‘‘भविष्य हमेशा जल्दी आ जाता है और वह भी गलत क्रम में यानी कि भविष्य उस तरह कभी नहीं आता जैसे हम चाहते हैं.’’
मशहूर फ्यूचरिस्ट यानी भविष्य विज्ञानी (भविष्य वक्ता नहीं) एल्विन टॉफलर ने यह बात उन सभी समाजों के लिए कही थी जो यह समझते हैं कि वक्त उनकी मुट्ठी में है. भारतीय समाज की राजनीति बदले या नहीं लेकिन भारत के लिए उसके सबसे बड़े संसाधन या अवसर गंवाने की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है.
भारत बुढ़ाते हुए समाज की तरफ यात्रा प्रारंभ कर चुका है. अगले दस साल में यानी 2030 से यह रफ्तार तेज हो जाएगी.
भारत की युवा आबादी अगले एक दशक में घटने लगेगी. विभिन्न राज्यों में इस संक्रमण की गति अलग-अलग होगी लेकिन इस फायदे के दिन अब गिने-चुने रह गए हैं. सनद रहे कि पिछले दो-तीन दशकों में भारत की तरक्की का आधार यही ताकत रही है. इसी ने भारत को युवा कामगार और खपत करने वाला वर्ग दिया है.
2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण ने बताया है किः
- भारत की जनसंख्या विकास दर घटकर 1.3 फीसद (2011-16) पर आ चुकी है जो सत्तर-अस्सी के दशकों में 2.5 फीसद थी
- बुढ़ाती जनसंख्या के पहले बड़े लक्षण दक्षिण के राज्यों—हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में दिखने लगे हैं. अगर बाहर से लोग वहां नहीं बसे तो 2030 के बाद तमिलनाडु में जनसंख्या वृद्धि दर घटने लगेगी. आंध्र प्रदेश में यह शून्य के करीब होगी. अगले दो दशकों में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार में आबादी बढ़ने की दर आधी रह जाएगी
- टोटल फर्टिलिटी रेट यानी प्रजनन दर में तेज गिरावट के कारण भारत में 0-19 साल के आयु वर्ग की आबादी सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई है. देश में प्रजनन दर अगले एक दशक में घटकर 1 फीसद और 2031-41 के बीच आधा फीसद रह जाएगी, जो आज यूरोप में जर्मनी और फ्रांस की जनसंख्या दर के लगभग बराबर होगी
- 2041 तक 0-19 आयु वर्ग के लोग कुल आबादी में केवल 25 फीसद (2011 में 41 फीसदी) रह जाएंगे. तब तक भारत की युवा आबादी का अनुपात अपने चरम पर पहुंच चुका होगा क्योंकि कार्यशील आयु (20 से 59 वर्ष) वाले लोग आबादी का करीब 60 फीसद होंगे
- आर्थिक समीक्षा बताती है कि 2021 से 2031 के बीच भारत की कामगार आबादी हर साल 97 लाख लोगों की दर से बढ़ेगी जबकि अगले एक दशक में यह हर साल 42 लाख सालाना की दर से कम होने लगेगी
युवा आबादी की उपलब्धि खत्म होने को बेरोजगारी के ताजा आंकड़ों की रोशनी में पढ़ा जाना चाहिए. एनएसएसओ के चर्चित सर्वेक्षण (2018 में 6.1 फीसद की दर से बढ़ती बेकारी) में चौंकाने वाले कई तथ्य हैं:
- · शहरों में बेकारी दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा यानी 7.8 फीसद है. विसंगति यह कि शहरों में ही रोजगार बनने की उम्मीद है
- 2011 से 2018 के बीच खेती में स्वरोजगार पाने वाले परिवारों की संख्या बढ़ गई. लक्ष्य यह था कि शहरों और उद्योगों की मदद से खेती के छोटे से आधार पर रोजगार देने का बोझ कम होगा. यानी कि शहरों से गांवों की तरफ पलायन हुआ है बावजूद इसके कि गांवों में मजदूरी की दर पिछले तीन साल में तेजी से गिरी है
- कामगारों में अशिक्षितों और अल्पशिक्षितों (प्राथमिक से कम) की संख्या खासी तेजी से घट रही है. यानी कि रोजगार बाजार में पढ़े-लिखे कामगार बढ़ रहे हैं जिन्हें बेहतर मौकों की तलाश है
- लवीश भंडारी और अमरेश दुबे का एक अध्ययन बताता है कि 2004 से 2018 के बीच गैर अनुबंध रोजगारों का हिस्सा 18.1 फीसद से 31.8 फीसद हो गया. यानी कि रोजगार असुरक्षा तेजी से बढ़ी है. लगभग 68.4 फीसद कामगार अभी असंगठित क्षेत्र में हैं
- सबसे ज्यादा चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि देश में करीब लगभग आधे (40-45 फीसद) कामगारों की मासिक पगार 10 से 12,000 रुपए के बीच है. उनके पास भविष्य की सुरक्षा के लिए कुछ नहीं है
भारतीय जनसांख्यिकी में बुढ़ापे की शुरुआत ठीक उस समय हो रही है जब हम एक ढांचागत मंदी की चपेट में हैं, बेरोजगारों की बड़ी फौज बाजार में खड़ी है. भारत के पास अपने अधिकांश बुजर्गों के लिए वित्तीय सुरक्षा (पेंशन) तो दूर, सामान्य चिकित्सा सुविधाएं भी नहीं हैं.
सात फीसद की विकास दर के बावजूद रिकॉर्ड बेकारी ने भारत की बचतों को प्रभावित किया है. देश की बचत दर जीडीपी के अनुपात में 20 साल के न्यूनतम स्तर (20 फीसद) पर है. यानी भारत की बड़ी आबादी इससे पहले कि कमा या बचा पाती, उसे बुढ़ापा घेर लेगा
भारत बहुत कम समय में बहुत बड़े बदलाव (टॉफलर का ‘फ्यूचर शॉक’) की दहलीज पर पहुंच गया है. कुछ राज्यों के पास दस साल भी नहीं बचे हैं. हमें बहुत तेज ग्रोथ चाहिए अन्यथा दो दशक में भारत निम्न आय वाली आबादी से बुजुर्ग आबादी वाला देश बन जाएगा और इस आबादी की जिंदगी बहुत मुश्किल होने वाली है.