लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है।
भारत की चुनावी राजनीति का शिखर आने से पहले
आर्थिक राजनीति की ढलान आ गई है। देश केवल नई सरकार ही नहीं पिछले सुधारों में सुधार
और कुछ मौलिक प्रयोगों का इंतजार भी कर रहा था और उम्मीद थी कि ग्रोथ, रोजगार व बेहतर
जीवन स्तर से जुड़ी नई सूझ, चुनावी विमर्श का हिससा बनेगी लेकिन चुनावी बहसें अंतत:
एक तदर्थवादी और दकियानूसी आर्थिक सोच में फंसती जा रही है। भारत में सत्ता
परिवर्तन पर बड़े दांव लगा रहे ग्लोबल निवेशकों को भी यह अंदाज होने लगा है कि यहा
के राजनीतिक सूरमा चाहे जितना दहाड़ें लेकिन आर्थिक सुधारों की बात पर वह चूजों की तरह दुबक जाते हैं। सुधारों की
बाहें फटकारने वाली कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी को लेकर प्याज और पत्थर दोनों ही
खा लिये और यह साबित कर दिया सुधारों की बात उसने धोखे से कर दी थी। विदेशी निवेश जैसे
मुद्दों पर भाजपा का
अतीत तो वामपंथियों जैसा रहा है इसलिए आर्थिक सुधारों पर वह ज्यादा ही दब्बू व
भ्रमित दिख रही है। और चुनावी सियासत के नए सूरमा आम आदमियों के पास तो सुधारों की
सोच ही गड्मड्ड है। अधिसंख्य भारत जो बदले हुए परिवेश में नई सूझबूझ की बाट जोह
रहा था वह इन चुनावों को भी गंभीर आर्थिक मुद्दों
पर करतब व कौतुक के तमाशे में बदलता देख रहा है।
एलपीजी सब्सिडी की ताजी कॉमेडी सबूत है आर्थिक
सुधार भारत के लिए अपवाद ही हैं। कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी की प्रणाली किसी
दूरगामी सोच व तैयारी के साथ नहीं बदली थी। वह फैसला तो बीते साल उस वक्त हुआ, जब
भारत की रेटिंग पर तलवार टंगी थी और सरकार को सुधार करते हुए दिखना था। इसलिए पहले
छह और फिर नौ सिलेंडर किये गए। सरकार को उस वक्त भी यह नहीं पता था कि सब्सिडी
वाले नौ और शेष महंगे सिलेंडरों की यह राशनिंग प्रणाली कैसे लागू होगी और भोजन
पकाने के सिर्फ एकमात्र ईंधन पर निर्भर शहरी आबादी इसे कैसे अपनाएगी। वह फैसला
तात्कालिक सुधारवादी आग्रहों से निकला और बगैर किसी होमवर्क के लागू हो गया। सरकार
आधार और डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर स्कीम के जोश में थी इसलिए एक एलपीजी सब्सिडी
के एक अधकचरे फैसले को एक पायलट स्कीम से जोड़कर उपभोक्ताओं की जिंदगी मुश्किल
कर दी गई। लोग सब्सिडी पाने के लिए आधार नंबर व बैंक खाते की जुगत में धक्के खाने
लगे और गिरते पड़ते जब करीब 20 फीसद एलपीजी उपभोक्ताओं ने 291 जिलों में आधार से
जुड़े बैंक खाते जुटा लिये तो अचानक राहुल गांधी ने बकवास अध्यादेश की तर्ज पर
पूरी स्कीम खारिज कर दी। आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस अब वहीं खड़ी है
जहां वह 2009 के चुनाव के पहले थी।
सुधारों को लेकर कांग्रेस का यह करतब तो दस साल
से चल रहा है लेकिन भाजपा में सुधारों की सूझ को लेकर नीम अंधेरा ज्यादा चिंतित
करता है क्यों कि नरेंद्र मोदी के भाषण आर्थिक चुनौतियों की बहस को अक्सर अलादीन
