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Monday, April 30, 2012

सफलता की शहादत

ए भारत के महानायक की कथा अब एक त्रासदी की तरफ बढ रही है। महानायक व्‍यक्ति ही हो, यह जरुरी नहीं है। अपने हाथ या जेब में मौजूद उस यंत्र को देखिये जिसे मोबाइल कहते हैं। यह उदार भारत की सबसे बड़ी सफलता और नए इंडिया सबसे अनोखी पहचान है। अफसोस, अब इसकी ट्रेजडी लिखी जा रही है। अगर क्रांतियां अच्‍छी होती हैं तो भारत के ताजा इतिहास में दूरसंचार से ज्‍यादा असरदार क्रांति कोई नहीं दिखती। अगर तकनीकें चमत्‍कारी होती हैं तो फिर इस चमतकार का कोई सानी नहीं है क्‍यों कि इस एकलौते मोबाइल ने करोड़ों की जिंदगी (जीवन पद्धति) से लेकर जेब (आय व कारोबार) तक सब कुछ बदल दिया। और यदि खुले बाजार फायदे का सौदा होते हैं, भारत में दूरसंचार बाजार के उदारीकरण से सफल केस स्‍टडी दुनिया में मिलना मुश्किल है। मगर अब यह पूरी क्रांति, करिशमा और फायदा सर बल खड़ा होने जा रहा है। सस्‍ती दरों और शानदार ग्रोथ से जगमगाती दूरसंचार क्रांति अब जिस तरफ बढ रही है वहां चालीस फीसद तक महंगी फोन कॉल, कम ग्राहक और कमजोर तकनीक वाला बिजनेस मॉडल इसका हमसफर होगा। मनमाने स्‍पेक्‍ट्रम राज और अंदाजिया नियामक (टीआरएआई की प्रस्‍तावित स्‍पेक्‍ट्रम दरें) की कृपा से मोबाइल बाजार की पूरी बाजी ही पलटने वाली है। अरस्‍तू ने ठीक ही लिखा था महानायकों की त्रासदी उनकी अपनी गलतियों निकलती है। दूरसंचार क्षेत्र में गलतियों का स्‍टॉक  तो कभी खत्‍म ही नहीं होता।
दमघोंट नीतियां
भारत अपनी सफलताओ का गला घोंटने में माहिर है। इसका अहसास हमें जल्‍द होगा जब मोबाइल बिल और रिचार्ज करंट मारने लगेगें,  मोबाइल कंपनियां बाजार छोड़ने लगेंगी (रोजगार घटें) और नेटवर्क की क्‍वालिटी खराब होगी। दूरसंचार क्षेत्र में नीतियों का तदर्थवाद और नियामकों के अबूझ तौर तरीके हमें इस मुकाम पर ले आए हैं। पहले भ्रष्‍ट मंत्रियों ने मनमाने कीमत पर स्‍पेक्‍ट्रम बांटा, जब सुप्रीम कोर्ट ने लाइसेंस रद (2जी घोटाला) किये तो टीआरएआई इतनी ऊंची कीमतों पर स्‍पेक्‍ट्रम बेचने की सूझ लेकर आई, कि बाजार का पूरा गणित ही बदल गया है। स्‍पेक्‍ट्रम (वायु तरंगे) मोबाइल संचार का कच्‍चा माल हैं। यह समझना बहुत मुश्किल है कि आखिर सरकार और नियामक मिल कर इस कच्‍चे माल को आज के मुकाबले 13 गुना कीमती पर क्‍यों

