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Friday, April 9, 2021

भरम गति टारे नहीं टरी

 


फिल्म अभि‍नेता अक्षय कुमार को कोविड होने की खबर सुनकर डब्बू पहलवान चौंक पड़े. डब्बू को बीते साल पहली लहर में उस वक्त कोरोना ने पकड़ा था, जब डोनाल्ड ट्रंप बगैर मास्क के घूम रहे थे. पहलवान को लगता था कि उनकी लोहा-लाट मांसपेशि‍यों और कसरती हड्डियों के सामने वायरस क्या टिकेगा? लेकिन कोविड से उबरने के बाद, डब्बू ने मोच उतारने की अपनी दुकान से यह ऐलान कर दिया अगर बगैर मास्क वाला आस-पास भी दिखा तो हड्डी तोड़कर ही जोड़ी जाएगी.

अक्षय कुमार को लेकर पहलवान की हैरत लाजिमी है. डब्बू भाई उन करोड़ों लोगों का हिस्सा हैं जो महामारी की शुरुआती लहरों में आशावादी पूर्वाग्रह (ऑप्टि‍मिज्म बायस) का शि‍कार होकर वायरस को न्योत बैठे थे. तब तक बहुत-से लोग यह सोच रहे थे उन्हें कोविड नहीं हो सकता लेकिन अक्षय कुमार के संक्रमित होने तक भारत कोविड से मारों की सूची में दुनिया में तीसरे नंबर पहुंचा चुका था. 

इसके बाद भी महामारी की और ज्यादा विकराल दूसरी लहर आ गई!

कैसे ?

डब्बू पहलवान तो सतर्क हो गए थे लेकिन सितंबर आते-आते लाखों लोग सामूहिक तौर पर उस अति आत्मविश्वास का शि‍कार हो गए जिसका नेतृत्व खुद सरकार कर रही थी. सरकारों ने लॉकडाउन लगाने और उठाने को कोविड संक्रमण घटने-बढऩे से जोड़ दिया जबकि प्रत्यक्ष रूप से लॉकडाउन लगने से कोविड संक्रमण थमने का कोई ठोस रिश्ता आज तक तय नहीं हो पाया.

यहां से भारत की कोविड नीति एक बड़े मनोविकार की चपेट में आ गई जिसे एक्स्पोनेंशि‍यल ग्रोथ बायस कहते हैं. हम समझते हैं कि बढ़त रैखि‍क है जबकि‍ रोज होने वाली बढ़त अनंत हो सकती है. आबादी,  चक्रवृद्धि ब्याज, बैक्टीरिया, महामारियां इसी तरह से बढ़ती हैं.

कहते हैं एक बादशाह से किसी व्यापारी ने अनोखे इनाम की मांग की. उसने कहा कि वह चावल का एक दाना चाहता है लेकिन शर्त यह कि शतरंज के हर खाने में इससे पहले खाने से दोगुने दाने रखे जाएं...64वें खाने का हिसाब आने तक पूरी रियासत में उगाया गया चावल कम पड़ गया!

कितना अनाज हुआ होगा इसका हि‍साब आप लगाइए...हम तो यह बताते हैं कि वैक्सीन उत्सव के बीच इस जनवरी में सरकार को तीसरे सीरो सर्वे की रिपोर्ट मिल चुकी थी. यह सर्वेक्षण कुल आबादी में संक्रमण की वैज्ञानिक पड़ताल है. मई-जून 2020 के बीच हुए पहले सीरो सर्वे में भारत में एक फीसद से कम आबादी संक्रमित थी. दूसरे सर्वे में (अगस्त-सितंबर 2020) 6.6 फीसद लोगों तक संक्रमण पहुंच गया था और इस फरवरी में जब सरकार के मुखि‍या चुनावी रैलियों में हुंकार रहे थे जब 21.7 फीसद आबादी तक यानी कि हर पांचवें भारतीय तक संक्रमण पहुंच चुका था. संक्रमण में मई से फरवरी तक, यह 21 गुना बढ़त थी यानी अनंत (एक्स्पोनेंशि‍यल) ग्रोथ.

यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिल्वानिया के शोधकर्ताओं (हैपलॉन, ट्रग और मिलरजून 2020) ने पाया कि कई देशों में सरकारें तीन बड़े सामूहिक भ्रम का शि‍कार हुई हैं.

सरकारों ने प्रत्यक्ष हानि (आइडेंटिफियबिल विक्टि‍म इफेक्ट) को रोकने की कामयाबी का ढोल पीटने के चक्कर में लंबे नुक्सानों को नजरअंदाज कर दिया. मौतें कम करने पर जोर इतना अधि‍क रहा कि जैसे ही मृत्यु दर घटी, सब ठीक मान लिया गया.

कोविड से निबटने की रणनीतियां प्रजेंट बायस का शि‍कार भी हुईं. कोविड के सक्रिय केस कम होने का इतना प्रचार हुआ कि जांच ही रुक गई. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में प्रवासी मजदूरों से संक्रमण फैलने की जांच किए बगैर भारत की मजबूत प्रतिरोधक क्षमता का जिंदाबाद किया जाने लगा.

कोविड घटने के प्रचार के बजाए संक्रमि‍तों की आवाजाही पर नजर रखने और टीकाकरण को उसी ताकत से लागू करना चाहिए था जैसे लॉकडाउन लगा था. अलबत्ता लॉकडाउन उठने के साथ पूरी व्यवस्था ही कोविड खत्म होने के महाभ्रम (बैंडवैगन इफेक्ट) का शि‍कार हो गई तभी तो बीते सितंबर में जब दुनिया में दूसरी लहर आ रही थी तब देश के नेता अपने आचरण से बेफिक्र होने लगे थे और मेले, रैलियों, बारातों के बीच लोग मास्क उतारकर कोविड को विदाई देने लगे.

सनद रहे कि भारत में कोविड से मौतें और सक्रिय केस कम (आंकड़े संदिग्ध) हुए थे, संक्रमण नहीं लेकिन लॉकडाउन हटने को कोविड पर जीत समझ लिया गया और सरकार भी वैक्सीन राष्ट्रवाद का बिगुल फूंकती हुई चुनाव के दौरे पर निगल गई.

सभी मनोभ्रम बुरे नहीं होते. सामूहिक अनुभव (एवेलेबिलिटी बायस) तजुर्बे के आधार पर खतरे को समय से पहले भांपने की ताकत देता है. इसी की मदद से कोरिया, ताईवान जैसे कई देशों ने सार्स की विभीषि‍का से मिली नसीहतों को सहेजते हुए खुद को कोविड से बचा लिया.

अलबत्ता, भारत जहां केवल बीते कुछ माह में 1.65 लाख मौतें हुईं थीं, वहां लोग और सरकार मिलकर संक्रमितों की दैनिक संख्या एक लाख रिकॉर्ड (4 अप्रैल 2021) पर ले आए. इस बार भी कोई मसीहा बचाने नहीं आया, हम खुद के ही हाथों फिर ठगे गए.

Friday, January 8, 2021

एक और अवसर

 


यह जो आपदा में अवसर नाम का मुहावरा है न, इसका मुलम्मा चाहे बिल्कुल उतर चुका हो लेकिन फिर भी आपदाओं को सलाम कि वे अवसर बनाने की ड‍्यूटी से नहीं चूकतीं.

आपको वैक्सीन कब तक मिलेगी और किस कीमत पर यह इस पर निर्भर होगा कि भारत का कल्याणकारी राज्य कितना कामयाब है? वेलफेयर स्टेट के लिए यह दूसरा मौका है. पहला अवसर बुरी तरह गंवाया गया था जब लाखों प्रवासी मजदूर पैदल गिरते-पड़ते घर पहुंचे थे और स्कीमों-संसाधनों से लंदी-फंदी सरकार इस त्रासदी को केवल ताकती रह गई थी.

