जीतता वही है जिसे पता हो कि कब लड़ना है और कब नहीं
सुन त्जु, आर्ट आफ वॉर
सुन त्जु, आर्ट आफ वॉर
पाकिस्तान को लेकर नरेंद्र मोदी का आशावाद तो अक्टूबर 2014 में ही खत्म हो गया था जब जम्मू कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान भारी गोलाबारी शुरु की थी। आठ अक्टूबर को एयर चीफ मार्शल अरुप राहा के घर एयर फोर्स डे की पार्टी में प्रधानमंत्री के पहुंचने से पहले तक सुरक्षा बल पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने लगे थे। भारत अगर चाहता तो उस वक्त भी यह तेवर दिखा सकता था जो गुरुवार 29 सितंबर को नजर आए। अलबत्ता उस मुंहतोड़ जवाब (जो सचमुच था भी) के बावजूद प्रधानमंत्री ने न केवल जल्द ही सब कुछ ठीक होने का भरोसा दिया बल्कि दिसंबर 2015 में रुस से लौटते हुए लाहौर में रुककर बहुतों को चौंका दिया। यह किसी भारतीय प्रधानमंत्री की दस साल में पहली पाकिस्तान यात्रा थी और वह भी अचानक।
भारत तो पाकिस्तान से लगातार लड़ रहा है। पिछले दो साल में यह जंग छद्म और प्रत्यक्ष दोनों तरह से गहन, निरंतर और स्थायी हो चुकी है। भारत चाहता तो इसे पहले की मुठभेडों में जीत और घुसपैठ की कोशिशों को रोकने में मिली सफलता को आज जैसी तेवर तुर्शी के साथ करारा जवाब बता सकता था लेकिन बकौल सुन त्जु जीतता वही है जिसे यह पता हो कि कब लड़ना है। शायद इस कई पैमानों पर भारत के लिए सही मौका था जब अपने संयम की नियंत्रण रेखा पाकिस्तान को दिखा सके।
वैसे सुन त्जु ने यह भी कहा था कि हमले का कदम तभी उठाया जाना चाहिए जब उसके लाभ नजर आएं। प्रधानमंत्री मोदी के लिए सख्त दिखना न केवल उनकी घरेलू राजनीति के लिए अनिवार्य था बल्कि दक्षिण एशिया में बदलते शक्ति संतुलन में भारत के रसूख को बनाये रखने के लिए भी जरुरी था। पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकियों पर कार्रवाई का रहस्यमय और दावों प्रतिदावों से भरे होना लाजिमी है क्यों कि इस तरह की रणनीतियां शत्रु को प्रत्यक्ष नुकसान से अधिक इस बात पर निर्भर करती हैं कि इनसे किस तरह के संदेश दिये जाते हैं।
इसी स्तंभ में हमने पिछले सप्ताह लिखा था कि पाकिसतान से निबटने में भारत को साहस, सूझ और संयम का साझा करना होगा और अपने नुकसान और जोखिम न्यूनतम रखना होगा। इस पैमाने पर गुरुवार की सुबह की कार्रवाई साहसिक और संयमित थी। कार्रवाई आतंकियों के खिलाफ थी और उड़ी हमले के बाद हुई थी इसलिए पाकिस्तान के पास प्रतिक्रिया के लिए कुछ नहीं था। भारतीय सेना पहले भी इस तरह की कार्रवाइयां करती रही है अलबत्ता सीधी कार्रवाई करने के साथ इन्हें स्वीकारने का
राजनीतिक साहस इस अभियान को आतंक के खिलाफ पिछले अभियानों से अलग करता है।
भारत ने यह कार्रवाई करते हुए प्रत्यक्ष रुप से 2003 युद्ध विराम के उल्लंघन की घोषणा भी नहीं और न ही इस कार्रवाई को आगे जारी रखने का संकेत दिया। यह सब करते हुए मोदी ने घरेलू राजनीति में नुकसान को थाम लिया है और सियासी दबाव को प्रेशर वाल्व उपलब्ध करा दिया जो उड़ी हमले के बाद बना था।
अलबत्ता इस अभियान के कूटनीतिक पहलू रणनीतिक पक्षों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने मोदी को दो टूक करते हुए दिखने पर बाध्य किया है। उड़ी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ कूटनीतिक अभियानों में भारत की सफलता मिली जुली रही है। भारत के दबाव के बावजूद रुस ने पाकिस्तान के साथ सैन्य अभ्यास रद नहीं किया। दक्षिण एशिया के शकित् संतुलन में चीन पाकिसतान के साथ है। सार्क को रद करना प्रतीकात्मक है लेकिन उससे पाकिस्तान को तत्काल कोई सबक नहीं मिलना था। सिंधु समझौते को सीमित करना या व्यापार संबंधों पर रोक ऐसे कदम हैं जिनका असर लंबे समय में होंगे। इस बीच उड़ी हमले के बाद भी आतंकी कोशिशें और सीमा पर से गोलाबारी जारी थी इस सूरत में न केवल घरेलू राजनीति के लिए बल्कि दक्षिण एशिया की रणनीतिक बिसात के मुताबिक भी तेवर दिखाना भारत के लिए जरुरी था।
