अर्थव्यवस्थाओं
को हमेशा के लिए कौन बदल सकता है ..
मंदी
महामारी
युद्ध
राजनीति
शायद नहीं
यह तो वक्त चादर की सलवटें हैं ...
अर्थव्यवस्थायें
तो बदलते हैं लोग
बहुत से
लोग
जनसंख्या
की ताकत
दुनिया तो
दरअसल संतानों का अर्थशास्त्र है
यह अर्थशास्त्र
जब करवट लेता है तो महाप्रतापी समय भी नतमस्तक हो जाता है क्यों कि यह बदलाव सदियों
आते हैं और सदियों तक असर करते हैं.
अब दुनिया
ठीक एसे ही एक महासंक्रमण की दहलीज पर है.
इसे समझने
के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा
तो आइये बैठिये
एक टाइम मशीन में और शुरु कीजिये तीन सौ
साल का सफर. चलते हैं 18 वीं सदी से 21 वीं सदी की तरफ यानी अतीत से वर्तमान की ओर
इस यात्रा में सबसे पहले आपको दिखेगा यूरोप का बदलता
नक्शा. तीस साल लंबे युद्ध के बाद यानी थर्टी इयर्स ऑफ वार के यूरोप के देशों के बीच वेस्टफीलिया की संधि. 300 साल
के सफर में आपको चीन में दो साम्राज्यों मिंग और क्विंग का पतन नजर आएगा. नेपोलियन
के युद्ध मिलेंगे, फ्रांस की क्रांति मिलेगी,
यूरोप की औद्योगिक क्रांति मिलेगी. भारत मे मुगलों का पराभव मिलेगा.
भारत और अमेरिका से कारोबार के लिए ब्रिटेन, पुर्तगाली,
स्पेन, डच के बीच होड़ मिलेगी. फिर दिखेगी
अमेरिका और भारत की गुलामी और आजादी का संघर्ष.
इस सफर में मिलेगा लाखों की जाने लेने वाला स्पेनिश फ्लू , महामंदी मिलेगी, दो महायुद्ध मिलेंगे.
अलबत्ता सम्राटों युद्धों और तबाही के इतिहास
से अपनी नजरें हटायें तो आपको पता चलेगा कि यह दौर लोगों के लिए यानी आबादी के लिए
सबसे बुरा था. गुलामी बर्बरता खून खच्चर गरीबी बदहाली . अधिकांश लोगों के पास
इसके अलावा और कुछ नहीं था. यह दौर था जब दुनिया में औसत आयु केवल 27 साल थी. प्रजनन
दन (फर्टिलिटी रेट) काफी ऊंची थी एक महिला करीब छह बच्चों को जन्म देती थी लेकिन
इनमें अधिकांश जीवित नहीं रहते थे. आबादी की वृद्धि दर बमुश्किल आधा फीसदी थी.
17 वीं 18 वीं सदियां और 19 वीं सदी का बड़ा हिस्सा ऊंची जन्म दर, बड़ी संख्या में युवा आबादी, बदतर जीवन स्तर और ऊंची मृत्यु दर के साथ गुजरा था
फिर आप को मिलेगी 19 वीं सदी की शुरुआत जहां
जिंदगी थोड़ी सी बदलने लगी. यूरोप में मृत्यु दर घटने लगी थी, जन्म दर भी कम हुई, फिर
यह पूरी दुनिया में हुआ और एक जनसंख्या
संक्रमण आकार लेने लगा. बीसवीं सदी की
शुरुआत तक दुनिया की आबादी एक अरब के पास पहुंचने लगी थी. आबादी बढ़ने की रफ्तार
रफ्ता रफ्ता तेज हो रही थी.
बीसवीं सदी की शुरुआत के साथ सब कुछ बदल गया जीवन प्रत्याशा
दर बढ़ी. जन्म दर घटी और 21 वीं सदी की शुरुआत तक दुनिया की आबादी 1800 की तुलना
में छह गुना बढ़ गई. बच्चों की तुलना में बुजुर्गों का अनुपात तीन गुना बढ़ा.
