लोकतंत्र में परम
प्रतापी मतदाता ऐसा भी जनादेश दे सकते हैं जो हारने वाले को खुश कर दे और जीतने
वाले को डरा दे! गुजरात के लोग हमारी राजनैतिक समझ से कहीं ज्यादा समझदार निकले.
सरकार से नाराज लोगों ने ठीक वैसे ही वोट दिया है जैसे किसी विपक्ष विहीन राज्य
में दिया जाता है. गुजरात के मतदाताओं ने भाजपा को झिंझोड़ दिया है और कांग्रेस को
गर्त से निकाल कर मैदान में खड़ा कर दिया है.
गुजरात ने हमें
बताया है कि
- सत्ता विरोधी
उबाल केवल गैर-भाजपा सरकारों तक सीमित नहीं है.
- लोकतंत्र में
कोई अपराजेय नहीं है. दिग्गज अपने गढ़ों में भी लडख़ड़ा सकते हैं.
- भावनाओं के
उबाल पर, रोजी, कमाई की आर्थिक
चिंताएं भारी पड़ सकती हैं.
- लोग विपक्ष मुक्त
राजनीति के पक्ष में हरगिज नहीं हैं.
2019 की तरफ बढ़ते हुए
भारत का बदला हुआ सियासी परिदृश्य सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए रोमांचक होने वाला
है. गुजरात ने हमें भारतीय राजनीति में नए बदलावों से मुखातिब किया है.
अतीत बनाम भविष्य
जातीय व धार्मिक
पहचानें और उनकी राजनीति कहीं जाने वाली नहीं है लेकिन भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक
राज्य गुजरात दिखाता है कि सामाजिक-आर्थिक वर्गों में नया विभाजन आकार ले रहा है—मुख्यतः भविष्योन्मुख और अतीतोन्मुख वर्ग. इसे
उम्मीदों और संतोष की प्रतिस्पर्धा भी कह सकते हैं. इसमें एक तरफ युवा हैं और
दूसरी तरफ प्रौढ़. 2014 में दोनों ने
मिलकर कांग्रेस को हराया था.
गुजरात में प्रौढ़
महानगरीय मध्य वर्ग ने भाजपा को चुना है. आर्थिक रूप से कमोबेश सुरक्षित प्रौढ़
मध्य वर्ग सांस्कृतिक, धार्मिक, भावनात्मक पहचान
वाली भाजपा की राजनीति से संतुष्ट है लेकिन अपने आर्थिक भविष्य (रोजगार) को लेकर
सशंकित युवा भाजपा के अर्थशास्त्र से असहज हो रहे हैं.
लगभग इसी तरह का
बंटवारा ग्रामीण व नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में है. ग्रामीण भारत में पिछले तीन साल
के दौरान आर्थिक भविष्य को लेकर असुरक्षा बुरी तरह बढ़ी है. दूसरी ओर, नगरीय आर्थिक
तंत्र अपनी एकजुटता से नीतियों को बदलने
में कामयाब रहा है. गुजरात बचाने के लिए जीएसटी की कुर्बानी इसका उदाहरण है. लेकिन
किसान अपनी फसल की कीमत देने के लिए सरकार को उस तरह नहीं झुका सके. अपेक्षाओं का
यह अंतरविरोध भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती होने वाला है.
बीस सरकारों की
जवाबदेही
भाजपा भारत के 75 फीसदी भूगोल, 68 फीसदी आबादी और 54 फीसदी
अर्थव्यवस्था पर राज कर रही है. पिछले 25 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने
पिछले तीन साल में जिस तरह की चुनावी राजनीति गढ़ी है, उसमें भाजपा के
हर अभियान के केंद्र में सिर्फ मोदी रहे हैं. 2019 में उन्हें केंद्र के साथ 19 राज्य सरकारों के कामकाज पर भी जवाब देने
होंगे.
क्या भाजपा की
राज्य सरकारें मोदी की सबसे कमजोर कड़ी हैं? पिछले तीन साल में मोदी के ज्यादातर मिशन जमीन पर बड़ा असर
नहीं दिखा सके तो इसके लिए उनकी राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं. गुजरात इसकी बानगी
है, जहां
प्रधानमंत्री मोदी के मिशन विधानसभा चुनाव में भाजपा के झंडाबरदार नहीं थे. '19 की लड़ाई से पहले
इन 19 सरकारों को बड़े
करिश्मे कर दिखाने होंगे. गुजरात ने बताया है कि लोग माफ नहीं करते बल्कि बेहद
कठोर इम्तिहान लेते हैं.
भाजपा जैसा
विपक्ष
वोटर का इंसाफ
लासानी है. अगर सत्ता से सवाल पूछता, लोगों की बात सुनता और गंभीरता से सड़क पर लड़ता विपक्ष दिखे
तो लोग मोदी के गुजरात में भी राहुल गांधी के पीछे खड़े हो सकते हैं. वे राहुल जो
उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कहीं कुछ भी नहीं
कर सके, उन्हें मोदी-शाह
के गढ़ में लोगों ने सिर आंखों पर बिठा लिया. भाजपा जैसा प्रभावी, प्रखर और निर्णायक
प्रतिपक्ष देश को कभी नहीं मिला. विपक्ष को बस वही करना होगा जो भाजपा विपक्ष में
रहते हुए करती थी. गुजरात ने बताया है कि लोग यह भली प्रकार समझते हैं कि अच्छी
सरकारें सौभाग्य हैं लेकिन ताकतवर विपक्ष हजार नियामत है.
चुनाव के संदर्भ
में डेविड-गोलिएथ के मिथक को याद रखना जरूरी है. लोकतंत्र में शक्ति के संचय के
साथ सत्तास्वाभाविक रूप से गोलिएथ (बलवान) होती जाती है. वह वैसी ही भूलें भी करती
है जो महाकाय गोलिएथ ने की थीं. लोकतंत्र हमेशा डेविड को ताकत देता है ताकि संतुलन
बना रह सके.
गुजरात ने गोलिएथ
को उसकी सीमाएं दिखा दी हैं और डेविड को उसकी संभावनाएं.
मुकाबला तो अब
शुरू हुआ है.