भारत ने यह कार्रवाई करते हुए प्रत्यक्ष रुप से 2003 युद्ध विराम के उल्लंघन की घोषणा भी नहीं और न ही इस कार्रवाई को आगे जारी रखने का संकेत दिया। यह सब करते हुए मोदी ने घरेलू राजनीति में नुकसान को थाम लिया है और सियासी दबाव को प्रेशर वाल्व उपलब्ध करा दिया जो उड़ी हमले के बाद बना था।
अलबत्ता इस अभियान के कूटनीतिक पहलू रणनीतिक पक्षों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने मोदी को दो टूक करते हुए दिखने पर बाध्य किया है। उड़ी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ कूटनीतिक अभियानों में भारत की सफलता मिली जुली रही है। भारत के दबाव के बावजूद रुस ने पाकिस्तान के साथ सैन्य अभ्यास रद नहीं किया। दक्षिण एशिया के शकित् संतुलन में चीन पाकिसतान के साथ है। सार्क को रद करना प्रतीकात्मक है लेकिन उससे पाकिस्तान को तत्काल कोई सबक नहीं मिलना था। सिंधु समझौते को सीमित करना या व्यापार संबंधों पर रोक ऐसे कदम हैं जिनका असर लंबे समय में होंगे। इस बीच उड़ी हमले के बाद भी आतंकी कोशिशें और सीमा पर से गोलाबारी जारी थी इस सूरत में न केवल घरेलू राजनीति के लिए बल्कि दक्षिण एशिया की रणनीतिक बिसात के मुताबिक भी तेवर दिखाना भारत के लिए जरुरी था।
यदि आप खुद को जानते हैं और दुश्मन को भी तो फिर चाहे सैकड़ों लड़ाइयां हों, नतीजों से डरने की जरुरत नहीं है’ सुन त्जु का यह तीसरा तलिस्मा, कार्रवाई के बाद भारत की उलझन का शीर्षक बन सकता है। पाकिस्तान को संदेश तो दिया गया लेकिन मुश्किल अब यहां से प्रारंभ होती है। प्रधानमंत्री मोदी भारत की जरुरतों, संभावनाओं, उम्मीदों और चुनौतियों को भी जानते हैं और पाकिस्तान के मिजाज और षड़यंत्र को भी। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ताजे सबक के बाद पाकिसतान में आतंक की फैक्ट्री बंद हो जाएगी बल्कि उसके दोगुनी ताकत से आगे आने का डर है। यदि ऐसा हुआ तो फिर संयम की अगली नियंत्रण रेखा क्या होगी ?
जाहिर है मोदी बार-बार पाकिस्तान के खिलाफ यह नहीं करना चाहेंगे जो उन्हें इस बार करना पड़ा है लेकिन पाकिसतान अपने डिजाइन नहीं आजमायेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। भारत, पाकिस्तान के साथ तनाव लेकर जी सकता है लेकिन टकराव लेकर नहीं। प्रधानमंत्री मोदी की कोशिश होगी कि वह संघर्ष को टालें और जल्द से जल्द सरकार के संवाद को पाकिस्तान की छाया से निकाल कर ग्रोथ, विकास और समृद्धि की तरफ लाएं। ऐसा न होने पर भारत को होने वाले नुकसान ज्यादा बडे होंगे।
शायद भारत को अंतत: रणनीति के उस पुराने सिद्धांत की तरफ लौटना चाहिए जो कहता है कि हमले की स्थिति में जीत या हार दोनों संभावित हैं लेकिन यदि अजेय होना है तो प्रतिरक्षा को मजबूत करना होगा।
पाकिसतान, नरेंद्र मोदी के लिए अटल बिहारी वाजपेयी या मनमोहन सिंह की तुलना में ज्यादा बड़ी चुनौती है। घरेलू राजनीति के तकाजे उनमें बांग्लादेश बनाने वाली इंदिरा गांधी जैसी आक्रामकता चाहते हैं जबकि ग्लोबल राजनीति की बिसात उनसे वाजपेयी जैसी सदाशयता मांगती है और तीसरी तरफ उन्हें भारत की एक सुरक्षित और निरापद छवि बनानी है ताकि लोग यहां निवेश और कारोबार कर सकें। पाकिस्तान के सख्त कार्रवाई के बाद अब मोदी को उदारता, चतुरता और आक्रामकता बेहद नाजुक संतुलन बनाना होगा जिसमें उन्हें देश के भीतर भरपूर राजनीतिक सहमति की जरुरत होगी ताकि संघर्षहीन विजय हासिल हो सके।
युद्ध की सबसे बड़ी कला यही है कि शत्रु को बगैर लड़े परास्त कर दिया जाए – सुन त्जु