एक—हमारी ऊंची उम्मीदों के बरअक्स बजटों की उम्र लंबी नहीं होती. इसलिए दूसरी मोदी सरकार का पहला ही बजट छह माह में सिर के बल खड़ा (सरचार्ज टैक्स और उनकी वापसी) हो गया.
दो—एक बार फिर साबित हुआ कि अनिश्चितता सरकारी नीतियों के व्यंजन में आलू की तरह शामिल हो चुकी है.
इस मंदी के बीच जब उबरने की सरकारी कोशिशों का पिटारा और खजाना, दोनों ही खाली हैं तो 2020 के बजट से अपेक्षाओं की रवायत बदलने की जरूरत है. बजट क्या करे इससे ज्यादा जरूरी अब यह है कि बजट को क्या नहीं करना चाहिए, क्योंकि नोटबंदी, टैक्सों की आवाजाही और नीतियों की उठापटक से जली अर्थव्यवस्था अब किसी नई अनिश्चितता को झेल नहीं सकती.
मोदी सरकार के पिछले छह बजट ही हमें यह बताते हैं कि 2020-21 के बजट को क्या नहीं करना चाहिए तो देश के लिए बेहतर होगा.
• दुआ कीजिए कि वित्त मंत्री इंपोर्ट ड्यूटी यानी सीमा शुल्क में किसी तरह की बढ़ोतरी न करें. 2017 तक भारत में सीमा शुल्क घटता रहा था. उनके पूर्ववर्ती वित्त मंत्री ने स्वदेशी संरक्षणवाद में लपेट कर आयात महंगा करना शुरू किया. स्वदेशी तंबुओं में खुशी के बिगुल बज उठे, अलबत्ता भारत डब्ल्यूटीओ में मुकदमों में फंस गया और दुनिया के बाजारों में दीवारें ऊंची हो गईं.
स्वदेशी फिर जुटे हैं. बढ़ते घाटे के बहाने सीमा शुल्क बढ़ाया जा सकता है लेकिन अगर इस मंदी के बीच महंगे आयात के बोझ से बख्शा जाए तो देश शुक्रगुजार रहेगा.
• इनकम टैक्स कटौती के प्रतीकवाद की जरूरत नहीं है. वैसे भी देश की कुल कामगार आबादी में केवल एक फीसद लोगों को आयकर से फर्क पड़ता है. वित्त मंत्री आयकर में कोई बड़ी रियायत नहीं दे सकतीं, जब तक कि वे बचतों पर आयकर रियायत में कटौती न करें. बचतों पर टैक्स रियायत कम करने से छोटी बचत स्कीमों, म्युचुअल फंड, बीमा आदि में निवेश पर बड़ा असर पड़ेगा.
बेहतर होगा कि सरकार नए टैक्स कानून पर रिपोर्ट को सार्वजनिक करे और पूरे आयकर ढांचे में एकमुश्त बदलाव करे जिसका इंतजार लंबे समय से किया जा रहा है, न कि इनकम टैक्स में छोटी सी रियायत के बदले जीएसटी में बड़ी बढ़ोतरी कर दी जाए.
• हो सकता है कि घाटे का दबाव वित्त मंत्री को कॉर्पोरेट टैक्स में ताजा रियायत को कम करने या पिछले दरवाजे से किसी तरह नए सरचार्ज लगाने के लिए मजबूर करे, क्योंकि इस रियायत के अपेक्षित नतीजे नहीं आए हैं. लेकिन उन्हें इस दबाव को टालना होगा, नहीं तो टैक्स प्रणाली की बची-खुची साख भी कचरा हो जाएगी.
• राज्यों को मिलने वाले केंद्रीय संसाधनों और करों में हिस्से को काटने का प्रस्ताव वित्त मंत्रालय के गलियारों में तैर रहा है. जीएसटी काउंसिल में भाजपा शासित राज्यों की ताकत छीज चुकी है. विपक्ष के राज्यों को सियासी नसीहत देने का सुझाव कुलबुला रहा होगा लेकिन उम्मीद है कि वित्त मंत्री संयम बरतेंगी.
राज्यों को मिलने वाले संसाधनों में कटौती का सीधा मतलब होगा, जीएसटी में बढ़ोतरी, पेट्रोल-डीजल पर राज्यों में ज्यादा टैक्स, कई अन्य राज्य करों में बढ़त यानी मंदी में टैक्स की और ज्यादा मार.
• मंदी से निगाह हटाने के लिए नई स्कीमों का ऐलान आजमाया जा सकता है लेकिन मिशन और स्कीमों की झड़ी लग चुकी है, सीएजी की रिपोर्टें इनकी असफलता उघाड़ रही हैं. बजट के आंकड़ों की रोशनी में बड़े खर्च का कोई भी कार्यक्रम भरोसेमंद नहीं होगा. बेहतर होगा वित्त मंत्री स्कीमों का पुनर्गठन करें और कमाई बढ़ाने के एक या दो कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करें.
• कर्ज राहत पैकेज बेअसर हैं. बजट अगर उद्योग के लिए नए कर्ज राहत पैकेज की कोशिश नहीं करेगा तो बैंकों को बड़ी राहत होगी. इसके बजाए पिछले पैकेजों पर अमल का इंतजार किया जाना चाहिए.
• और अंत में पर्यावरण या पानी या फिर शिक्षा पर नए टैक्स लगाने के लिए कोई भी बहाना चुना जा सकता है लेकिन अगर यह बजट इस बार हमें बख्श सके तो यह सबसे अच्छा बजट होगा.
बीते बरस की आर्थिक समीक्षा (2018) ने करीब दस पन्नों में यह बात तफसील से समझाई थी कि जिंदगी जब हजार तरह की वजहों के चलते अनिश्चित हो तो सरकारी नीतियों को सबसे निश्चित और प्रत्याशित होना चाहिए लेकिन मजा देखिए कि इस समीक्षा का सहोदर पिछला बजट छह माह में ही शीर्षासन कर गया.
सनद रहे कि छह भारी-भरकम बजटों के बाद भी मंदी इसलिए आ धमकी क्योंकि पिछले छह साल में देश की अर्थव्यवस्था को चौंकाने वाली नीतियों ने हैरान किया है. अगर यह बजट अनिश्चितता के अपशकुन को सीमित रखने का उपक्रम कर सका तो इससे मंदी से उबरने में बड़ी मदद मिलेगी.
अगर वित्त मंत्री ने उद्योगों को ठीक सुना होगा तो उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन सुनाई पड़े होंगे जो कहते थे कि किसी भी भाषा के सबसे डरावने लफ्ज ये हैं कि ‘‘मैं सरकार से हूं और आपकी मदद करना चाहता हूं.’’