के चिराग जैसे कौतुक में बदल देते हैं। आर्थिक सुधारों की बहस सब्सिडी, विदेशी
निवेश और निजीकरण के इर्द गिर्द घूमती रही है। यह तीन बड़े सुधार एक व्यापक पारदर्शिता
के ढांचे के भीतर आर्थिक बदलाव बुनियादी रसायन बनाते दिखते हैं। इन चारों मुद्दों पर
राजनीतिक सर्वानुमति कभी नहीं बनी । जबकि देशी विदेशी निवेशक भारत की अगली सरकार
को इन्ही कसौटियों पर कस रहे हैं। सब्सिडी की बहस राजकोष की सेहत सुधारने से लेकर
सरकारी भ्रष्टाचार तक फैली है। इस बहस में भाजपा का पिछला रिकार्ड कोई उम्मीद
नहीं जगाता। केंद्र में अपने एकमात्र कार्यकाल में भाजपा ने सब्सिडी को लेकर
निष्क्रिय रही जबक यूपीए राज के सब्सिडी सुधारो में भाजपा ने विपक्ष की लीक पीटी
क्यों कि उसकी राज्य सरकारें सब्सिडी के तंत्र को पोस रहीं हैं।
उदारीकरण के पिछले दो दशकों में विदेशी निवेश की बड़ी
भूमिका रही है लेकिन यह इस पहलू पर भाजपा का असमंजस ऐतिहासिक है। तभी तो क्यों कि
राजसथान की नई सरकार ने खुदरा में विदेशी निवेश का फैसला पलट दिया है। विदेशी
निवेश खिलाफ भाजपा की आक्रामक स्वदेशी मुद्रायें, भारत में निवेश क्रांति लाने के
नरेंद्र मोदी के दावों की चुगली खाती हैं। ठीक इसी तरह सरकारी उपक्रमों व सेवाओं
के निजीकरण पर भाजपा में सोच का कुहरा, निवेशकों को उलझाता है। पारदर्शिता, आर्थिक
विमर्श का नया कोण है। समाजवादी और निजी दोनों तरह की अर्थव्यवसथाओं का प्रसाद पा
चुके लोग अब भ्रष्टाचार के खात्मे को तरक्की से जोड़ते हैं और आर्थिक सुधारों पर
ऐसी बहस की चाहते हैं, जो आम लोगों के अनुभवों से जुड़ी हो और तर्कसंगत अपेक्षायें
जगाती है। भाजपा जब इस बहस के बदले बुलेट ट्रेन, नए शहरों व ब्रॉड बैंड नेटवर्क के
दावे करती है तो नारेबाजी की गंध पकड़ में आ जाती है।
देश में आर्थिक तरक्की राह में नए पत्थर अड़ गए
हैं जिन पर भाषणों के करतब कारगर नहीं होते। जमीन, खदान, स्पेक्ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधनों का पारदर्शी आवंटन, सस्ता कर्ज,
महंगाई में कमी, केंद्र व राज्य के बीच इकाईनुमा तालमेल, नियामकों की ताकत,
नेताओं के विवेकाधिकारों में कमी, छोटे कारोबार शुरु करने की सुविधा व लागत जैसे
जटिल मुद्दे सुधारों की बहस का नया पहलू
हैं जबकि अभी तो केंद्र सरकार के स्तर पर सब्सिडी, विदेशी निवेश व निजीकरण की पुरानी
बहसें ही हल होनी हैं। राज्यो में तो इन बहसों की शुरुआत तक नहीं हुई है। यही वजह
है कि चुनाव आते ही सियासी दल की अपनी उस आर्थिक हीनग्रंथि जगा दिया है जो जटिल बहसों
से उनकी रक्षा करती है। अभी तक के चुनावी विमर्श बता रहे हैं कि लोकलुभावन नीतियां
ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और
भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है। सब्सिडी भारत की लोकलुभावन राजनीति का
वह किनारा है जहां भाजपा व कांग्रेस की धारायें मिलकर एक हो जाती है और चुनाव के पहले
इस धारा में स्नान होड़ शुरु हो गई है। ठोस सुधारों के घाट पर कोई नहीं उतरना चाहता।