प्रत्याशा 4.7 वर्ष बढ़ गई थी. 1896 तक अमेरिका की म्‍युन‍िसप‍िलटीज पानी सफाई पर इतना बजट खर्च कर रहीं थी जो उस वक्‍त की फेडरल सरकार के रक्षा पर खर्च के बराबर था.

2019 में अमेरिका के राज्‍य और शहर नगरीय व्‍यवस्‍थाओं पर करीब 3.3 खरब डॉलर सालाना खर्च कर रहे थे. अमेरिकी सरकार के आंकड़े बताते हैं कि बडे शहरों में नगर प्रशासन का प्रत‍ि व्‍यक्‍ति खर्च 2000 डॉलर से ज्‍यादा है इसके बाद भी द बिग एपल यानी आज का न्‍यूयार्क रहने योग्‍य शहरों की सूची के शीर्ष बीस में भी नहीं आता. अमेरिका मरते हुए शहरों का देश बन  रहा है  है क्‍यों कि अमेरिका के शहरों के पास बजट कम पड़ रहे हैं .

 भारत की सबसे दरिद्र सरकारें

म्‍युन‍िसपिल‍िटी को या नगर‍ निगम को लोकल गवनर्मेंट ही तो कहा जाता है यानी कि स्‍थानीय सरकार. सेवाओं सुविधाओं और लोगों जीवन स्‍तर तय करने में यह सरकारें सबसे महत्‍वपूर्ण हैं. राजधानियां तो बहुत दूर हैं लोगों को रोज जो  सफाई, पीने का पानी, पार्क, स्‍थानीय सड़कें चाहिए वह इन्‍हीं निचली सरकारों से आती हैं. 1992 में संव‍िधान 73 वें और 74वें संवि‍धान संशोधन के बाद इस स्‍थानीय सरकार का ढांचा पूरी तरह स्‍पष्‍ट  और स्‍थापित हो हो गया था.

गली कूचों तक प्रतिस्‍पर्धी हो चुकी भारतीय राजनीति में इन लोकल सरकारों के चुनाव अब राष्‍ट्रीय सुर्ख‍ियां बनते हैं. देश के नेता इनके नतीजों पर बधाइयां बांटते हैं मगर यह सवाल नहीं पूछे जाते कि  स्‍वच्‍छता मिशन को  शुरु करने वाले प्रधानमंत्री का दफ्तर और इस मिशन का मुख्‍यालय दिल्‍ली के कूड़ा पर्वतों से केवल कुछ क‍िलोमीटर दूर है. पूरी दुनिया में भारत का डंका और डमरु बजाने वाले यह नहीं बता पाते कि आख‍िर इस कूड़ा समस्‍या का समाधान क्‍यों नहीं मिल पाया क्‍यों शहरों की सफाई मिशन पूरी तरह कामयाब नहीं हुआ. क्‍यों शहरों के कुछ इलाकों को छोड़ ज्‍यादातर हिस्‍सा वैसा ही दिखता है.

रिजर्व बैंक ने अपनी ताजा रिपोर्ट में इस सवाल का जवाब दिया है, आंकड़ों के सा‍थ. 2017-18 से 2019-20 के दौरान नगरीय निकायों के वित्‍तीय हालात पर अपनी रिजर्व बैंक ने इस रिपोर्ट में बताया है कि इन स्‍थानीय सरकारों के पास अपने खर्चे के लायक राजस्‍व हैं  नहीं. उनके कुल राजस्‍व में

सभी नगरपालिकाओं का कुल हिसाब बताता है कि उनके कुल राजस्‍व के अनुपात में टैक्‍सों का हिस्‍सा केवल 34-35 फीसदी है. अलग अलग राज्‍यों में इस प्रत‍िशत में बड़ा फर्क है. भारत में जीडीपी के अनुपात में नगरनि‍कायों के अपने राजस्‍व तो एक फीसदी से भी कम हैं

भारत के नगर निकाय अपने अध‍िकाशं खर्च के लिए राज्‍य सरकार और केंद्र के अनुदानों पर निर्भर हैं. जीडीपी के अनुपात में राज्‍यों को मिलने वाले अनुदान उनके टैक्‍स राजस्‍व से भी ज्‍यादा हैं. यदि हर पांच साल में वित्‍त आयोग इनमें बढोत्‍तरी न करे तो नगर निगमों पास सामान्‍य जरुरतों के लायक संसाधन नहीं होंगे

कहने को भारत में नगर निकायों को बाजार से कर्ज लेने की छूट करीब 15 साले पहले मिल गई  है अलबत्‍ता ग्रेटर हैदराबादबिहार और महाराष्‍ट्र के अलाव अन्‍य नगरपालिकायें बांड लाने की हिम्‍मत नहीं जुटा सकी . उनके ज्‍यादातर कर्ज बैंकों से हैं जो खासे महंगे हैं.