Monday, April 16, 2012

आंकड़ों का अधिकार

अंधेरे में निशाना लगाने की विद्या द्रोणाचार्यों और अर्जुनों के बाद समापत हो गई थी। विक्रमादित्‍य का वह अद्भुत सिंहासन भी फिर किसी को नहीं मिला जिस पर बैठने वाला गलत फैसले कर ही नहीं सकता। यही वजह है कि दुनिया नीति निर्माता कई टन आंकडों की रोशनी में नीति का निशाना लगाते हैं और सूझ व शोध के सहारे देश के बेशकीमती संसाधन बांटते हैं ताकि कोई गफलत न हो। दुनिया के हर देश आर्थिक और सामाजिक नीतियों के पीछे भरोसमंद और व्‍यापक आंकड़ों की बुनियाद होती है मगर भारत में ऐसा नहीं होता। भारत में आर्थिक सामाजिक आंकड़ों का पूरा तंत्र इस कदर लचर, बोदा, आधी अधूरी, लेट लतीफ और गैर भरोसमंद है कि इनसे सिर्फ भूमंडलीय बदनामी (औद्योगिक उत्‍पादन व निर्यात के ताजे आंकड़े) निकलती है। इन घटिया आंकड़ों पर जो नीतियां बनती हैं वह गरीबी या बेकारी नहीं हटाती बलिक संसाधन पचाकर भ्रष्‍टाचार को फुला देती है। जब हमारे पास इतना भरोसेमंद आंकड़ा भी नहीं है कि किससे टैक्‍स लिया जाना है और किसे सबिसडी दी जानी है तो रोजगार, खाद्य और शिक्षा के अधिकार बस केवल बर्बादी की गारंटी बन जाते हैं। भरोसेमंद और पारदर्शी आंकडे किसी स्‍वस्‍थ व्‍यवस्‍था का पहला अधिकार हैं, जो पता नहीं हमें मिलेगा भी या नहीं।
रांग नंबर
हंसिये मगर शर्मिंदगी के साथ। पता नहीं हम कितनी ज्‍यादा चीनी और कॉपर कैथोड बनाते हैं इसका सही हिसाब ही नहीं लगता। सरकार ने चीनी का उत्‍पादन 5.81 लाख टन बजाय 13.05 लाख टन मान लिया और जनवरी में औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक में 6.8 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी दर्ज की गई। जब गलती पकड़ी गई और उत्‍पादन वृद्धि दर घटकर 1.1 फीसदी पर आ गई। इसके साथ भारत में आंकड़ों की साख भी ढह गई क्‍यों कि इस आंकड़े से पूरी दुनिया भारत की ग्रोथ नापती है। कॉपर कैथोड के निर्यात का भी खेल निराला था 2011 में इसका निर्यात 444 फीसदी बढता दिखाया गय जिससे निर्यात 9.4 अरब डॉलर उछल गया। बाद में उछाल झूठ निकली और निर्यात का करिश्‍मा जमीन सूंघ गया। दरअसल भारत का पूरा आंकड़ा संग्रह ही मुगल कालीन

Monday, November 22, 2010

भ्रष्टाचार का मुक्त बाजार

अर्थार्थ
राजाओं, कलमाडिय़ों, मधु कोड़ाओं और ललित मोदियों के शर्मनाक संसार को देखकर क्या सोच रहे हैं ... यही न कि आर्थिक खुलेपन की हवा भ्रष्टाचार के पुराने इन्फेक्शन को खूब रास आ रही है ? वेदांतो, सत्यमों व तमाम वित्तीय कंपनियों के कुकर्मों में आपको एक आर्थिक अराजकता दिखती होगी। कभी कभी यह कह देने का मन होता होगा कि आर्थिक उदारीकरण ने भारत में भ्रष्टाचार का उदारीकरण कर दिया है !!.... माना कि यह ऊब, खीझ और झुंझलाहट है मगर बेसिर पैर नहीं है। मान भी लीजिये कि हम मुक्त बाजार की विकृतियों को संभाल नहीं पा रहे हैं। रिश्वत, कार्टेल, फर्जी एकाउंटिंग, कारपोरेट फ्रॉड, लॉबीइंग, नीतियों में मनमाना फेरबदल, ठेके, निजीकरण का इस्तेमाल .... उदार बाजार का हर धतकरम भारत में खुलकर खेल रहा है। राजा व कोड़ा जैसे नेताओं की नई पीढ़ी अब राजनीतिक अवसरों में कमाई की संभावनाओं को चार्टर्ड अकाउंटेंट की तरह आंकती है, इसलिए भ्रष्टाजचार भी अब सीधे नीतियों के निर्माण में पैठ गया है। सातवें आठवें दशक के नेता अपराधी गठजोड़ की जगह अब नेता-कंपनी गठजोड़ ले ली है। यह जोड़ी ज्यादा चालाक, आधुनिक, रणनीतिक, बेफिक्र और सुरक्षित है। मुक्त बाजार में ताली दोनों हाथ से बज रही है।
खुलेपन का साथ
मुट्ठी में दुनिया (मोबाइल) लिये घूम रही भारत की एक बड़ी आबादी को मालूम होना चाहिए कि यह सुविधा बहुतों की मुट्ठयां गरम होने के बाद मिली है। सुखराम से राजा तक, दूरसंचार क्षेत्र का उदारीकरण अभूतपूर्व भ्रष्टा्चार से दागदार है। सिर्फ यही क्यों पूंजी बाजार, खनन, अचल संपत्ति व निर्माण, बैंकिंग, वायु परिवहन, सरकारी अनुबंध ... हर क्षेत्र में उदारीकरण के बाद बडे घोटाले दर्ज हुए हैं। उदारीकरण और भ्रष्टाचार रिश्ते की सबसे बड़ी पेचीदगी यही है कि