विज्ञान और फार्मा उद्योग अपना काम कर चुके हैं. ताजा इतिहास में दुनिया का सबसे बड़ा सामूहिक वैक्सिनेशन या स्वास्थ्य परियोजना शुरू हो रही है. सवाल दो हैं कि एक, अधिकांश लोगों को आसानी से वैक्सीन कब तक मिलेगी और दूसरा, किस कीमत पर?

इनके जवाब के लिए हमें वैक्सीन राष्ट्रवाद से बाहर निकल कर वास्तविकता को समझना जरूरी है, ताकि वैक्सीन पाने की बेताबी को संभालते हुए हम यह जान सकें कि भारत कब तक सुरक्षित होकर आर्थिक मुख्यधारा में लौट सकेगा.

क्रेडिट सुइस के अध्ययन के मुताबिक, भारत को करीब 1.66 अरब खुराकों की जरूरत है.

विज्ञान और उद्योग ने वैक्सीन प्रोजेक्ट पूरा कर लिया है. भारत में करीब 2.4 अरब खुराकें बनाने की क्षमता है. इसके अलावा सिरिंज, वॉयल, गॉज आदि की क्षमता भी पर्याप्त है. पांच कंपनियां (अरबिंदो फार्मा, भारत बायोटेक, सीरम इंस्टीट्यूट, कैडिला और बायोलॉजिकल ई) इसका उत्पादन शुरू कर चुकी हैं. भारत के पास उत्पादन की क्षमता मांग से ज्यादा है. अतिरिक्त उत्पादन निर्यात के लिए है.

जब पर्याप्त वैक्सीन है तो समस्या क्या? सबसे बड़ी चुनौती वितरण तंत्र की है. जिन वैक्सीनों का प्रयोग भारत में होना है उन्हें 2 से -8 डिग्री पर सुरक्षित किया जाना है. चार कंपनियां, स्नोमैन, गतिकौसर, टीसीआइएल और फ्यूचर सप्लाइ चेन के पास यह कोल्ड स्टोरेज और परिहवन की क्षमता है. लेकिन वे अधिकतम 55 करोड़ खुराकों का वितरण संभाल सकती हैं जो भारत की कुल मांग के आधे से कम है.

यह कंपनियां टीकाकरण के अन्य कार्यक्रमों को सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं. वितरण की क्षमता बढ़ाए जाने की गुंजाइश कम है क्योंकि कोविड के बाद यह क्षमता बेकार हो जाएगी. अगर सब कुछ ठीक चला तो भी इस साल भारत में 40 से 50 करोड़ लोगों तक वैक्सीन पहुंचना मुश्किल होगा.

सरकारी और निजी आकलन बतात है कि वैक्सीन देने (दो खुराक) के लिए सरकारी व निजी स्वास्थ्य नेटवर्क के करीब एक करोड़ कर्मचारियों की जरूरत होगी. यानी नियमित स्वास्थ्य सेवाओं के बीच वैक्सीन के लिए लंबी कतारों की तैयारी कर लीजिए.

टीका लगने के बाद बात खत्म नहीं होती. उसके बाद ऐंटीबॉडी की जांच कोरोना वैक्सीन के शास्त्र का हिस्सा है. यानी फिर पैथोलॉजिकल क्षमताओं की चुनौती से रू--रू होना पड़ेगा.

भारत के मौजूदा वैक्सीन कार्यक्रम बच्चों के लिए हैं और सीमित व क्रमबद्ध ढंग से चलते हैं. यह पहला सामूहिक एडल्ट वैक्सीन कार्यक्रम है जिसमें कीमत और वितरण की चुनौती एक-दूसरे से गुंथी हुई हैं. यदि सरकार बड़े पैमाने पर खुद सस्ती वैक्सीन बांटती है तो वितरण की लागत उसे उठानी होगी. भारी बजट चाहिए यानी सबको वैक्सीन मिलने में लंबा वक्त लगेगा. सब्सिडी के बगैर वितरण लागत सहित दो खुराकों की कीमत करीब 5,000 रुपए तक होगी, हालांकि वितरण तंत्र पर्याप्त नहीं है. यानी कोरोना की संजीवनी उतनी नजदीक नहीं है जितना बताया जा रहा है. 