 

खर्च कहां से बढेगा

न‍गर निकायों के खर्च का सबसे बड़ा हिस्‍सा  वेतन और प्रशसानिक मदों पर है. यह जीडीपी का काीब 0.61 फीसदी अै जबक पूंजी खर्च यानी शहरों में नई सुविधाओं को बनाने में होने वाला खर्च जीडीपी का केवल 0.44 फीसदी. 

दिल्‍लीचंडीगढ और महाराष्‍ट्र के अलावा देश सभी हिस्‍सों नगर निकायों में प्रति व्‍यक्‍ति राजस्‍व खर्च 2000 रुपये भी कम हैउत्‍तर प्रदेशझारखंड बिहार आदि में तो यह 1500 रुपये भी कम है

 

सड़कें बुहारती नेताई छवियों का फैशन खत्म होते ही गंदगी अपनी जगह मुस्तैद दिखने लगती है 12वीं पंचवर्षीय योजना ने बताया था कि नगरपालिकाओं में प्रति दिन लगभग 1.15-2  लाख टन से ज्यादा कचरा निकलता है और भारत में  कचरा निस्तारण का कोई ठोस इंतजाम नहीं है.

2001 की जनगणना के अनुसारक्लास वन और टू शहरों में 80 फीसदी सीवेज का ट्रीटमेंट नहीं होता. 2011 की जनगणना ने बताया कि शहरों में 50 फीसदी आवास खुली नालियों से जुड़े हैं जबकि 20 फीसदी घरों का पानी सड़क पर बहता है. 80 फीसदी शहरी सड़कों के साथ बरसाती पानी संभालने के लिए  ड्रेनेज नहीं है. 2011 ईशर अहलुवालिया समिति की रिपोर्ट भारतीय नगरीय ढांचे की जरुरतों का आख‍िरी व्‍यवस्‍थ‍ित आकलन था इसने बताया था कि  शहरों में सीवेजठोस कचरा प्रबंधन और बरसाती पानी की नालियों को बनाने के लिए पांच लाख करोड़ रु. की जरूरत है.

सबूत सामने हैं नगरीय पेयजल और बुनियादी सफाई में भारत ब्राजील और रुस से भी बहुत पीछे है. 

दुनिया के विभिन्न शहरों के तजुर्बे बताते हैं कि सफाईसीवेज और कचरा प्रबंधन रोजाना लड़ी जाने वाली जंग है जिसमें भारी संसाधन और लोग लगते हैं. इसमें कोई कारोबारी फायदा भी नहीं होता. इसलिए निजी निवेश भी नहीं आता. भारत के स्‍थानीय निकायों के पास संसाधन ही नहीं तो उनसे किसी अच्‍छी व्‍यवस्‍था की उम्‍मीद भी कैसे की जा सकती है. यह आंकडे विकस‍ित देशों और प्रमुख विकासशील देशों के मुकाबले भारत में नगर निकायों के राजस्‍व का हाल बताते हैं

‍सबसे बडी टैक्‍स चोरी 

अगर आपको लगता है कि नगर न‍िकायों के पास संसाधनों के अवसरों की कमी है तो आपको शायद देश की सबसे बडी टैक्‍स चोरी के बारे में जानकारी नहीं है. यह चोरी है प्रॉपर्टी टैक्‍स की. या आप कहें नगर निकायों की काहिली जो वे यह टैक्‍स वसूल नहीं पाते.

प्रॉपर्टी टैक्‍स वह कर है जो नगर निकायों की आय का प्रमुख स्रोत होना चाहिए. यह टैक्‍स संपत्‍त‍ियों पर लगता है. पूरी दुनिया में सिटी गवर्नमेंट के लिए यह  टैक्‍स का प्रमुख संसाधन है. यूरोप के देश में जहां शहरों का प्रबंधन अमेरिका से भी बेहतर है वहां प्रॉपर्टी टैक्‍स का प्रशासन चुस्‍त है. मगर भारत में यह जीडीपी का केवल 0.5 फीसदी है.  

