जो दवा के नाम पर ज़हर देता है उस चारागर की तलाश भी पूरी हो गई है. इस साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग के हलफनामे के बाद इस
पर कोई शक नहीं बचा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड (चुनावी चंदे के बैंक कूपन) राजनैतिक दलों के जरिए काले धन को सफेद करने का तरीका हैं लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर नए खुलासे की रोशनी में भारत का सबसे बड़ा घोटाला (राजनैतिक चंदे) और वीभत्स हो उठा है.
ताजा दस्तावेज बताते हैं कि इस बॉन्ड का विरोध रिजर्व बैंक ने भी किया था और चुनाव आयोग ने भी. सरकार ने इन आपत्तियों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया और संसद को गुमराह किया. यह बॉन्ड केवल लोकसभा चुनाव के लिए थे लेकिन इन्हें विधानसभा चुनावों से पहले जारी किया गया. राजनीति को साफ करने के नाम पर लाए गए इस बॉन्ड ने पूरी प्रणाली को पहले से कहीं ज्यादा गंदला कर दिया है.
राजनैतिक चंदे के कुछ ताजा तथ्य हमें लोकतंत्र के प्रति विरक्ति और झुंझलाहट से भर देंगे.
1. चुनाव आयोग और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के अनुसार, 2004-05 में कंपनियों का राजनैतिक चंदा केवल 26 करोड़ रुपए था जो 2017-18 में 422 करोड़ रुपए पर पहुंच गया. यानी एक तरफ चुनाव महंगे हुए तो दूसरी तरफ कंपनियों ने अपनी तिजोरी खोल दी. 2017-18 में भाजपा को कंपनी चंदों का 92 फीसद हिस्सा मिला.
2. राजनैतिक दलों को 2,000 रुपए से कम चंदे का स्रोत सार्वजनिक न करने की छूट है, (2017 से पहले यह सीमा 20,000 रु. थी) इलेक्टोरल बॉन्ड से लिया-दिया गया चंदा भी गोपनीय है. इस तरह करीब 80 फीसद राजनैतिक चंदों का स्रोत कानूनन, लोकतंत्र से छिपाया जाता है.
3. बॉन्ड आने तक 2017-18 तक कंपनियों के इलेक्टोरल ट्रस्ट सबसे ज्यादा चंदा दे रहे थे. जिनसे कम से कम कम यह पता चल जाता है था कि चुनिंदा उद्योग समूहों के इलेक्टोरल ट्रस्ट किस पार्टी को कितना पैसा दे रहे हैं. 2018 के बाद कंपनियों ने इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 99.9 फीसद चंदा दिया है, जो गोपनीय है.
4. नोटबंदी के दौरान भी राजनैतिक दलों को चंदे में पुराने नोटों के इस्तेमाल पर विशेष रियायतें मिली थीं.
1969 में सरकार ने राजनैतिक दलों को कॉर्पोरेट चंदे पर पूरी तरह पाबंदी (कंपनी कानून की धारा 293 की समाप्ति) लगाई थी लेकिन बाद की सरकारें न केवल इस रिश्ते पर न्योछावर हो गईं बल्कि ये चंदे कंपनियों का प्रमुख जनकल्याण खर्च बन गए.
इस रहस्यमय लेनदेन का मर्म ताजा कानूनी करतबों में छिपा हैः
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एनडीए की पहली सरकार ने कंपनियों को राजनैतिक चंदे पर इनकम टैक्स में छूट (खर्च के मद में) दी थी. चंदों का समग्र लेनदेन टैक्स रडार से बाहर है
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इलेक्टोरल ट्रस्ट 1996 में शुरू हुए थे जिन्हें 2013 में कंपनी कानून के तहत वैधानिक बनाया गया जिससे यह गठजोड़ और मजबूत हो गया
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2017 से पहले तक कंपनियां पिछले तीन साल में अपने शुद्ध औसत लाभ का अधिकतम 7.5 फीसद हिस्सा ही सियासी चंदे के तौर पर दे सकती थीं. मोदी सरकार ने यह सीमा हटाकर खेल को पूरी तरह खोल दिया. कंपनियां अब किसी भी दल को कितना भी चंदा दे सकती हैं.
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2016 में विदेशी मुद्रा कानून (एफसीआरए) को उदार करते हुए विदेश स्रोत से राजनैतिक चंदा जुटाने की छूट मिली और 2018 में सरकार ने (जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव के जरिए) 1976 के बाद राजनैतिक दलों को सभी विदेशी चंदा जांच से बाहर कर दिया.
हम अनोखा लोकतंत्र बन चुके हैं, जहां आम लोगों को हर मोड़ पर अपनी ईमानदारी और वित्तीय पारदर्शिता साबित करनी होती है लेकिन सियासी चंदा प्रत्येक पड़ताल से बाहर है.
हाल में सरकार ने मंदी के बीच, उपभोक्ताओं को मदद की जरूरत नकार कर और घाटे का जोखिम लेकर कंपनियों को 1.5 लाख करोड़ रुपए की टैक्स रियायत दी. हमें नहीं पता कि कॉर्पोरेट चंदे पर चलने वाली राजनीति और इस रियायत में क्या रिश्ता है लेकिन दुनिया के तजुर्बे गवाह हैं कि कंपनियों और नेताओं के बीच यह लेनदेन कहीं भी मुफ्त नहीं है.
अमेरिका के स्वयंसेवी संगठन सनलाइट फाउंडेशन ने कंपनियों और सरकार के बीच लेनदेन के करीब 1.40 करोड़ दस्तावेज खंगाल (रिपोर्टः फिक्स्ड फॉरच्यून्स) कर यह बताया कि 2007 से 2012 के बीच अमेरिकी कंपनियों ने सरकार को 5.8 अरब डॉलर का राजनैतिक चंदा दिया और इसके बदले में उन्हें 4.4 खरब डॉलर के ठेके व कारोबारी अवसर प्राप्त हुए.
चंदों का सच आखिर हमसे क्यों छिपाया जा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा वोट अब लोकतंत्र को नहीं बल्कि इसके सबसे बड़े घोटाले को मजबूत कर रहा है!
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Monday, November 25, 2019
इस राजनीति के प्रायोजक हैं...
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