अथार्थ
इस बजट में अगर वित्तस मंत्री दस फीसदी विकास दर का दम भरें तो पलट कर खुद से यह सवाल जरुर पूछियेगा कि आखिर पांच फीसदी (सुधारों से पहले यानी 1989-90) से साढ़े आठ फीसदी तक आने में हम इतने हांफ क्यों गए हैं। ग्रोथ की छोटी सी चढ़ाई चढ़ने में ही गला क्यों सूख गया है, दो दशकों में सिर्फ तीन-चार फीसदी की छलांग इतनी भारी पड़ी कि कदम ही लड़खड़ा गए हैं। अचानक सब कुछ अनियंत्रित व अराजक सा होने लगा है। जमीन से लेकर अंतरिक्ष (एसबैंड) तक घोटालों की पांत खड़ी है। मांग महंगाई में बदलकर मुसीबत बन गई है। नियम, कानूनों और व्यवस्था की वाट लग गई है। शेयर बाजार अब तेज विकास का आंकड़ा देखकर नाचता नहीं बल्कि कालेधन की चर्चा और महंगाई से डर कर डूब जाता है। यह बदहवासी बदकिस्मंती नहीं बावजह और बाकायदा है। दरअसल विकास की रफ्तार सुधारों पर ही भारी पड़ी है अर्थव्यंवस्था छलांग मारकर आगे निकल गई और सुधार बीच राह में छूट ही नहीं बल्कि बैठ भी गए। आर्थिक सुधारों का खाता जबर्दस्त घाटे ( रिफॉर्म डेफिशिट) में है इसलिए बजट को अब विकास की रफ्तार से पहले इस सबसे बड़े घाटे यानी सुधारों की बैलेंस शीट बात करनी चाहिए। क्यों कि सुधारों का बजट बिगड़ने से उम्मींद टूटती है।
सुधारों का अंधकार
बीस साल की तेज वृद्धि दर अब उन रास्तों पर फंस रही है जहां हमेशा से सुधारों का घना अंधेरा है। भारत अब आपूर्ति के पहलू पर गंभीर समस्याओं में घिरा है यह समस्या रोटी दाल से लेकर उद्योगों के कच्चे माल तक की है। खेती में सुधारों की अनुपस्थिति का अंधेरा सबसे घना है। कृषि उत्पादो की आपूर्ति की कमी ने महंगाई को जिद्दी और अनियंत्रित बना दिया है। अगर बजट सुधारों पर आधारित होगा तो यह पूरी ताकत के साथ खेती में सुधार शुरु करेगा। खेती में अब सिर्फ आवंटन बढ़ाने या