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Saturday, May 5, 2018

अच्छे दिनों की कमाई


अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि किसी सरकार को सहारा के रेगिस्तान की जिम्मेदारी दे दीजिएपांच साल बाद वहां रेत की कमी हो जाएगी... 


अपने आसपास के किसी भी पेट्रोल पंप परफ्रीडमैन के तंज की समानार्थी देशज बड़बड़ाहटें सुनी जा सकती हैं. पिछले चार साल में पेट्रोल-डीजल की सबसे ऊंची कीमत चुकाते हुए लोग उस बचत की तलाश में मुब्तिला हैं जो सस्ते तेल के अच्छे दिनों के दौरान सरकार को हुई थी.


अच्छे दिनों के जितने मुंह उतने मतलब हैंअलबत्ता  उन दिनों की इस पहचान पर कोई टंटा शायद नहीं होगा कि एक लंबे वक्‍त के बाद पूरे चार साल (2014 से 2018) तक कच्चे तेल की कीमतें ललचाने वाले स्तर तक कम थीं. उपभोक्‍ताओं के लिए पेट्रोल डीजल इस दौरान भी महंगा रहा क्‍यों कि सरकार ने पेट्रो परिवार पर दबा कर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई थी.

कितनी बचत या कमाई हुई थी सरकार कोकहां गई वहक्या तेल की बढ़ती कीमतों से सरकार हमें बचा पाएगी?

आइएआंकड़े फींचते हैं 

- वह 2014 की दूसरी छमाही थी जब तेल की घटती कीमतों का त्योहार (जुलाई 2008-132 डॉलरजून 2014-46 डॉलर प्रति बैरल) शुरू हुआ जो 2017-18 की आखिरी तिमाही तक चला. इसी दौरान सरकार ने पेट्रो उत्पादों की कीमतों को बाजार को सौंप दिया और कंपनियां कच्चे तेल और अन्य लागतों के हिसाब से कीमतों को रोज बदलने लगीं.

- कच्चा तेल सस्ता हुआ लेकिन पेट्रोल-डीजल नहीं क्योंकि 2017 तक सरकार ने पेट्रोल पर 21.5 रु. और डीजल पर 17.3 रु. प्रति लीटर की एक्साटइज ड्यूटी लगा दी थी.

- इस बढ़े हुए टैक्स के कारण 2017 में पेट्रो एक्साइज ड्यूटी का संग्रह जीडीपी के अनुपात में 1.6 फीसदी यानी पर पहुंच गया जो 2014 में केवल 0.7 फीसदी थी. यह पिछले दशकों में तेल पर रिकॉर्ड टैक्स संग्रह था.

- इस कमाई का इस्तेमाल हुआएक-14वें वित्त आयोग की सिफारिश के मुताबिक राज्यों को ज्यादा संसाधन आवंटन और दो-सरकारी कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग के भुगतान के लिए.

- सस्ते कच्चे तेल वाले अच्छे दिनों में दो और फायदे हुए. थोक (5.2 से 1.8%) और खुदरा ( 9.4 से 4.5%) महंगाई घट गई. साथ ही सस्ते आयात के चलते विदेशी मोर्चे पर राहत आई. विदेशी आय-व्यय का अंतर बताने वाला करेंट एकाउंट डेफिसिट कम हो गया

यह थी अच्छे दिनों की कमाई और उसका खर्च... अब बारी है महंगे तेल के साथ आगे की चढ़ाई की.

- कच्चे तेल की वर्तमान कीमत (74-75 डॉलर प्रति बैरल) में प्रति दस डॉलर से महंगाई में 0.50 फीसदी की बढ़ोतरी होगी क्योंकि पेट्रो उत्पाद महंगे होंगे

- दस डॉलर प्रति बैरल की प्रत्येक तेजी पर करेंट एकाउंट डेफिसिट में 0.60 फीसदी की बढ़त और रुपए में कमजोरी

- अब अगर महंगाई रोकनी है तो सरकार को एक्साइज ड्यूटी घटानी होगी यानी दो रु. प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी कमी से 280 अरब रु. के राजस्व का नुक्सान और केरोसिन व एलपीजी सब्सिडी में भारी इजाफा अलग से.