साल 2017 के  आर्थ‍िक सर्वेक्षण प्रॉपर्टी टैक्‍स पर कुछ जरुरी तथ्‍य दिये थे. सैटेलाइट इमेंजिंग के जरिये प्रॉपर्टी की पड़ताल के बाद इस सर्वे ने बताया था कि बंगलौर और जयपुर जैसे शहरों में प्रॉपर्टी और मकानों की संख्‍या के आधार पर जितने प्रॉपर्टी टैक्‍स की संभावना है उसका केवल 5 से 20 फीसदी हिस्‍सा ही वसूल हो पाता है. 14 वें वित्‍त आयोग ने प्रॉपर्टी टैक्‍स पर अपने अध्‍ययन में बताया था कि भारत में प्रति व्‍यक्‍ति‍ प्रॉपर्टी टैक्‍स की वसूली अध‍िकतम 1677 रुपये और कम से कम 42 रुपये है

केवल 42 रुपये !

भारत में नगरीकरण तेजी से बढा हैं. संपत्‍त‍ियों की खरीद बिक्री में कई गुना इजाफा हुआ. मकानों के लिए कर्ज भी बढे हैं. जो प्रॉपर्टी में बढते निवेश का प्रमाण हैं लेक‍िन इनकी तुलना में नगर‍ निकायों का प्रॉपर्टी टैक्‍स का संग्रह नहीं बढा है.

अध‍िकांश नगर निकायों के पास कर संग्रह का चुस्‍त ढांचा नहीं है. तरह तरह की रियायतें दी गई हैं. संपत्‍ति‍ की अद्यतन सूचनायें नहीं है. टैक्‍स दरों मे संशोधन नहीं हुआ है. नतीजा है कि शहरों में प्रॉपर्टी टैक्‍स की चोरी चरम पर है. 

 

भारत में 2022 में करीब 35 फीसदी आबादी नगरों रहती है. आर्थ‍िक प्रगति और रोजगारों की सभी उम्‍मीदें शहरों से होकर जाती हैं. 2036 तक भारत के करीब 600 मिल‍ियन यानी 60 करोड़ लोग शहरों  रह रहे होंगे. जिन्‍हें पेयजलसफाई और नगरीय सुविधाओं की जरुरत होगी.

विश्‍व बैंक ने अपने एक ताजा अध्‍ययन में कहा है कि भारत को अगले 15 साल में शहरों पर 840 अरब डॉलर खर्च करने होंगे यानी कि करीब 55 अरब डॉलर प्रति वर्ष यानी लगभग 4.5 लाख करोड़ रुपये हर साल खर्च करने होंगे जो भारत के जीडीपी के दो फीसदी से ज्यादा है.  यूनीसेफ ने अपनी 2022 की रिपोर्ट में कहा है कि 2030 तक केवल बुनियादी सफाई और पेयजल पर दुनिया को 105 अरब डॉलर लगाने होंगेअफ्रीका के बाद सबसे बड़ा खर्च भारत जैसे देशों में होगा.

 

 

भारतीय शहरों को न तो केंद्र और राज्‍यों के अनुदानों के जरिये चलाया जा सकता है और न ही सफाई के प्रतीकवाद के जरिये.

स्‍थानीय निकायों के बजट प्रबंधन में तीन बुनियादी बदलाव चाहिए

1.      नगर निकायों को प्रॉपर्टी टैक्‍स आंकने लगाने का पूरा ढांचा आपातकालीन व्‍यवस्‍था की तर्ज बनाना होगा. तभी शहरों में कुछ ठीक हो सकेगा. इसके अलावा तमाम तरह की सेवायें पर राजस्‍व उगाहने की व्‍यवस्‍था करनी होगी

2.      दो भारत के नगरों के बुनियादी ढांचे में निजी निवेश न के बराबर है. नगरीय प्रशासन को अपनी रणनीति बदलकर नगरीय सेवाओं निजी भागीदारी में चलाना होगा

3.      नगरीय संपत्‍त‍ियों का विन‍िवेश या बिक्री के अलावा संसाधन जुटाने का अब कोई तरीका नहीं हैं.

4.      और अब भारत को यूरोप की तरह बडे शहरों में उपभोग खासतौर पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उपभोग पर टैक्‍स बढ़ाना होगा

नगरीय प्रशासन को लेकर दुनिया की सबसे ताजा बहस यह है कि इतने भारी बजट के बाद अमेरिका मरते हुए शहरों का देश क्‍यों बन रहा है. डेट्रायटसेंट लुईमिलवाउुकेबाल्‍टीमोरपिट्सबर्ग जैसी शहर मर रहे हैं. इधर तमाम संकटों के बावजूद यूरोप के शहर अमेरिका से अच्‍छे हैं और बेहतर प्रबंधन वाले हैं. अमेरिका अपने नगरीय ढांचे को संभाल नहीं पा रहा है.

