आदमी दो और खात्मे का खर्च 57 लाख करोड़ रुपये (1.3 ट्रिलियन डॉलर, अमेरिकी सरकार के मुताबिक) !!! और अगर स्वतंत्र आकलनों (अर्थशास्त्री जोसफ स्टिगलिज) को मानें तो ओसामा-सद्दाम निबटान परियोजना की लागत बैठती है 120 लाख करोड़ रुपये (तीन ट्रिलियन डॉलर)। अर्थात दूसरे विश्व युद्ध बाद सबसे कीमती लड़ाई। .. यकीनन यह इंसाफ बला का महंगा है । दस साल और कई देशों के जीडीपी से ज्यादा पैसा झोंकने के बाद का अंकल सैम जिस न्यांय पर झूम उठे हैं वह दरअसल आतंक पर जीत को नहीं बल्कि इस अद़ृश्य दुश्मन की ताकत को ज्यादा मुखर करता है। आतंक की आर्थिक कीमत का मीजान लगाते ही यह बात आइने की तरह साफ हो जाएगी कि आतंक को पोसना (पाकिस्तान, अफगानिस्तान) या आतंक से बचना (भारत) या फिर आतंक से आर-पार करना (अमेरिका इजरायल), में सफलताओं का खाता नुकसानों के सामने पिद्दी सा है। आतंक कब का एक आर्थिक विपत्ति भी बन चुका है मगर दुनिया इस दुश्मन से अंधी गली में अंदाज से लड़ रही है। उस पर तुर्रा यह कि इस जंग को किसी फतह पर खत्म नहीं होना है। इसलिए ओसामा व सद्दाम पर जीत से दुनिया निश्चिंत नहीं बल्कि और फिक्रमंद हो गई है। भारी खर्च और नए खतरों से भरपूर यह जीत दरअसल हार जैसी लगती है।
इंसाफ का हिसाब
अगर अमेरिका न होता तो ओसामा पाक डॉक्टरों की देख रेख में किडनी की बीमारी से मरा होता और सद्दाम बगदाद के महल में आखिरी सांस लेता। दो दुश्मनों को मारने पर 57 लाख करोड़ रुपये खर्च करना किस नत्थू खैरे के बस का है? इसके बावजूद आतंक ने अमीर अमेरिका से कम कीमत नहीं वसूली। एक ट्रिलियन डॉलर अर्थात 44 लाख करोड़ रुपये की चोट (संपत्ति की बर्बादी, मौतें और बीमा नुकसान आदि) देने वाले 9/11 के जिम्मेदार को सजा देने के लिए अमेरिका को दस साल और 444 अरब डॉलर फूंकने पड़े। दरअसल आतंक के खिलाफ 1.3 ट्रिलियन डॉलर की अंतरराष्ट्रीय अमेरिकी मुहिम तीन