स्वास्थ्यकर्मियों के बाद वैक्सीन पाने के लिए 50 साल से अधिक उम्र के लोगों के चुनने के पैमाने में पारदर्शिता जरूरी है. वैक्सीन वितरण को भारत केवीआइपी पहलेसे बचाना आसान नहीं होगा. 

 मुमकिन है कि क्षमताओं व संसाधनों की कमी से मुकाबिल सरकार यह कहती सुनी जाए कि सबको वैक्सीन की जरूरत ही नहीं है लेकिन उस दावे पर भरोसा करने से पहले यह जान लीजिएगा कि भारत में कोविड पॉजिटिव का आंकड़ा संक्रमण की सही तस्वीर नहीं दिखाता है. अगस्त से सितंबर के बीच 21 राज्यों के 70 जिलों में हुए सीरो सर्वे के मुताबिक, कोविड संक्रमण, घोषित मामलों से 25 गुना ज्यादा हो सकता है. यानी वैक्सीन की सुरक्षा का कोई विकल्प नहीं है.

भारत की वैक्सीन वितरण योजना को अतिअपेक्षा, राजनीति और लोकलुभावनवाद से बचना होगा. यह कार्यक्रम लंबा और कठिन है. सनद रहे कि केवल 27 करोड़ की आबादी वाला इंडोनेशिया अगले साल मार्च तक अपने 50 फीसद लोगों को टीका लगा पाएगा.

हमें याद रखना चाहिए कि भारत अनोखी व्यवस्थाओं वाला देश है जो कुंभ मेले जैसे बड़े आयोजन तो सफलता से कर लेता है लेकिन लाखों प्रवासी श्रमिकों को घर नहीं पहुंचा पाता या सबको साफ पानी या दवा नहीं दे पाता. इसलिए वैक्सीन मिलने तक 2020 को याद रखने में ही भलाई है.

Friday, January 1, 2021

तकनीक की तिजोरी

 


लॉकडाउन के साथ ही सुयश की पढ़ाई छूट गई, न स्मार्ट फोन न इंटरनेट.

दिल्ली की दमघोंट सुबहों में घरों में काम करने वाली उसकी मां खांसते हुए बताती है कि साहब के घर पानी ही नहीं, हवा साफ करने की मशीन भी है. काम तलाश रहे सुयश के पिता को यह तो मालूम है कि आने वाले दिनों में कोविड वैक्सीन लगे होने की शर्त पर काम मिलने की नौबत आ सकती है लेकिन यह नहीं मालूम कि वह अपने पूरे परिवार के लिए कोविड वैक्सीन खरीद भी पाएंगे या नहीं.

कोविड के बाद की दुनिया में आपका स्वागत है.

21वीं सदी का तीसरा दशक सबसे पेचीदा उलझन के साथ शुरू हो रहा है. महामारी के बाद की इस दुनिया में तकनीकों की कोई कमी नहीं है. लेकिन बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होगी जो जिंदगी बचाने या बेहतर बनाने की बुनियादी तकनीकों की कीमत नहीं चुका सकते. जैसे कि भारत में करीब 80 फीसद छात्र लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन कक्षाओं में हिस्सा नहीं (ऑक्सफैम सर्वेक्षण) ले सके.