करीब सौ साल पहले महिलायें अपने युवा जीवन का 70 फीसदी हिस्सा बच्चों जन्म देने
और पालने में गुजारती थीं वह 21 वीं सदी की शुरुआत तक घटकर 14 फीसदी रह गया.
यही वह दौर था जब संतानों अर्थशास्त्र ने अर्थव्यवस्थाओं
की सीरत और सूरत बदल दी. अमेरिका में बेबी बूमर्स (1946 से 1964 के बीच जन्मे) ने अमेरिका
को 30 साल की सबसे तेज विकास दर की नेमत बख्शी, जिसे 2000 में बिल क्लिंटन
ने नई अर्थव्यवस्था कहा था। (इन बेबी बूमर्स के हाथ
अमेरिका की 70 फीसदी एसी कमाई (खर्च योग्य आय) है
जिस पर बाजार झूम उठते हैं है). अमेरिका को एक और बड़े
जनसंख्या संक्रमण का लाभ मिला जो 2000 की पीढ़ी थी जिन्हें मिलेनियल्स
कहा गया हालांकि यह मिलेनियल्स ठीक उस वक्त अर्थव्यवस्था में आए जब 2008 की
मंदी आ धमकी थी. इधर 1980 के बाद चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं
ने अपनी जनसंख्या को खपत, उत्पादन और श्रम शक्ति
का बाजार बनाया जबकि यूरोप में बुढापा घिरने लगा
आबादी की चक्की
कहते हैं जनसंख्या की चक्की इतनी धीमी चलती है और इतना
महीन पीसती है हम अक्सर भूल ही जाते है लोगों से अर्थव्यवस्था बनती है है
अर्थव्यवस्था से लोग नहीं. यह पहिया
अपना सबसे बड़ा संक्रमण करने जा रहा है. दुनिया में जनसंख्या का संतुलन स्थायी
तौर पर बदलने जा रहा है. यह संक्रमण तीन सौ
साल में सबसे बड़ा बदलाव शुरु हो चुका है पहली बार होगा. आने वाले में
दशकों में दुनिया को चाहे जो राजनीति बर्दाश्त करनी पड़े, चाहे जो
सरकारें आए या जाएं , विज्ञान और तकनीक के नए शिखर
कितने भी ऊंचे हों जनसंख्या का यह परिवर्तन
कामागारों की कमी , वेतन बढ़ने के दबाव, उत्पादन में कमी और जिद्दी महंगाई लेकर आएगा
चौंक गए न !
यह चारों बदलाव अर्थव्यवस्था के बारे में हमारी मौजूदा समझ को उलट पलट कर सकते हैं लेकिन आबादी और अर्थव्यवस्था को रिश्तों को करीब से पढ़ने वाले इस संक्रमण की शुरुआत का बिगुल बजा रहे हैं. महामारी की चीख पुकार के बीच दुनिया के विशेषज्ञ जनसंख्या की नई करवट को समझ रहे हैं चार्ल्स गुडहार्ट और मनोज प्रधान की ताजा किताब द ग्रेट डेमोग्राफिक रिवर्सल – एजिंग सोसाईटीज, वैनिंग इनइक्विलिटीज एंड एन इन्फेलशन रिवाइवल इस संक्रमण पर नई रोशनी डालती है
भारत की तपती बेरोजगारी के बीच यह बात कुछ अटपटी सी लगेगी लेकिन
दुनिया की आबादी की नई करवट समझने वाले इस अनोखी किल्लत की तैयारी कर रहे हैं.
1950 के बाद दुनिया तीन धीमे लेकिन बड़े बदलाव हुए हैं.
प्रजनन दर यानी फर्टिलिटी रेट बीते शताब्दी की तुलना मेंआधी करीब 2.7 फीसदी रह
गई. जिंदगी लंबी हुई. 2000 तक 50 साल में दुनिया की आबादी दोगुनी हो गई और युवा
आबादी का अनुपात मजबूती से बढ़ने लगा. इस बदलाव ने दुनिया में कार्यशील आयु वाली
लोगों की संख्या में तेज बढ़ोत्तरी की. यह चार्ट इस अभूतपूर्व बदलाव की नजीर है
श्रमिकों का आपूर्ति का स्वर्ण युग आया 1990 के बाद. तब
तक बेबी बूमर्स यानी 1950 से 1964 के बीच जन्मे लोग बाजार में आ गए थे. 1991 से
2018 विकसित अर्थव्यवस्थाओ में श्रमिकों की आूपर्ति दो गुनी से ज्यादा हो गई.
