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Monday, July 9, 2018

दरार पर इश्तिहार


बहुत पुराने मिस्तरी थे वे. लेकिन खलीफा की दीवारें अक्सर टेढी होती थीं. कोई टोके तो कहते कि प्लास्टर में ठीक हो जाएगी लेकिन टेढ़ी दीवार प्लास्टर में कहां छिपती है इसलिए प्लास्टर के बाद खलीफा कहते थे, क्या खूब डिजाइन बनी है.

जीएसटी के विश्वकर्मा एक साल बाद भी यह मानने को तैयार नहीं कि खामियां डिजाइन नहीं होतीं.

और तर्कों का तो क्या कहना...?

हवाई चप्पल और मर्सिडीज पर एक जैसा टैक्स कैसे लग सकता है?

जवाबी कुतर्क यह हो सकता है कि जब गरीब और अमीर के लिए मोबाइल और इंटरनेट की दर एक हो सकती है, छोटे-बड़े किसान को एक ही समर्थन और मूल्य मिलता है तो फिर खपत पर टैक्स में गरीब और अमीर का बंटवारा क्यों?

फिर भी बेपर की उड़ाते हुए मान लें कि 100 रु. की चप्पल और 50 लाख की मर्सिडीज पर एक समान दस फीसदी जीएसटी है तो चप्पल 110 रु. की होगी और मर्सिडीज 55 लाख रु. की. जिसे जो चाहिए वह लेगा. इसमें दिक्कत क्या है?

टैक्स दरों की भीड़ के इस वामपंथ की कोई पवित्र आर्थिक वजह नहीं है. बस, लकीर पर फकीर चले जा रहे हैं और दकियानूसी को सुधार बता रहे हैं.

         अगर जूते की दुकान में घुसने से पहले आपको यह मालूम हो कि हवाई चप्पल से लेकर सबसे महंगे जूते पर टैक्स की दर एक (जीएसटी के तहत विभिन्न कीमत के जूतों पर अलग-अलग दर है) ही है तो फिर समझदार ग्राहक जरूरत, क्वालिटी और पैसे की पूरी कीमत (वैल्यू फॉर मनी) के आधार पर जूता चुनेगा.

         टैक्स वैल्यू एडिशन (उत्पाद की बेहतरी) पर लगता है न कि कई टैक्स दरों के जरिए खपत के बाजार को अलग-अलग आय वर्गों के लिए दिया जाए. टैक्स के डंडे से खपत के चुनाव को प्रभावित करने की क्या तुक है? लोग क्रमशः बेहतर उत्पादों की तरफ बढ़ते हैं तो वह टैक्स लगाकर महंगे नहीं किए जाने चाहिए.

         भारतीय बाजार में बिस्कुट, चीज, चाय, ब्रेड या जूते आदि की इतनी कम किस्में क्यों हैं? उपभोक्ताओं की बदलती रुचि व आदत के हिसाब से उत्पाद व पैकेजिंग लगातार बदलते हैं. बहुस्तरीय टैक्स रचनात्मक उत्पादन में बाधा है. टैक्स के झंझट से बचने के लिए कंपनियां उत्पादों के सीमित संस्करण बनाती हैं.

तो क्या हवाई चप्पल और मर्सिडीज पर एक जैसा टैक्स होना चाहिए?

भई, हवाई चप्पल पर टैक्स होना ही क्यों चाहिए?

आम खपत की एक सैकड़ा चीजों पर टैक्स की जरूरत ही नहीं है. सब्सिडी लुटाने से तो यह तरीका ज्यादा बेहतर है कि टैक्स से बढऩे वाली महंगाई को रोका जाए. अगर एक टैक्स रेट बहुत मुश्किल है तो आम खपत की चीजों को निकालकर बचे हुए उत्पादों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है और उन पर दो दरें तय कर दी जाएं. लेकिन चार टैक्स रेट वाला जीएसटी तो बेतुका है.

देश के एक फीसदी उपभोक्ताओं को भी इस जीएसटी में अपनी खरीदारी पर टैक्स की दरें पता नहीं होंगी. कंपनियां और कारोबारी भी कम हलाकान नहीं हैं लेकिन फिर भी सरकार ने यह मायावी जीएसटी क्यों रचा?

जानने के लिए जीएसटी की जड़ें खोदनी होंगी.

