कोई सरकार किसी देश के लोगों के लिए कितनी अच्छी साबित हुई है, इसे
मापने का सबसे आसान तरीका क्या है?
पहला—उस
देश के लोग आय और खर्च के अनुपात में कितना टैक्स (इनकम
टैक्स, कस्टम
ड्यूटी, जीएसटी, राज्यों के टैक्स) चुकाते
हैं?
दूसरा—बीते
कुछ दशकों में उनकी आय ज्यादा बढ़ी या टैक्स?
तीसरा—टैक्स
के बदले उन्हें सरकार से क्या मिलता है?
भारत में यह हिसाब लगाते ही आपको महसूस होगा कि अगर सरकार कोई कंपनी होती तो आप उस पर पैसा लेकर सेवा न देने
का मुकदमा कर देते.
क्या आपको पता है कि बीते एक दशक में भारत के आम परिवारों पर कितना टैक्स बढ़ा है?
आम लोगों के मुकाबले कंपनियों पर टैक्स का क्या हाल है?
महामारी और मंदी के दौरान भारतीय ही दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब क्यों हुए?
इन तीनों के सवालों के जवाब हमारे भविष्य के लिए अनिवार्य हैं लेकिन इससे पहले टैक्स को लेकर दिमागों के जाले साफ करना जरूरी है. अक्सर
टैक्स जीडीपी अनुपात (भारत 11.22 फीसद—2018) में विकसित देशों का ऊंचा औसत दिखाकर हमें शर्मिंदा किया जाता है. यह
अनुपात दरअसल आर्थिक
उत्पादन पर सरकार के राजस्व का हिसाब-किताब
है.
इनकम टैक्स देने वाले मुट्ठी भर लोग शेष आबादी को देश पर बोझ बताते हैं लेकिन टैक्स को प्रति व्यक्ति आय की रोशनी में देखना चाहिए. भारत
प्रति व्यक्ति आय के मामले में 122वें
नंबर वाला देश है. उसमें
भी 80 फीसद
आबादी की कमाई 20,000 रुपए मासिक (आइसीई 360 सर्वे) से
कम है तो इनकम टैक्स देने वाले अरबों की संख्या में नहीं होंगे.
टैक्स आय की जगह खर्च पर लगे, यह
कहकर जॉन लॉक्स और थॉमस हॉब्स ने 17वीं
सदी में टैक्स बहसों को आंदोलित कर दिया था. भारत
में सरकार को पता है कि अधिकांश
आबादी की कमाई टैक्स के लायक नहीं है इसलिए
उसकी खपत निचोड़ी जाती है.
2019 में केंद्र और राज्यों के कुल राजस्व का 65 फीसद
हिस्सा खपत पर लगने वाले टैक्स से आया. वह
टैक्स जो हर व्यक्ति चुकाता है जिसके दायरे में सब कुछ आता है. केंद्र
की कमाई में इनकम टैक्स का हिस्सा 17 फीसद
था.
किस पर बोझ
बीते एक दशक (2010 से 2020) के बीच भारतीय परिवारों पर टैक्स का बोझ 60 से
बढ़कर 75 फीसद
हो गया. इंडिया
रेटिंग्स के इस हिसाब से व्यक्तिगत आयकर और जीएसटी शामिल हैं. मसलन, बीते सात साल में पेट्रोल-डीजल
से टैक्स संग्रह 700 फीसद
बढ़ा है. यह
बोझ जीएसटी के आने के बाद बढ़ता रहा है जिसे लाने के साथ टैक्स कम होने वादा किया गया था.
इस गणना में राज्यों के टैक्स और सरकारी सेवाओं पर लगने वाली फीस शामिल नहीं है. वे
भी लगातार बढ़ रहे हैं
किसे राहत
उत्पादन या बिक्री पर लगने वाला टैक्स (जीएसटी) आम लोग चुकाते हैं. कंपनियां
इसे कीमत में जोड़कर हमसे वसूल लेती हैं. इसलिए
कंपनियों पर टैक्स की गणना उनकी कमाई पर लगने वाले कर (कॉर्पोरेशन
टैक्स) से
होती है. इंड-रा का अध्ययन बताता है कि 2010 में
केंद्र सरकार के प्रति सौ रुपए के राजस्व में कंपनियों से 40 रुपए
और आम लोगों से 60 रुपए
आते थे. 2020 में
कंपनियां केवल 25 रुपए
दे रही हैं और आम लोग दे रहे हैं 75 रुपए. याद रहे कि 2018 में
कॉर्पोरेट टैक्स में 1.45 लाख
करोड़ रुपए की रियायत दी गई है.
दुनिया के मुकाबले
कोविड वाली मंदी के दौरान (2020) दुनिया के प्रमुख देशों की तुलना में भारत के लोग सबसे ज्यादा गरीब हुए. ताजा
आंकड़े (एमओएसएल
ईकोस्कोप मई 2021) बताते
हैं, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की सरकारों ने अर्थव्यवस्था के नुक्सान को खुद उठाया और तरह-तरह
की मदद के जरिए परिवारों (रोजगार देने वाली कंपनियों की भी) की
कमाई में कमी नहीं होने दी. सरकारी
मदद से दक्षिण
अफ्रीका में भी आम परिवारों की आय सुरक्षित
रही. यूरोप
में भी 60 से 80 फीसद नुक्सान सरकारों ने उठाया.
भारतीय अर्थव्यवस्था की आय में कमी का 80 फीसद
नुक्सान परिवारों और निजी कंपनियों के खाते में गया. जब
अन्य देशों ने लोगों से वसूला गया टैक्स उनकी मदद में लगा दिया तो भारत में मंदी और बेकारी के बीच सरकार ने आम लोगों को ही निचोड़ लिया है.
भारतीय अर्थव्यवस्था उपभोक्ताओं पर केंद्रित है. भ्रष्ट
सरकारी तंत्र के जरिए खर्च कारगर नहीं है. मंदी
से उबरने के लिए आम लोगों पर टैक्स का बोझ घटाकर खपत बढ़ाना जरूरी है.
अगर हम जनकल्याण के लिए कंपनियों से ज्यादा टैक्स चुका रहे हैं तो वह कल्याण है कहां? कोविड
के दौरान ऑक्सीजन-दवा
तलाशते हुए लोग मर गए, सड़कों
पर भटके और बेकार होकर गरीबी में धंस गए.
सरकारों से टैक्स का हिसाब मांगना सबसे बड़ी देशभक्ति है क्योंकि बीते एक दशक में भारत के अधिकांश
परिवार ऐसे आदमी में बदल चुके हैं जो बाल्टी में बैठकर उसे हैंडल से उठाने की कोशिश
कर रहा है.