फार्मास्यूटिकल उद्योग ने एक साल से भी कम समय में वैक्सीन बनाकर अपनी क्षमता साबित कर दी. करोड़ों खुराकें बनने को तैयार हैं. लेकिन बहुत मुमकिन है कि दुनिया की एक बड़ी आबादी शायद कोविड की वैक्सीन हासिल न कर पाए. महंगी तकनीकों और उन्हें खरीदने की क्षमता को लेकर पहले से उलझन में फंसे चिकित्सा क्षेत्र के लिए वैक्सीन तकनीकी नहीं बल्कि आर्थि-सामाजिक चुनौती है. भारत जैसे देशों में जहां सामान्य दवा की लागत भी गरीब कर देती हो वहां करोड़ों लोग वैक्सीन नहीं खरीद पाएंगे और कितनी सरकारें ऐसी होंगी जो बड़ी आबादी को मुफ्त या सस्ती वैक्सीन दे पाएंगी.

वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां पेटेंट के नियमों पर अड़ी हैं. रियायत के लिए डब्ल्यूटीओ में भारत-दक्षिण अफ्रीका का प्रस्ताव गिर गया है. कोवैक्स अलायंस और ऐस्ट्राजेनेका की वैक्सीन के सस्ते होने से उम्मीद है लेकिन प्रॉफिट वैक्सीन बनाम पीपल्स वैक्सीन का विवाद अभी सुलझा नहीं है.

विकासशील देशों को सस्ती वैक्सीन मिलने की उम्मीद कम ही है. सरकारें अगर लागत उठाने लगीं तो बजट ध्वस्त, नया भारी कर्ज और नए टैक्स. ऊपर से अगर इन देशों को वैक्सीन देर से मिली तो अर्थव्यवस्थाओं के उबरने में समय लगेगा.

वैक्सीन का विज्ञान तो जीत गया लेकिन अर्थशास्त्र बुरी तरह फंस गया है. 

आरोग्य सेतु ऐप की विफलता और लॉकडाउन के दौरान बढ़ी अशिक्षा के बीच करीबी रिश्ता है. भारत में अभी भी करीब 60 फीसद फोन स्मार्ट नहीं हैं यानी फीचर फोन हैं. आरोग्य सेतु अपने तमाम विवादों के अलावा इसलिए भी नहीं चल सका कि शहर से गांव गए अधिकांश लोग के पास इस ऐप्लिकेशन को चलाने वाले फोन नहीं थे.

जिस ऑनलाइन शिक्षा को कोविड का वरदान कहा गया उसने 80 फीसद भारतीय छात्रों एक साल पीछे कर दिया, क्योंकि या तो उनके पास स्मार्ट फोन नहीं थे या इंटरनेट. ग्रामीण इलाकों में बमुश्कि 15 फीसद लोगों के पास ही नेट कनेक्टिविटी है. भारत की आधी आबादी के पास इंटरनेट की सुविधा नहीं है. और यदि उन्हें इंटरनेट मिल भी जाए तो केवल 20 फीसद लोग डिजिटल सेवाओं का इस्तेमाल (सांख्यिकी मंत्रालय) कर सकते हैं.

मुसीबत तकनीक की नहीं बल्किउसे खरीदने की क्षमता है. इसलिए दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में एक दिल्ली में अधिकांश आबादी उन लोगों की तुलना में पांच से दस साल कम (न्यूयार्क टाइम्स का अध्ययन) जिएंगे जिनके पास एयर प्यूरीफायर हैं. 

अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष आर्थिक बेहतरी मापने के लिए एक नए सूचकांक का इस्तेमाल कर रहा है जिसे वेलफेयर मेज़र इंडेक्स कहते हैं. उपभोग, खपत, जीवन प्रत्याशा, मनोरंजन और खपत असमानता इसके आधार हैं. 2002 से 2019 के बीच भारत जैसे विकासशील देशों की वेलफेयर ग्रोथ करीब 6 फीसद रही है जो उनके प्रति व्यक्तिवास्तविक जीडीपी से 1.3 फीसद ज्यादा है यानी कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया.

कोविड के बाद इस वेलफेयर ग्रोथ में 8 फीसद की गिरावट आएगी. यानी जिंदगी बेहतर करने पर खर्च में कमी होगी. 