सन् 2000 में जीएसटी की संकल्पना एक राजकोषीय सुधार के तौर पर हुई थी. सरकारों को सिकोडऩा, खर्च में कमी, घाटे पर काबू के साथ जीएसटी के जरिए टैक्स दरों के जंजाल को काटना था ताकि कर नियमों का पालन और खपत बढ़े जो बेहतर राजस्व लेकर आएगा.

जीएसटी बना तो सब गड्डमड्ड  हो गया. खर्चखोर सरकारें जीएसटी के जरिए खपत को निचोडऩे के लिए पिल पड़ीं और इस तरह हमें वह जीएसटी मिला जिससे न लागत कम हुई, न मांग बढ़ी, न कारोबार सहज व पारदर्शी हुआ और न राजस्व बढ़ा. हालांकि टैक्स चोरी कई गुना बढ़ गई. 

फायदा सिर्फ  यह हुआ है कि टैक्स दरों के मकडज़ाल के बाद चार्टर्ड एकाउंटेंट की बन आई. परेशान कारोबारी सरकार को अदालत में फींच रहे हैं और उलझनों व गफलतों पर टैक्स नौकरशाही मौज कर रही है.

एक साल का हो चुका जीएसटी बिल्कुल अपने पूर्वजों पर गया है. करीब 50 से अधिक उत्पाद और सेवा श्रेणियों (चैप्टर) पर टैक्स की तीन या चार दरें लागू हैं जैसे प्लास्टिक की बाल्टी और बोतल पर अलग-अलग टैक्स. एक्साइज, वैट, सर्विस टैक्स में भी ऐसा ही होता था.

असफलता के एक साल बाद जीएसटी पर खिच खिच शुरु हो गई है. राजस्‍व उगाहने वालों को लगता है कि जीएसटी की गाड़ी तो शानदार थी, वो सड़क (जीएसटीएन) ने धोखा दे दिया (राजस्‍व सचिव हसमुख अधिया का ताजा बयान)


हकीकत यह है जीएसटी की डिजाइन खोटी है. नेटवर्क इस ऊटपटांग जीएसटी से तालमेल की कोशिश कर रहा था अंतत: असंगत जीएसटी के सामने कंप्‍यूटर भी हार मान गए. इश्तिहारों से दरारें नहीं भरतीं. प्रचार के ढोल फट जाएंगे लेकिन टैक्स दरों की संख्या को कम किए बिना जीएसटी को सुधार बनाना नामुमकिन है. 

Sunday, September 17, 2017

जीएसटी का इलाज


यदि कोई बंदर कंप्यूटर के की बोर्ड को लंबे वक्त तक लगातार मनचाहे ढंग से पीटता रहे तो वह कभी न कभी अक्षरों का ऐसा पैटर्न बना लेगा जो शेक्सपियर की कविता के करीब होगा.

बीसवीं सदी की शुरुआत में फ्रांस के गणितज्ञ जब इनफाइनाइट मंकी थ्योरी बना रहे थे (जिसे 2011 में अमेरिकी कंप्यूटर प्रोग्रामर ने वर्चुअल बंदरों की मदद से सही सिद्ध कर दिया) तब उन्हें यह कतई अंदाज नहीं रहा होगा कि 21वीं सदी में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा टैक्स सुधार इस थ्योरी का उदाहरण बन जाएगा.

प्रधानमंत्री का गुड ऐंड सिंपल टैक्ससरकार और कारोबारियों के लिए इनफाइनाइट मंकी थ्योरी की साधना बन गया है. तीन महीने बाद पहला रिटर्न भरने के तरीकों पर शोध जारी है. आए दिन बदलते नियमों से जीएसटी की गुत्थी और उलझ जाती है.