चुनावी चुनौती से भरपूर महंगे दिनों के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब राज्यों की मदद चाहिए.

- राज्यों को तेल की महंगाई रोकने के लिए वैट घटाना होगा. जो फायदा उन्हें मिला था वह लौटाना होगा. लेकिन यह असंभव है क्योंकि केंद्र से भरपूर मदद के बावजूद राज्यों की वित्तीय हालत बिगड़ती गई है

- पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की उम्‍मीद अब खत्म हो गई है. कीमतें बढ़ रही हैं और राजस्व में गिरावट रुकने की उम्मीद नहीं है

पिछले चार साल में सरकार ने सस्ते तेल पर भारी टैक्स थोपा लेकिन इस कमाई को संजोने का सूझबूझ भरा तरीका नहीं निकाला. जब दुनिया सस्ते कच्चे तेल का आनंद ले रही थी तब हम महंगा ईंधन इस उम्मीद से खरीद रहे थे कि सरकार जो टैक्स लगा रही है उससे आगे की मुश्किलें हल होंगी. लेकिन राजकोषीय आंकड़ों को कंघी करने से यह नजर आता है कि चार साल के दौरान वित्त मंत्री का सारा बजटीय कौशलदरअसलसस्ते कच्चे तेल और भारी टैक्स पर टिका था. सस्ते तेल के अच्छे दिन बीतते ही सब कुछ बदलने लगा है. 

तेल फिर खौल रहा है. इसमें उपभोक्ता भी झुलसेंगे और तेल कंपनियां भी. सरकारें चुनाव देखकर तेल की कीमतों की राजनीति करेंगी. 2014 के पहले भी यही तो हो रहा था.

हम बुद्धू लौट कर वापस घर आ गए हैं.  


कच्चा तेल जब सस्ता था तब सरकार ने खूब टैक्स लगायाअब हिसाब मांगने की बारी है


Monday, June 25, 2012

मुसीबतों का पॉवर हाउस



नियति के देवता ने अमेरिका व यूरोप की किस्मत में शायद जब अमीरी के साथ कर्ज लिखा था या अफ्रीका को खनिजों के खजाने के साथ अराजकता की विपत्ति भी बख्शी थी तो ठीक उसी समय भारत की किस्मत में भी उद्यमिता के साथ ऊर्जा संकट दर्ज हो गया था। अचरज है कि पिछले दो दशक भारत के सभी प्रमुख आर्थिक भूकंपों का केंद्र ईंधन और बिजली की कमी में मिलता है।  मसलन , महंगाई की जड़ में  महंगी (पेट्रो उत्पाद व बिजली)  ऊर्जा!, रुपये की तबाही की पीछे भारी ऊर्जा (पेट्रो कोयलाआयात ! बजटों की मुसीबत की वजह बिजली बोर्डों के घाटे!, बैंकों के संकट का कारण बिजली कंपनियों की देनदारी ! पर्यावरण के मरण की जिम्मेदार डीजली बिजली और अंततऊर्जा की किल्लत की वजह से ग्रोथ की कुर्बानी!....  ऊर्जा संकट का बड़ा  खतरनाक भंवर अर्थव्यवस्था की सभी ताकतों को एक एक कर निगल रहा है। और कारणों की छोडि़ये, हम तो अब तो  लक्षणों का इलाज भी नहीं कर पा रहे हैं।
कितने शिकार
2016 में कच्चा तेल ही नहीं बल्कि कोयले की दुनियावी कीमत बढ़ने पर भी हमारा दिल बैठने लगेगा। बारहवी पंचवर्षीय योजना का मसौदा व ताजा आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि चार साल बाद भारत (246 अरब टन के घरेलू भंडार के बावजूदअपनी जरुरत का एक चौथाई (करीब 23 फीसद) कोयला आयात करेगा। तब तक 80 फीसद तेल और 28 फीसद गैस की जरुरत के लिए विदेश पर निर्भर हो चुके होंगे। इस कदर आयात के बाद रुपये के मजबूत होने का मुगालता पालना बेकार है। महंगाई का ताजा जिद्दी दौर भी बिजली कमी की पीठ

