हम सरकार से सहमत
या असहमत हो सकते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था में ढलान से तो गाफिल नहीं होंगे.
माना कि सरकार ने
टैक्स (जीएसटी) थोपने में कोई मुरव्वत नहीं की फिर भी ढहती अर्थव्यवस्था की मदद की
खातिर अब शॉपिंग बैग उठाना ही पड़ेगा.
नोटबंदी के बाद
आर्थिक विकास दर क्यों
ढह गई!
सरकारें जब खुद को सर्वशक्तिमान मान लेती हैं तो नोटबंदी
जैसे हादसे होते हैं.
जीडीपी यानी
आर्थिक उत्पादन बाजार में उपलब्ध कुल
करेंसी और उस करेंसी के इस्तेमाल (करेंसी इन सर्कुलेशन+वेलॉसिटी ऑफ मनी) की दोस्ती
से बनता है. इस फॉर्मूले से हम समझ पाते हैं कि प्रत्येक रुपया कितना आर्थिक
उत्पादन (जीडीपी) करता है.
वेलॉसिटी ऑफ मनी
यानी रुपए का बार-बार इस्तेमाल खासा दिलचस्प है. एक डॉक्टर ने टैक्सी वाले को
सौ रुपए दिए. टैक्सी वाले ने वह सौ रुपए देकर खाना खाया. होटल वाले ने उस सौ रुपए
से मोबाइल चार्ज करा लिया और मोबाइल वाला वह सौ रुपए इलाज के लिए वापस उसी डॉक्टर
को दे आया. डॉक्टर के पास वापस आने तक वह सौ रुपए, चार सौ रुपए का कारोबार कर चुके
थे.
वेलॉसिटी ऑफ मनी
की जटिल गणना में नकद लेन-देन ही नहीं, बैंक अकाउंट से भुगतान और निवेश भी शामिल होता है. नकदी
तेजी से हाथ बदलती है, जबकि वित्तीय
निवेश धीमे चलते हैं. भारत में मनी की वेलॉसिटी, करेंसी के प्रवाह की तुलना में लगभग आठ गुना
ज्यादा है. हर नोट औसतन सात से आठ (ज्यादा भी) बार विनिमय में इस्तेमाल होता है.
सरकार नोट छापकर
या उन्हें कागज का टुकड़ा बनाकर (नोटबंदी), करेंसी के प्रवाह को तो नियंत्रित कर सकती है लेकिन सौ रुपए
का एक नोट कितनी बार (वेलॉसिटी) इस्तेमाल होगा, इस पर सरकार का कोई बस नहीं है.
मनी की वेलॉसिटी
अर्थव्यवस्था में डांडिया नाच की तरह है, जिसमें हर नाचने वाला दूसरे के साथ अपने उत्साह को चटकाता
है. वेलॉसिटी खरीद, उपभोग, निवेश से बढ़ती
है. यह अर्थव्यवस्था में विश्वास का उत्सव है जिससे मांग बढ़ती है.
सरकारें कभी-कभी
ऐसे समाधान लाती हैं जो समस्या से ज्यादा खतरनाक होते हैं. कुछ चूहों को निकालने
के लिए पूरे डांडिया पंडाल में नोटबंदी की जहरीली गैस छोड़ दी गई. नाचने वाले
निढाल होकर गिर गए. करेंसी के साथ ही वेलॉसिटी भी गई और जीडीपी ढह गया.
करेंसी तो
धीमे-धीमे वापस लौट रही है लेकिन गैस का असर इतना गहरा हुआ कि वेलॉसिटी का डांडिया
दोबारा चटकाने यानी खर्च करने का उत्साह खत्म (कंज्यूमर सर्वे-रिजर्व बैंक) हो गया
है. आज भी नकदी (करेंसी) की उपलब्धता नोटबंदी के पहले के स्तर से 20 फीसदी कम है.
डिजिटल पेमेंट काफी धीमे पड़ गए हैं लेकिन हैरत है कि नकदी की कमी सरकार के लिए
नोटबंदी की सफलता है!
सरकारें
अर्थव्यवस्था नहीं चलातीं. भारत का जीडीपी देश के लोगों की मेहनत और उपभोग से
बढ़ता है. निजी उपभोग के लिए होने वाला खर्च जीडीपी में 60 फीसदी का
हिस्सेदार है. जिन वर्षों में भारत ने सबसे अच्छी विकास दर दर्ज की है, उनमें लोगों का
उपभोग खर्च शानदार ऊंचाई पर था.
पिछले साल
नोटबंदी के दौरान, इसी कॉलम में
हमने लिखा था कि जीडीपी के अनुपात में नकदी करीब 12 फीसदी है, जिसके अधिकांश हिस्से का इस्तेमाल उपभोग खर्च में होता है.
नोटबंदी, जीडीपी की सांस
घोंटकर भारत की आर्थिक रफ्तार तोड़ देगी.
नोटबंदी के बाद
जीडीपी इसलिए ढहा क्योंकि देश के करोड़ों लोगों ने अपनी खपत सिकोड़ ली. नवंबर के
धमाके से पहले, अर्थव्यवस्था की
ढलान शुरू हो चुकी थी. नोटबंदी के तत्काल बाद खपत को जीएसटी ने दबोच लिया इसलिए
संकट गहरा गया है.
सरकार दो काम
करते-करते लगभग थक चुकी है.
· बजट से खूब खर्च
किया गया ताकि किसी तरह ढलान रोकी जा सके लेकिन करोड़ों उपभोक्ताओं के उपभोग का
विकल्प नहीं है.
· आर्थिक आंकड़ों
को खूब प्रोटीन पिलाया गया ताकि अर्थव्यवस्था को
बढ़ता दिखाया जा सके .लेकिन
सूरत संवारने में बिगड़ती चली गई.
चीनी दार्शनिक
लाओत्सु कहते थे, किसी महान देश
में सरकार चलाना छोटी मछली को पकाने जैसा होता है. ज्यादा हस्तक्षेप व्यंजन को
बिगाड़ देता है. नोटबंदी में यही हाल हुआ है.
अब जीडीपी को न
सस्ता कर्ज उबार सकता है और न सरकारी खर्च और विदेशी निवेश. ढहती अर्थव्यवस्था को
हमारे आपके खर्च की जरूरत है. हमारा उत्साह ही इसका इलाज है.
अपने आर्थिक
भविष्य के लिए खर्च करिए.
सरकार के भरोसे
मत बैठिए, सरकार अब आपके
भरोसे बैठी है.