चिकित्सा, शिक्षा, पर्यावरण, संचार में तकनीकों की कमी नहीं है लेकिन इन्हें सस्ता करने के लिए बड़ा बाजार चाहिए लेकिन आय कम होने और गरीबी बढ़ने से बाजार सिकुड़ रहा है इसलिए जिंदगी बचाने और बेहतर बनाने की सुविधा बहुतों को मिल नहीं पाएंगी.

यह नई असमानता की शुरुआत है. यहीं नहीं कि कोविड के दौरान कंपनियों की कमाई बढ़ी और रोजगार कम हुए बल्कि अप्रैल से जुलाई के बीच भारत के अरबपतियों की कमाई में 423 अरब डॉलर का इजाफा हो गया.

तकनीकों की कमी नहीं है. अब, सरकार को लोगों की कमाई बढ़ाने के ग्लोबल प्रयास करने होंगे नहीं तो बहुत बड़ी आबादी आर्थिक असमानता की पीठ पर बैठकर तकनीकी असमानता की अंधी सुरंग में उतर जाएगी, जिसके बाद तेज ग्रोथ लंबे वक्त के लिए असंभव हो जाएगी. कोविड के बाद जिन नई तकनीकों में भविष्य देखा जा रहा है वह भविष्य केवल मुट्ठी भर लोगों का हो सकता है.

 

Friday, April 17, 2020

असंभव के विरुद्ध




कोरोना के कहर से निजात कब मिलेगी? इसे तो डोनाल्ड ट्रंप या शी जिनपिंग तय कर सकते हैं और नरेंद्र मोदी. हमारी जिंदगी कब सहज और स्वतंत्र हो सकेगी, यह तय करने वाले तो कोई दूसरे ही हैं जो कैमरे की चमक और खबरों की उठापटक से दूर ऐसे अनोखे मिशन पर लगे हैं जो दुनिया ने इससे पहले कभी नहीं देखा.
कोरोना से हमारी लड़ाई में जीत का दारोमदार टीवी पर धमक पड़ने वाले नेताओं पर नहीं बल्कि दुनिया के दवा उद्योग पर है जो यकीनन ज्ञान और क्षमताओं के शिखर पर बैठा है. लेकिन इस समय जो काम इसे मिला है उसमें अगर सफलता मिली तो बीमारियों से हमारी जंग का तरीका बदल जाएगा.
11 जनवरी नॉवेल (नए) कोरोना वायरस का जेनेटिक (अनुवांशि) क्रम जारी (चीन से) होने के बाद, विश्व की दवा कंपनियां मिशन इम्पॉसिबिल पर लग गई हैं.

उनके दो लक्ष्य हैं

एक, कम से कम समय में कोरोना की दवा विकसित करना ताकि पीडि़तों का इलाज हो सके.

और दूसरा, कोरोना की वैक्सीन तैयार करना.

दवाएं और वैक्सीन बनाना चुनावी नारे उछालने जैसा नहीं है इसलिए कोरोना से ताल ठोंकता फार्मास्यूटिकल उद्योग किसी फंतासी फिल्म में बदल गया है. वह समय के विरुद्ध भागते हुए दुनिया को प्रलय से बचाने की जुगत में लगा है.

दवाएं तैयार करने की होड़ पेचीदा और दिलचस्प है. वायरल बीमारी का इलाज आसान नहीं है. वायरस (विषाणु) मानव कोशिका का इस्तेमाल कर अपनी संख्या बढ़ाते हैं. वायरस से प्रभावित कोशिकाओं को बचाते हुए दवा बनाना टेढ़ी खीर है. कुछ वायरल रोगों (एचआइवी, हरपीज, हेपेटाइटिस बी, इन्फ्लुएंजा, हेपेटाइटिस-सी) की दवाएं उपलब्ध हैं. लेकिन वायरस अपने जेनेटिक स्वरूप को जल्द ही बदल लेते हैं इसलिए दवाओं के असर जल्द ही खत्म हो जाते हैं.