Monday, May 30, 2011

कुर्बानी का मौसम

रा देखिये तो कि पेट्रो कीमतों के फफोले भूलकर आप दुनियावी बाजार के सामने सरकार की लाचारी पर किस तरह पिघल गए ? जरा गौर तो करिये कि तेल कंपनियों की बैलेंस शीट ठीक रखने के लिए कितने फख्र के साथ बलिदानी चोला पहन लिया। महसूस तो करिये सब्सिडीखोर होने की तोहमत से बचने के लिए आप सरकार के पेट्रो सुधारों पर किस अदा के साथ फिदा हो गए।..... गलती आपकी नहीं है, दरअसल यह मौसम ही कुर्बानी का है। बैंकों से लेकर बाजार तक और तेल कंपनियों से लेकर सरकार तक सब आम लोगों से ही कुर्बानी मांग रहे हैं, और हम भी कभी मजबूरी में तो कभी मौज में बहादुरी दिखाये जा रहे हैं। मगर इससे पहले कि शहादत का नया परवाना (पेट्रो कीमतों में अगली बढ़ोतरी ) आपके पास पहुंचे, सभी सिक्कों के दूसरे पहलू देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। पेट्रो उत्पादों पर टैक्स और सब्सिडी के तंत्र को सिरे से परखने की जरुरत बनती है क्योंभ कि पेट्रो कीमतों में हमाम में दुनिया अन्य देश भी हमारे जैसे ही हैं। इस असंगति से मगजमारी करने में कोई हर्ज नहीं है कि हजारों करोड़ की सब्सिडी बाबुओं जेब में डालने वाली सरकार, सब्सिडी को महापाप बताकर हमें महंगे पेट्रोल डीजल की आग में झोंक देती है। यह गुत्थी खोलने की कोशिश जरुरी है कि लोक कल्याणकारी राज्य के तहत बाजार में सरकार के हस्तक्षेप की जरुरत कब और क्योंी होती है। यह सवाल उठाने में हिचक कैसी कि देश की कथित जनप्रिय सरकारों को पेट्रोल पर टैक्स कम करने से किसने रोका है? और यह तलाशना भी आवश्यक है कि भारत में पेट्रो उत्पादों की मांग अन्य ऊर्जा स्रोतों की किल्लत के कारण बढ़ी है या सिर्फ ग्रोथ के कारण।
सब्सिडी का हमाम
पेट्रो सब्सिडी की हिमायत और हिकारत पर बहस से बेहतर है कि इसकी असलियत देखी जाए। पेट्रो सब्सिडी पर शर्मिंदा होने की जरुरत तो कतई नहीं है क्यों कि इस पृथ्वी तल पर हम अनोखे नहीं हैं, जहां सरकारें अंतरराष्ट्रीय पेट्रोकीमतों की आग पर सब्सिडी का पानी पर डालती हैं। आईएमएफ का शोध बताता है कि 2003 में पूरी दुनिया में पेट्रोलियम उत्पादों पर उपभोक्ता सब्सिडी केवल 60 अरब डॉलर थी जो 2010 में 250 अरब डॉलर पर पहुंच गई। 2007 से दुनिया की तेल कीमतों में आए उछाल के बाद सब्सिडी घटाने की मुहिम हांफने लगी और पूरी दुनिया अपनी जनता को सब्सिडी का मलहम