भारत फिलहाल अच्‍छे शहरों की हर तरह की बहस से बाहर है. केवल शहरी चुनावों की सुर्ख‍ियां बनती हैं. भारत के शहरी जब तक यह नहीं समझ पाएंगे कि पानी सफाई जैसी जिन सेवाओं के लिए टैक्‍स देते हैं वही सेवायें निजी क्षेत्र से खरीदकर इस्‍तेमाल क्‍यों  करते हैं और इन शहरी सरकारों के चलाने वाले जब तक यह तय नहीं कर पाएंगे कि उनकी जिम्‍मेदारी राजधान‍ियों से कहीं ज्‍यादा है भारत के नगर द्वारों पर कूड़ा आपका स्‍वागत करेगा और बूंद बूंद पानी के लिए टैक्‍स के बाद भी पैसे देन होंगे.   

 

 


Monday, October 13, 2014

स्वयंसेवा की सीमाएं


स्वच्छता की प्रेरणाएं सर माथे,  मगर सफाई सीवेज और कचरा प्रबंधन रोजाना लड़ी जाने वाली जंग है जिसमें भारी संसाधन लगते हैं.
ए हवाई अड्डों पर लोग खुले में शंका-समाधान नहीं करते पर रेलवे प्लेटफॉर्म पर सब चलता है. शॉपिंग मॉल्स के फूड कोर्ट में गंदगी होती तो है, दिखती नहीं. अलबत्ता गली की रेहड़ी के पास कचरा बजबजाता है. सरकारी दफ्तरों के गलियारे दागदार हैं, दूसरी ओर निजी ऑफिस कॉम्प्लेक्स की साफ-सुथरी सीढिय़ां मोबाइल पर बतियाने का पसंदीदा ठिकाना हैं. स्वच्छता अभियानों का अभिनंदन है लेकिन सफाई की बात, स्वयंसेवा की पुकारों से आगे जाती है और स्वच्छता को बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्या बनाती है जो बुनियादी ढांचे की जिद्दी किल्लत से बेजार हैं. शहरों में अब साफ और गंदी इमारतें, अस्पताल और सार्वजनिक स्थल एक साथ दिखते हैं और यह फर्क लोगों की इच्छाशक्ति से नहीं बल्कि सुविधाओं की आपूर्ति से आया है. सफाई, सरकार की जिम्मेदारियों में आखिरी क्रम पर है इसलिए सरकारी प्रबंध वाले सार्वजनिक स्थल बदबूदार हैं जबकि निजी प्रबंधन वाले सार्वजनिक स्थलों पर स्वच्छता दैनिक कामकाज का स्वाभाविक हिस्सा है. क्या खूब होता कि आम लोगों को झाड़ू उठाने के प्रोत्साहन के साथ, कर्मचारियों की कमी, कचरा प्रबंधन की चुनौतियों, बुनियादी ढांचे के अभाव और संसाधनों के इंतजाम की चर्चा भी शुरू होती, जिसके बिना सफाई का सिर्फ दिखावा ही हो सकता है.

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Monday, February 11, 2013

नए समाज का पुराना बजट


स पर मायूस हुआ जा सकता है कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को पिछले एक दशक के सबसे बुरे वक्‍त में जो बजट मिलने जा रहा है वह संसद से निकलते ही चुनाव के मेले में खो जाएगा। वैसे तो भारत के सभी बजट सियासत के नक्‍कारखानों में बनते हैं इसलिए यह बजट भी लीक पीटने को आजाद है। अलबत्‍ता पिछले बीस साल में यह पहला मौका है जब वित्‍त मंत्री के पास  लीक तोड कर बजट को अनोखा बनाने की गुंजायश भी मौजूद है जो लोग सडकों पर उतर कर कानून बनवा या बदलवा रहे हैंवही लोग बजटों के पुराने आर्थिक दर्शन पर भी झुंझला रहे हैं। बीस साल पुराने आर्थिक सुधारों में सुधार की बेचैनी सफ दिखती है  क्‍यों कि बजट बदलते वक्‍त से पिछड़ गए हैं। बजट, लोकतंत्र का सबसे महतत्‍वपूर्ण आर्थिक राजनीतिक आयोजन है और संयोग से इसका रसायन बदलने के लिए मांगमूड और मौका तीनों ही मौजूद हैं।  
बजटों में बदलाव का पहला संदेशा नई आबादी से आया है। भारत एक दशक में शहरों का देश हो जाएगा। बजट, इस जनसांख्यिकीय सचाई से कट गए हैं। 2001 से 2011 के बीच नगरीय आबादी करीब 31 फीसदी की गति से बढी जो गांवों का तीन