काम तो मिला लेकिन वेतन बहुत नहीं बढ़े क्यों कि श्रमिक आपूर्ति ज्यादा थी. चीन
की विकास कथा इसी दौर मे बनती है. भारत और एशिया की अर्थव्यवस्थाओं ने भी इस
संक्रमण को पूरा लाभ लिया. अलबत्ता उत्पादन बढ़ा और दुनिया ने करीब 28 साल तक
महंगाई नहीं देखी. जिसका लाभ जीवन स्तर बेहतर होने के तौर पर सामने आया.
बीते करीब 60 सालों में दुनिया का हर परिवार बीती सदी के
तुलना में अमीर हुआ है. छोटे परिवार रखना कमाई की गारंटी थी और लंबे समय तक काम
करने का मौका था इसलिए आय में बढ़ोत्तरी हुई हालांकि यह पूरी दुनिया में असमान
थी. क्यों कि एक छोटी सी आबादी की आय ज्यादा तेजी से बढ़ी.
अब यह पूरा परिदृश्य बदलने वाला है.
एक नई दुनिया हमारे सामने होगी.
दुनिया के ज्यादातर देशों में कार्यशील आबादी कम होती
जाएगी. अब उतने श्रमिक नहीं होंगे. जापान, कोरिया, जर्मनी,
रुस, चीन, इटली,
फ्रांस, चीन में अब
बुढ़ापा घिर रहा है. चीन ने 1990 से 2015 के करीब 29 करोड लोग कार्यशील आबादी में
जोडे. अब 2050 तक 22 करोड़ लोग श्रम बाजार
से बाहर हो जाएंगे क्यों कि उनकी उम्र काम के लायक नहीं रहेगी.
इसका असर धीमी आर्थिक विकास दर के तौर पर सामने आएगा.
विशेषज्ञ मान रहे हैं कि उत्पादन घटेगा क्यों कि श्रमिकों की कमी भी होगी, खपत भी गिरेगी. बहुत तेज विकास दर के दिन
अब गए. अगले करीब तीन दशकों में भारत चीन जैसे एशियाई अर्थव्यवस्थायें औसत 6 से
8 फीसदी के बीच विकास दर हासिल कर पाएंगी. यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं कीविकास दर
तो तीन फीसदी से भी नीचे रहेगी. यह संक्रमण
ग्लोबलाइजेशन की रफ्तार को भी धीमा कर सकता क्यों कि श्रमिकों आपूर्ति
सीमित होगी. प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देना राजनीतिक रुप से मुफीद नहीं होगा.
इसलिए दुनिया को देशों के जो सामान सेवायें आयात करते थे उनमें से कई मामलेां उन्हें
अपने यहां नई क्षमतायें बनानी होंगी
सन 2000 के बाद यहां युवा और बुजर्ग आबादी का अनुपात बदल रहा है. आबादी का का डिपेंडेंसी
रेशियो कमजोर हो रहा है यह इस वक्त अर्थव्यवस्था का सबसे प्रभावी फार्मूला है.
यह अनुपात बताता है कि आबादी कार्यशील लोगों पर कितने बच्चे और बुजुर्ग निर्भर
हैं.
किसी भी जनसंख्या में बच्चे और बुजुर्ग शुद्ध उपभोक्ता
हैं. वह कार्यशील लोगों पर निर्भर हैं. यह आबादी उत्पादन करती है खपत करती है और
बचत करती है. इसलिए इस अनुपात में गिरावट अर्थव्यवस्था के अचछी मानी जाती है.
1950 तक यह अनुपात संतुलित था. बाद के दशकों में इसमें बढोत्तरी हुई. 1990 के इसमें बढ़त हुई है. कार्यशील आबादी घट
रही है जबकि उस पर निर्भर आबादी बढ़ रही है.
