क्या सरकारी बैंक ही बदकिस्मत हैं क्या वे ही कर्ज के ढेर में दबे हैं ? तो फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंस लिमिटेड (आइएलऐंडएफएस) को क्या हुआ?
कर्ज का मर्ज और खतरनाक होकर गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) तक फैल गया है. इन्हें तो बैंकों की तरह डिपॉजिट जुटाने की छूट भी नहीं है. ये तो उधार लेकर उधार देने के धंधे में हैं.
भारत की अर्थव्यवस्था कुछ जरूरी सुधारों की अनदेखी करने की बड़ी कीमत चुकाने की तरफ बढ़ रही है.
आइएलऐंडएफएस, सरकारी-निजी भागीदारी में बुनियादी ढांचा विकास की अगुआ कही जाती है जिसने सरकारी राजमार्गों समेत 1.8 लाख करोड़ रु. के प्रोजेक्ट्स को कर्ज दिया है. इसी अगस्त तक रेटिंग एजेंसियां और बाजार इस पर आंख मूंद कर भरोसा कर रहे थे लेकिन एक माह बाद वह कर्ज चुकाने में नाकाम पाई गई.
कंपनी करीब 91,000 करोड़ रु. के कर्ज में दबी है और ब्याज देने में चूक रही है. प्रोजेक्ट से रिटर्न नहीं आ रहा है. बीते सप्ताह जब कंपनी सरकारी बैंक सिडबी का 1,000 करोड़ रु. का कर्ज नहीं चुका सकी तो अफरा-तफरी मच गई. अगले छह माह में इसे 3,600 करोड़ रु. कर्ज चुकाने हैं. आइएलऐंडएफएस 169 शाखा कंपनियों और संयुक्त उपक्रमों वाला वित्तीय समूह है, सरकारी बीमा कंपनी एलआइसी और स्टेट बैंक जिसमें सबसे बड़े हिस्सेदार हैं.
यह आशंका पहले दिन से ही थी कि अगर एक मंदी लंबी खिंच गई तो गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का कारोबारी मॉडल घुटनों पर आ जाएगा. गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां बैंकों से कर्ज लेती हैं या कॉमर्शियल पेपर (औसतन एक साल की अवधि) के जरिए बाजार से कर्ज उठाती हैं. आखिर कर्ज लेकर कर्ज देने का मॉडल कैसे चलता?
इक्रा और बीसीजी (बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि हमारे नियामक और सरकार कैसी खुशफहमियों में जी रहे हैः
- · 2014 से 2017 के बीच कुल कर्ज में बैंकों का हिस्सा 49 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर आ गया जबकि एनबीएफसी का हिस्सा 21 फीसदी से बढ़कर 44 फीसदी हो गया. यानी बैंकों से कर्ज लेकर इन्होंने बैंकों से ज्यादा कर्ज बांट दिए.
- · इस साल मार्च के अंत तक इन कंपनियों ने करीब 7.5 खरब रु. का खुदरा कर्ज बांटा था. इनके कर्ज में अनसिक्योर्ड (गैर-जमानती) कर्ज (माइक्रोफाइनेंस, छोटे निजी लोन जैसे मोबाइल) सबसे तेजी से (40 से 53 फीसदी) से बढ़ रहे हैं. जानना जरूरी है कि अनसिक्योर्ड कर्ज सबसे ज्यादा जोखिम भरे होते हैं.
- · एनबीएफसी अपने 40 फीसदी संसाधन बैंकों के कर्ज से और 38 फीसदी बाजार से डिबेंचर के जरिए जुटाती है. इन पर बकाया बैंक कर्ज 27 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है. इस साल मार्च में यह एक लाख करोड़ रु. था. अगले छह माह में एनबीएफसी के 60 फीसदी डिबेंचर वसूली के लिए तैयार हैं. दूसरी तरफ, ब्याज दर बढऩे लगी है.
- · एनबीएफसी के कुल फंसा हुआ कर्ज उनके कुल कर्ज के अनुपात में 5.8 फीसद है और बैंकों के 11.8 फीसदी. यानी कि पूरा वित्तीय सिस्टम कर्ज के टाइम बम पर बैठा है.
· बैंकों के बाद एनबीएफसी के लडख़ड़ाने के तीन बड़े असर होने वाले हैः
- बैंकों के कर्ज वैसे भी ठप हैं, ऑटोमोबाइल (सबसे ज्यादा ट्रैक्टर), उपभोक्ता उत्पादों, छोटे उद्योगों को कर्ज की आपूर्ति और सीमित हो जाएगी, जिसका असर मांग पर नजर आएगा.
- · एनबीएफसी की मुसीबतों ने कर्ज के बाजार को तोड़ दिया है. निवेशकों ने बड़े पैमाने पर बिकवाली की है. अगर डिफॉल्ट बढ़ते हैं तो सबसे बड़ा असर म्युचुअल फंड पर होगा जो इन कंपनियों के कर्ज इश्यू में भारी निवेश करते हैं. छोटे निवेशक मार खाएंगे. शेयर बाजार टूटने से उनके हाथ पहले ही जल रहे हैं.
कौन कहता है कि भारत में चीन की तरह शैडो बैंकिंग नहीं है. कर्ज लेकर कर्ज देने का काम तब खूब चला जब तक मंदी नहीं थी. बस एक मंदी आई तो कर्ज संकट के पलीते सुलग उठे हैं. महान सुधारों के दावेदारों को बताना चाहिए कि पिछले चार साल में उन्होंने वित्तीय तंत्र में कौन से सुधार किए. बैंकों की बीमारी तो दूर हुई नहीं, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी संकट के घाट पहुंचने लगी हैं.
बैंकों को तो सरकार बचा लेगी लेकिन इन कंपनियों की मदद कौन करेगा? इनके डूबने से क्या बैंक और शेयर बाजार नहीं डूबेंगे? बैंकों से लेकर एनबीएफसी तक हर जगह आम लोगों की बचत ही दांव पर है.
यूरोप-अमेरिका के कर्ज संकट से तुलना डरावनी हो सकती है लेकिन हमने लीमैन संकट से कुछ नहीं सीखा. आर्थिक विपदाएं आम लोगों को ही मारती हैं, नेताओं की तो हमेशा पौ-बारह है.