वन नेशनवन टेंशन

भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार गहरी मुश्किल में है जीएसटी खुद बीमार हो गया है और इससे कारोबार में भी बीमारी फैल गई है। 
  •  जीएसटी के सूचना तकनीक नेटवर्क (जीएसटीएन) के बिना जीएसटी लागू होना नामुमकिन है. यह नेटवर्क असफल सा‍बित हो गया है. रिटर्न भरने की भी तारीखें आगे बढ़ा दी गई हैं. इस नेटवर्क के भरोसे लाखों इनवॉयस मिलानेटैक्स  क्रे‍डिटमाल ले जाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक परमिट देनेकेंद्र और राज्य के बीच राजस्व बंटवारे का काम मुश्किल दिख रहा है.
  • जीएसटीएन की असफलता की पड़ताल के लिए राज्यों के वित्त मंत्रियों की समिति बनानी पड़ गई है. सनद रहे कि इस नेटवर्क की तैयारी को लेकर देश को लगातार गुमराह किया गया. शनिवार को बंगलौर में जीएसटी 'उपचार'  समिति की बैठक के बाद सरकार ने स्वीकार किया कि नेटवर्क में समस्‍यायें हैं जिन्‍हें दूर करने की कोशिश हो रही है.
  • उत्पादों और सेवाओं को विभिन्न दरों में बांटने वाली जीएसटी (फिटमेंट) कमेटी ने पर्याप्त तैयारीशोध और उद्योगों से संवाद नहीं किया. इसी गफलत के चलते जुलाई के तीसरे सप्ताह में सिगरेट कंपनी आइटीसी का शेयर एक दिन में 13 फीसदी टूट गया यानी निवेशकों को करीब 50,000 करोड़ रुपए का नुक्सान. यह हुआ सिगरेट पर जीएसटी लगाने की गलती से. पहले सिगरेट पर जीएसटी की दर कम रखी गई फिर गलती समझ में आई तो उसे बढ़ा दिया गया. यह पहला मामला नहीं था इसके बाद जीएसटी काउंसिल लगातार उत्पादों और सेवाओं पर टैक्स की दरें बदल रही है.
  •  नेटवर्क की विफलता और नियमों के फेरबदल से राजस्व संग्रह पर खतरा बढ़ गया है. राज्यों ने केंद्रीय जीएसटी में हिस्सा न मिलने की शिकायत की है. नाराज व्या‍पारी अदालतों से गुहार लगाने लगे हैं.
 विफलता के नतीजे  
  •  ऑनलाइन नेटवर्क की असफलता के कारण नियम पालन और टैक्स चोरी रोकने का मॉडल लडख़ड़ा गया है. अब अधिकांश कारोबार नकद और कच्चे बिल में हो रहा है.
  •   जटिलता और नेटवर्क की उलझनों के कारण जीएसटीकारोबारी सहजता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) पर आतंकी हमले की तरह सामने आया है.
  •    उत्पादन और बिक्री बेहद सुस्त है. जीडीपी में गिरावट गहरी और लंबी हो सकती है.

सहजता ही इलाज है
इसी स्तंभ में हमने लिखा था जीएसटी बेहद जटिल है. 24 से लेकर 36 रिटर्न की शर्तों और पेचीदा नियमों से लंदे फंदे जीएसटी को ऐसे सूचना तकनीक नेटवर्क के हवाले किया गया है जिसका कायदे से परीक्षण भी नहीं हुआ. यह गठजोड़ की विफलता अर्थव्यवस्था के लिए विस्फोटक हो सकती है. अफसोस कि हम गलत साबित नहीं हुए.  
·   जीएसटी एक ऐसा सुधार है जो तीन माह में ही खुद बीमार हो गया है. इसका ढांचा बदले बिना इसे खड़ा कर पाना अब मुश्किल लगता है.
  •   जीएसटी को चलाना है तो रिटर्न और तमाम प्रक्रियाओं में बड़े पैमाने पर कमी की जरूरत है. सरकार को कारोबारियों पर हमेशा शक करने की आदत छोडऩी होगी. सरकार को यह तय करना होगा कि उसे कितनी सूचना चाहिए. हर छोटी-बड़ी सूचना हासिल करने की जिद हटाकर प्रक्रिया को आसान करना पड़ेगा.
  • छोटे और बड़े कारोबारियों के लिए नियम अलग-अलग तय करने नहीं तो गैर जीएसटी कारोबार बढऩे लगेगा या फिर छोटे कारोबार और व्यापार बंद होने की नौबत आ जाएगी. 
  • कर नियमों में आए दिन बदलाव रोकना होगा ताकि कारोबारी स्थायित्व को लेकर आश्वस्त हो सकें.
याद कीजिए 30 जून की मध्यरात्रि को संसद में हुए जीएसटी उत्सव को. उस जलसे को याद करने पर जीएसटी का ताजा हाल हमें शर्मिंदा करता है. सुधारों की शुरुआत कोई उत्सव नहीं होतीत्योहार तो उनकी सफलता पर मनाया जाता है.