आमतौर पर दवाएं विकसित करने में कई वर्ष लगते हैं लेकिन केवल दो माह के भीतर दुनिया भर में कोविड-19 की करीब 55 दवाएं विकास और परीक्षण के अलग-अलग चरणों में पहुंच गईं है. यह इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 20 मार्च को भारत समेत 15 देशों में दवाओं के परीक्षण की इजाजत दे दी. 28 मार्च को नॉर्वे और स्पेन में मरीजों को परीक्षण के लिए चुन भी लिया गया.

कोविड के मुकाबले में दवा उद्योग ने नई दवाओं पर वक्त लगाने की बजाए मौजूदा दवाओं कीरिपरपजिंग’ (पुरानी दवा का नया प्रयोग) को चुना. अब ऐंटीवायरल, प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी और ऐंटीबॉडी उपचार, इन तीन वर्गों में दवाएं बन रही हैं. निवेश बैंक स्पार्क कैपिटल की एक रिसर्च बताती है कि अगर सब कुछ ठीक रहा तो सितंबर तक पहली खेप बाजार में जाएगी.

दवाओं के विकास में तेजी के बावजूद अंतिम इलाज तो वैक्सीन यानी टीका ही है, हालांकि वैक्सीन की सफलताओं का पिछला रिकॉर्ड कुछ असंतुलित है. करीब पंद्रह बीमारियों की वैक्सीन उपलब्ध हैं, जिनमें छोटी चेचक और पोलियो पर जीत वैक्सीन से ही मिली है. लेकिन एचआइवी, निपाह, हरपीज, सार्स, जीका जैसी बीमारियों पर वैक्सीन ने बहुत असर नहीं किया. वायरस जल्द ही अपनी चरित्र बदल (म्यूटेट) लेते हैं इसलिए वैक्सीन निष्प्रभावी हो जाती है.

अलबत्ता दवा उद्योग अभूतपूर्व ढंग से कोविड की वैक्सीन बनाने में जुटा है. डब्ल्यूएचओ की सूची के अनुसार दुनिया में 44 वैक्सीन एक साथ बन रही हैं. ब्लूमबर्ग के मुताबिक, अमेरिका की एक कंपनी ने तो जनवरी में कोरोना का जेनेटिक कोड मिलने के बाद मार्च में एक मरीज पर पहला परीक्षण भी कर लिया.

तेज विकास के लिए मॉडर्न और फाइजर सहित कई कंपनियां आरएनए तकनीक का इस्तेमाल कर रही हैं. यह तकनीक जोखि भरी है. बीमारी बढ़ा भी सकती है. दूसरे, वैक्सीन सफल ही हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है लेकिन दवा कंपनियां जीत के प्रति आश्वस्त हैं. कोविड की वैक्सीन बनने में कम से कम डेढ़ साल का वक्त लगेगा. 

मुश्किल दवा या वैक्सीन बनाने तक सीमित नहीं है. बहुत बड़े पैमाने पर बहुत तेज उत्पादन भी चाहिए. पहली खुराकें डॉक्टरों, नर्सों को, दूसरी बच्चों महिलाओं को, फिर ज्यादा जोखि वाले लोगों को और सबको मिलेंगी. पूरी दुनिया को करोड़ों खुराकें चाहिए.

कोविड-19 अपने पूर्वजों (सार्स, एमईआरएस) की तुलना में कहीं ज्यादा संक्रामक है इसलिए वैक्सीन के अलावा विकल्प भी नहीं है. हर्ड इम्यूनाइजेशन यानी अधिकांश लोगों को वैक्सीन लगाकर ही इसे रोका जा सकता है. तीन महीने की तबाही के बाद यह तय हो चुका है जब तक वैक्सीन नहीं आएगी दुनिया की आवाजाही सामान्य नहीं होगी और ही विश्व को कोरोना मुक्त घोषि किया जा सकेगा. 

इसलिए दवा बनने तक बच कर रहिए और दम साध कर कोविड से फार्मास्यूटिकल उद्योग का यह रोमांचक मुकाबला देखिए. जीत के अलावा हमारे सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं है.