फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार को कोविड
होने की खबर सुनकर डब्बू पहलवान चौंक पड़े. डब्बू को बीते साल पहली लहर में उस वक्त
कोरोना ने पकड़ा था, जब
डोनाल्ड ट्रंप बगैर मास्क के घूम रहे थे. पहलवान को लगता था कि उनकी लोहा-लाट
मांसपेशियों और कसरती हड्डियों के सामने वायरस क्या टिकेगा? लेकिन कोविड से उबरने के बाद, डब्बू ने मोच उतारने की अपनी दुकान से
यह ऐलान कर दिया अगर बगैर मास्क वाला आस-पास भी दिखा तो हड्डी तोड़कर ही जोड़ी
जाएगी.
अक्षय कुमार को लेकर पहलवान की हैरत लाजिमी है. डब्बू भाई उन करोड़ों लोगों का हिस्सा हैं जो महामारी की शुरुआती लहरों में आशावादी पूर्वाग्रह (ऑप्टिमिज्म बायस) का शिकार होकर वायरस को न्योत बैठे थे. तब तक बहुत-से लोग यह सोच रहे थे उन्हें कोविड नहीं हो सकता लेकिन अक्षय कुमार के संक्रमित होने तक भारत कोविड से मारों की सूची में दुनिया में तीसरे नंबर पहुंचा चुका था.
इसके बाद भी महामारी की और ज्यादा विकराल दूसरी लहर आ गई!
कैसे ?
डब्बू पहलवान तो सतर्क हो गए थे लेकिन
सितंबर आते-आते लाखों लोग सामूहिक तौर पर उस अति आत्मविश्वास का शिकार हो गए
जिसका नेतृत्व खुद सरकार कर रही थी. सरकारों ने लॉकडाउन लगाने और उठाने को कोविड
संक्रमण घटने-बढऩे से जोड़ दिया जबकि प्रत्यक्ष रूप से लॉकडाउन लगने से कोविड
संक्रमण थमने का कोई ठोस रिश्ता आज तक तय नहीं हो पाया.
यहां से भारत की कोविड नीति एक बड़े
मनोविकार की चपेट में आ गई जिसे एक्स्पोनेंशियल ग्रोथ बायस कहते हैं. हम समझते
हैं कि बढ़त रैखिक है जबकि रोज होने वाली बढ़त अनंत हो सकती है. आबादी, चक्रवृद्धि ब्याज, बैक्टीरिया, महामारियां इसी तरह से बढ़ती हैं.
कहते हैं एक बादशाह से किसी व्यापारी
ने अनोखे इनाम की मांग की. उसने कहा कि वह चावल का एक दाना चाहता है लेकिन शर्त यह
कि शतरंज के हर खाने में इससे पहले खाने से दोगुने दाने रखे जाएं...64वें खाने का हिसाब आने तक पूरी रियासत
में उगाया गया चावल कम पड़ गया!
कितना अनाज हुआ होगा इसका हिसाब आप
लगाइए...हम तो यह बताते हैं कि वैक्सीन उत्सव के बीच इस जनवरी में सरकार को तीसरे
सीरो सर्वे की रिपोर्ट मिल चुकी थी. यह सर्वेक्षण कुल आबादी में संक्रमण की
वैज्ञानिक पड़ताल है. मई-जून 2020 के
बीच हुए पहले सीरो सर्वे में भारत में एक फीसद से कम आबादी संक्रमित थी. दूसरे
सर्वे में (अगस्त-सितंबर 2020) 6.6 फीसद लोगों तक संक्रमण पहुंच गया था और इस फरवरी में जब सरकार के
मुखिया चुनावी रैलियों में हुंकार रहे थे जब 21.7 फीसद आबादी तक यानी कि हर पांचवें
भारतीय तक संक्रमण पहुंच चुका था. संक्रमण में मई से फरवरी तक, यह 21 गुना बढ़त थी यानी अनंत (एक्स्पोनेंशियल)
ग्रोथ.
यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिल्वानिया के
शोधकर्ताओं (हैपलॉन, ट्रग
और मिलर—जून 2020) ने पाया कि कई देशों में सरकारें तीन
बड़े सामूहिक भ्रम का शिकार हुई हैं.
• सरकारों ने प्रत्यक्ष हानि
(आइडेंटिफियबिल विक्टिम इफेक्ट) को रोकने की कामयाबी का ढोल पीटने के चक्कर में
लंबे नुक्सानों को नजरअंदाज कर दिया. मौतें कम करने पर जोर इतना अधिक रहा कि जैसे
ही मृत्यु दर घटी, सब
ठीक मान लिया गया.
• कोविड से निबटने की रणनीतियां प्रजेंट
बायस का शिकार भी हुईं. कोविड के सक्रिय केस कम होने का इतना प्रचार हुआ कि जांच
ही रुक गई. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में प्रवासी मजदूरों से संक्रमण
फैलने की जांच किए बगैर भारत की मजबूत प्रतिरोधक क्षमता का जिंदाबाद किया जाने
लगा.
• कोविड घटने के प्रचार के बजाए संक्रमितों
की आवाजाही पर नजर रखने और टीकाकरण को उसी ताकत से लागू करना चाहिए था जैसे
लॉकडाउन लगा था. अलबत्ता लॉकडाउन उठने के साथ पूरी व्यवस्था ही कोविड खत्म होने के
महाभ्रम (बैंडवैगन इफेक्ट) का शिकार हो गई तभी तो बीते सितंबर में जब दुनिया में
दूसरी लहर आ रही थी तब देश के नेता अपने आचरण से बेफिक्र होने लगे थे और मेले, रैलियों, बारातों के बीच लोग मास्क उतारकर कोविड
को विदाई देने लगे.
सनद रहे कि भारत में कोविड से मौतें और
सक्रिय केस कम (आंकड़े संदिग्ध) हुए थे, संक्रमण नहीं लेकिन लॉकडाउन हटने को कोविड पर जीत समझ लिया गया और
सरकार भी वैक्सीन राष्ट्रवाद का बिगुल फूंकती हुई चुनाव के दौरे पर निगल गई.
सभी मनोभ्रम बुरे नहीं होते. सामूहिक
अनुभव (एवेलेबिलिटी बायस) तजुर्बे के आधार पर खतरे को समय से पहले भांपने की ताकत
देता है. इसी की मदद से कोरिया, ताईवान
जैसे कई देशों ने सार्स की विभीषिका से मिली नसीहतों को सहेजते हुए खुद को कोविड
से बचा लिया.
अलबत्ता, भारत जहां केवल बीते कुछ माह में 1.65 लाख मौतें हुईं थीं, वहां लोग और सरकार मिलकर संक्रमितों की
दैनिक संख्या एक लाख रिकॉर्ड (4
अप्रैल 2021) पर ले आए. इस बार भी कोई मसीहा बचाने नहीं आया, हम खुद के ही हाथों फिर ठगे गए.