मिल्टन फ्रीडमैन ठीक ही कहते थे: ‘‘सरकारें नसीहत नहीं लेतीसबक तो सिर्फ जनता को मिलते हैं.’’

Monday, October 31, 2016

जीएसटी को बचाइए


जीएसटी में वही खोट भरे जाने लगे हैं जिन्‍हें दूर करने लिए इसे गढ़ा जा रहा था.
गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स से हमारा सम्‍मोहन उसी वक्त खत्म हो जाना चाहिए था जब सरकार ने तीन स्तरीय जीएसटी लाने का फैसला किया था. दकियानूसी जीएसटी मॉडल कानून देखने के बाद जीएसटी को लेकर उत्साह को नियंत्रित करने का दूसरा मौका आया था. ढीले-ढाले संविधान संशोधन विधेयक को संसद की मंजूरी के बाद तो जीएसटी को लेकर अपेक्षाएं तर्कसंगत हो ही जानी चाहिए थीं. लेकिन जीएसटी जैसे जटिल और संवेदनशील सुधार को लेकर रोमांटिक होना भारी पड़ रहा है. संसद की मंजूरी के तीन महीने के भीतर उस जीएसटी को बचाने की जरूरत आन पड़ी है जिसे हम भारत का सबसे महान सुधार मान रहे हैं.

संसद से निकलने के बाद जीएसटी में वही खोट पैवस्त होने लगे हैं जिन्‍हें ख त्‍म करने के लिए जीएसटी को गढ़ा जा रहा था. जीएसटी काउंसिल की दूसरी बैठक के बाद ही संदेह गहराने लगा था, क्योंकि इस बैठक में काउंसिल ने करदाताओं की राय लिए बिना जीएसटी में पंजीकरण व रिटर्न के नियम तय कर दिए जो पुराने ड्राफ्ट कानून की तर्ज पर हैं और करदाताओं की मुसीबत बनेंगे.

पिछले सप्ताह काउंसिल की तीसरी बैठक के बाद आशंकाओं का जिन्न बोतल से बाहर आ गया. जीएसटी में बहुत-सी दरों वाला टैक्स ढांचा थोपे जाने का डर पहले दिन से था. काउंसिल की ताजा बैठक में आशय का प्रस्ताव चर्चा के लिए आया है. केंद्र सरकार जीएसटी के ऊपर सेस यानी उपकर भी लगाना चाहती है, जीएसटी जैसे आधुनिक कर ढांचे में जिसकी उम्मीद कभी नहीं की जाती.
काउंसिल की तीन बैठकों के बाद जीएसटी का जो प्रारूप उभर रहा है वह उम्मीदों को नहीं, बल्कि आशंकाओं को बढ़ाने वाला हैः
  • केंद्र सरकार ने जीएसटी काउंसिल की बैठक में गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स के लिए चार दरों का प्रस्ताव रखा है. ये दरें 6, 12,18 और 26 फीसदी होंगी. सोने के लिए चार फीसदी की दर अलग से होगी. अर्थात् कुल पांच दरों का ढांचा सामने है.
  •   मौजूदा व्यवस्था में आम खपत के बहुत से सामान व उत्पाद वैट या एक्साइज ड्यूटी से मुक्त हैं. कुछ उत्पादों पर 3, 5 और 9 फीसदी वैट लगता है जबकि कुछ पर 6 फीसदी एक्साइज ड्यूटी है. जीएसटी कर प्रणाली के तहत 3 से 9 फीसदी वैट और 6 फीसदी एक्साइज वाले सभी उत्पाद 6 फीसदी की पहली जीएसटी दर के अंतर्गत होंगे. जीरो ड्यूटी सामान की प्रणाली शायद नहीं रहेगी इसलिए टैक्स की यह दर महंगाई बढ़ाने की तरफ झुकी हो सकती है.
  •   केंद्र सरकार ने जीएसटी के दो स्टैंडर्ड रेट प्रस्तावित किए हैं. यह अनोखा और अप्रत्याशित है. जीएसटी की पूरे देश में एक दर की उक्वमीद थी. यहां चार दरों का रखा जा रहा है, जिसमें दो स्टैंडर्ड रेट होंगे. बारह फीसदी के तहत कुछ जरूरी सामान रखे जा सकते हैं. यह जीएसटी में पेचीदगी का नया चरम है. 
  • यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि ज्यादातर उत्पाद और सेवाएं 18 फीसद दर के अंतर्गत होंगी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मुताबिक जीएसटी में गुड्स और सर्विसेज के लिए एक समान दर की प्रणाली है. इस व्यवस्था के तहत सेवाओं पर टैक्स दर वर्तमान के 15 फीसदी (सेस सहित) से बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगी. यानी इन दरों के इस स्तर पर जीएसटी खासा महंगा पड़ सकता है.
  • चौथी दर 26 फीसदी की है जो तंबाकू, महंगी कारों, एयरेटेड ड्रिंक, लग्जरी सामान पर लगेगी. ऐश्वर्य पर लगने वाले इस कर को सिन टैक्स कहा जा रहा है. इस वर्ग के कई उत्पादों पर दरें 26 फीसदी से ऊंची हैं जबकि कुछ पर इसी स्तर से थोड़ा नीचे हैं. इस दर के तहत उपभोक्ता कीमतों पर असर कमोबेश सीमित रहेगा.
  •   समझना मुश्किल है कि सोने पर सिर्फ 4 फीसदी का टैक्स किस गरीब के फायदे के लिए है. इस समय पर सोने पर केवल एक फीसदी का वैट और ज्वेलरी पर एक फीसदी एक्साइज है, जिसे बढ़ाकर कम से कम से 6 फीसदी किया जा सकता था.   
  • किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि सरकार एक पारदर्शी कर ढांचे की वकालत करते हुए जीएसटी ला रही है, और पिछले दरवाजे से जीएसटी की पीक रेट (26 फीसदी) पर सेस लगाने का प्रस्ताव पेश कर देगी. सेस न केवल अपारदर्शी हैं बल्कि कोऑपरेटिव फेडरलिज्म के खिलाफ हैं क्योंकि राज्यों को इनमें हिस्सा नहीं मिलता है.