1990 के बाद श्रम
बाजार में औसत श्रमिकों की कार्यशील आयु स्थिर होने लगी थी. बाद मे वर्षों में
इसमें तेज गिरावट आई. इसी के साथ सभी बडी अर्थव्यवस्थाओं में डिपेंडेसी रेशियो
बढ़ने लगा
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महंगाई बढ़ने के साथ खपत में कमी और उपभोग में भी कमी
क्योंकि बुढ़ाती आबादी की खपत कम होती है. इसका मतलब यह कि अब बल्लियों उछली
विकास दर की जरुरत नहीं होगी क्यों कि मांग कम रहेगी
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बुजर्ग आबादी अपनी पुरानी बचतों पर जियेगी नई बचतें
नहीं होगी इसलिए निवेश को कर्ज पर निर्भर
रहना होगा. महंगाई के बीच यह परिस्थिति ब्याज दरों को ऊंचा रख सकती है.
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निवेश में कमी होने की संभावना कम है क्यों कि आबादी
का संतुलन बदलने के साथ आवासों पर सबसे जयादा निवेश चाहिए. बुजुर्गों को रहने के
लिए घर चाहिए. गुडहार्ट और प्रधान अपने अध्ययन बता रहे हैं कि पूरी दुनिया में
हाउसिंग की मांग बढेगी अलबत्ता इसके लिए कर्ज भी जरुरत में भी इजाफा होगा
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कर्ज इसलिए भी महंगा रह सकता है क्यों कि सरकारों
को बुजुर्ग कल्याण पर खर्च बढ़ाना होगा. यह स्वास्थ्य पेंशन शहरी सुविधाओं पर
होगा. बीते करीब 40 सालों से सरकारों ने इस तरफ सोचा नहीं. अब बुजुर्ग आबादी सबसे
बडी राजनीतिक मजबूरी बनती जाएगी.
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सरकारों को पेंशन के पूरे ढांचे बदलने होगे.
सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाना जरुरी होगा क्यों कि जीवन प्रत्याशा बढ़ने से लोग
70 साल तक काम कर सकते हैं. यह पेंशन बजटों के संतुलित करेगा
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स्वास्थ्य सेवाओं को सड़क, बिजली, दूरसंचार की तर्ज पर विकसित करना होगा
ताकि कार्यशील आयु बढ़ाई जा सके और 65 की आयु वाले लोग 55 साल वालों के बराबर
उत्पादक हो सकें.
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मेकेंजी
का मानना है कि स्वास्थ्य में नई तकनीकें लाकर, बेहतर प्राथमिक उपचार, साफ पानी और समय पर
इलाज देकर बडी आबादी की सेहत 40 फीसदी तक बेहतर की जा सकती है. स्वास्थ्य पर
प्रति 100 डॉलर अतिरिक्त खर्च हों जीवन में प्रति वर्ष, एक स्वस्थ वर्ष बढाया जा सकता है. स्वास्थ्य सुविधायें संभाल कर, 2040 तक दुनिया के जीडीपी में 12 ट्रििलयन डॉलर जोडे जा सकते हैं जो ग्लोबल
जीडीपी का 8 फीसदी होगा यानी कि करीब 0.4 फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी
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विशेषज्ञ
मान रहे हैं कि वेतन बढ़ने की संभावनाओं के बीच यह बदलाव अगले कुछ दशकों में आय असमानता कम कर
सकता है लेकिन यहां तस्वीर बहुत धुंधली है, वक्त ही बतायेगा कि क्या हुआ.
अर्थशास्त्र का सबसे लोहा लाट
नियम किसी बैंक बजट या मुद्रा पर आधारित नहीं है. यह तो लोगों पर आधारित है
आर्थिक विकास = लोगों की संख्या में कमी बेशी+लोगों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी
कोई भी अर्थव्यवस्था अर्थव्यवस्था लोगों की संख्या और उनकी उत्पादकता बढाकर
ही आगे बढती है. यह फार्मूला मांग बचत और टैक्स का फार्मूला है
यही फार्मूला अब नई करवट ले रहा है
अगली सदी की दुनिया नई दुनिया होगी