केंद्र सरकार सेस के जरिए राज्यों को जीएसटी के नुक्सान से भरपाई के लिए संसाधन जुटाना चाहती है. अलबत्ता राज्य यह चाहेंगे कि जीएसटी की पीक रेट 30 से 35 फीसदी कर दी जाए, जिसमें उन्हें ज्यादा संसाधन मिलेंगे. इसी सेस ने जीएसटी काउंसिल की पिछली बैठक को पटरी से उतार दिया और कोई फैसला नहीं हो सका.

अगर जीएसटी 4 या 5 कर दरों के ढांचे और सेस के साथ आता है तो यह इनपुट टैक्स क्रेडिट को बुरी तरह पेचीदा बना देगा जो कि जीएसटी सिस्टम की जान है. इस व्यवस्था में उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है और महंगाई रोकती है.

केंद्र सरकार जीएसटी को लेकर कुछ ज्यादा ही जल्दी में है. जीएसटी से देश की सूरत और सीरत बदल जाने के प्रचार में इसके प्रावधानों पर विचार विमर्श और तैयारी खेत रही है. व्यापारी, उद्यमी, उपभोक्ता, कर प्रशासन जीएसटी गढऩे की प्रक्रिया से बाहर हैं. जीएसटी काउंसिल की बैठक में मौजूद राज्यों के मंत्री इसके प्रावधानों पर खुलकर सवाल नहीं उठा रहे हैं या फिर उनके सवाल शांत कर दिए गए हैं. 

जीएसटी काउंसिल की तीन बैठकों को देखते हुए लगता है कि मानो यह सुधार केवल केंद्र और राज्यों के राजस्व की चिंता तक सीमित हो गया है. करदाताओं के लिए कई पंजीकरण और कई रिटर्न भरने के नियम पहले ही मंजूर हो चुके हैं. अब बारी बहुत-सी टैक्स दरों की है जो जीएसटी को खामियों से भरे पुराने वैट जैसा बना देगी.

गुड्स एंड सर्विसेज टैक्‍स का वर्तमान ढांचा कारोबारी सहजता की अंत्‍येष्टि करने, कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बढ़ाने और महंगाई को नए दांत देने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है. क्या हम जीएसटी बचा पाएंगे या फिर हम इस सुधार के बोझ तले दबा ही दिए जाएंगे?