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Tuesday, January 5, 2010

बस इतना सा ख्वाेब है

नया साल बहत्तर घंटे बूढ़ा हो चुका है, यानी कि उम्मीदों का टोकरा उतारने में अब कोई हर्ज नहीं हैं। कामनायें और आशायें सर माथे. लेकिन हमारी बात तो अनिवार्यताओं, अपरिहार्यताओं और आकस्मिकताओं से जुड़ी है। यह चर्चा उन उपायों की है जिनके बिना नए साल में काम नहीं चलने वाला, क्यों कि कई क्षेत्रों में समस्यायें, संकट में बदल रही हैं। अगले साल की सुहानी उम्मीदों पर चर्चा फिर करेंगे पहले तो सुरक्षित, शांत और संकट मुक्त रहने के लिए इन उलझनों को सुलझाना जरुरी है। .. दरअसल यह 'दस के बरस' का संकटमोचन या आपत्ति निवारण एजेंडा है। कभी, ताकि सुरक्षा, शांति और संकटों से मुक्ति सुनिश्चित हो सके।

तो खायेंगे क्या ?

कभी आपने कल्पना भी की थी कि आपको सौ रुपये किलो की दाल खानी पड़ेगी। यानी कि उस खाद्य तेल से भी महंगी, जो गरीब की थाली में अब तक सबसे महंगा होता था। भूल जाइये गरीबी हटाने को दावों और हिसाबों को। यह महंगाई गरीबी कम करने के पिछले सभी फायदे चाट चुकी है। खाद्य उत्पादों की महंगाई गरीबी की सबसे बड़ी दोस्त है। दरअसल खेती का पूरा सॉफ्टवेर ही खराब हो गया है। इसका कोड नए सिरे से लिखने की जरुरत है और वह भी युद्धस्तर पर। अगर सरकार को कुछ रोककर भी खेती की सूरत बदलनी पड़े तो कोई हर्ज नहीं है। किसान के सहारे वोटों की खेती तो होती रहेगी लेकिन अगर खेतों में उपज न बढ़ी तो देश की आबादी खाद्य इमर्जेसी की तरफ बढ़ रही है। दस का बरस खाद्य संकट का बरस हो सकता है। एक अरब से ज्यादा लोगों को अगर सही कीमत पर रोटी न मिली तो सब बेकार हो जाएगा।

शहर फट जाएंगे

आपको मालूम है कि इस साल करीब आधा दर्जन नई छोटी कारें भारतीय बाजार में आने वाली हैं। मगर कोई बता सकता है कि वह चलेंगी कहां? शहर फूलकर फटने वाले हैं। पिछले दो दशकों के उदारीकरण ने शहरों को रेलवे प्लेटफार्म बना दिया है। सरकारें गांवों की तरफ देखने का नाटक करती रही और गांव के गांव आकर शहरों में धंस गए। सूरत सुधारने के लिए हर शहर में राष्ट्रमंडल खेल तो हो नहीं सकते लेकिन हर शहर को ढहने से बचने का रास्ता जरुर चाहिए। आबादी के प्रवास से लेकर, शहरी ढांचे की बदहाली व बीमार आबोहवा तक और कानून व्यवस्था की दिक्कतों से लेकर बिजली पानी की जरुरतों तक, शहरों का ताना बाना हर जगह खिंचकर फट रहा है। सिर्फ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलौर ही देश नहीं है। कानपुर, पटना, नासिक, इंदौर, लुधियाना भी देश में ही है। बरेली, जलगांव, भागलपुर, पानीपत भी उतने ही बेहाल हैं। दस का बरस शहरों के लिए नई और बड़ी दिक्कतों का है।

हवा में है खतरा

मतलब पर्यावरण से कतई नहीं है। बात विमानन क्षेत्र की है। अगर हवाई यात्रा करते हों इस साल बहुत संभल कर चलने की जरुरत है। देश का उड्डयन ढांचा चरमरा गया है। पिछले बरस लगभग हर माह कोई बड़ा हादसा हुआ है या होते-होते बचा है। हेलीकॉप्टर गिर रहे हैं, जहाज जमीन पर रनवे छोड़ कर गड्ढों में उतर रहे हैं, पायलट नशे में डूब कर सैकड़ो जिंदगियों के साथ एडवेंचर कर रहे हैं। जहाजों की तकनीकी खराबियां खौफ पैदा करने लगी हैं। विमानों को ऊपर वाला ही मेंटेन कर रहा है। दरअसल पूरा विमानन क्षेत्र एक गंभीर किस्म के खतरे में है और वह भी उस समय जब कि देश में विमान यात्रियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है और नए हवाई मार्ग खुले हैं। विमानन सेवाओं को सुधारने के लिए पता नहीं किस अनहोनी का इंतजार है। दस के बरस में यहां संकट बढ़ सकता है।

इंसाफ का तकाजा

आर्थिक स्तंभ में न्यायिक सुधारों की चर्चा पर चौंकिये मत? दुनिया में कोई अर्थव्यवस्था चाहे कितनी समृद्ध क्यों न हो, कानून के राज के बिना नहीं चलती। जहां सरकार के मंत्री अदालतों की निष्क्रियता और दागी साख को अराजकता बढ़ने की वजह बता रहे हो वहां कौन निवेशक अदालतों पर भरोसा करेगा। मुश्किल नहीं है यह समझना जिन इलाकों व राज्यों में न्याय और कानून व्यवस्था ठीक है वहां निवेशक अपने आप चले आते हैं। न्यायिक तंत्र में सुधार इसलिए जरुरी है क्यों कि यह लोकतंत्र के अन्य हिस्सों को जल्दी सुधार सकता है। वक्त का तकाजा है कि इंसाफ करने वाला पूरा तंत्र सुधारा जाए और वह भी बहुत तेजी से। यह सिर्फ लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य नहीं है बल्कि आर्थिक प्रगति के लिए भी अपरिहार्य है। .. नया साल अदालतों से बहुत से सवाल करने वाला है।

बस एक पहचान

आखिर इस देश के सभी लोगों को एक पहचान पत्र देने के लिए कितने कर्मचारी और कितना पैसा चाहिए? लाखों बाबुओं की फौज और लाखों करोड़ के बजट वाला यह देश अगर चाहे तो एक या दो साल में पूरी परियोजना लागू नहीं कर सकता? मामला पैसे या संसाधनों का नहीं है, करने की जिद का है। अगर आतंकी हमले न हुए होते तो शायद नागरिक पहचान पत्र को लेकर कोई गंभीर नहीं होता। लेकिन वह संजीदगी भी किस काम की, जो वक्त पर नतीजे न दे सके। सुरक्षा संबंधी चाक चौबंदगी के लिए ही नहीं बल्कि लोगों को एक आधुनिक और वैधानिक पहचान भी चाहिए ताकि वह सरकारी सेवाओं तक और सरकारी सेवायें उन तक पहुंच सकें। यह परियोजना सरकार की इच्छा शक्ति की सबसे बड़ी परीक्षा है। इसमें देरी का नतीजा सिर्फ नुकसान है। दिसंबर में पूछेंगे कि हमें आपको पहचान देने की यह मुहिम फाइलों से कितना बाहर निकली?

नए साल में इस खुरदरे और अटपटे एजेंडे के लिए माफ करियेगा। हम जानते हैं कि यह नूतन वर्ष की रवायती शुभकामनाओं के माफिक नहीं है लेकिन यह हम सबकी उलझनों के माफिक जरुर है जो नए साल की पहली सुबह से ही हमें घेर कर बैठ गई हैं। तो नए साल में सिर्फ इतनी सी ख्वाहिश है कि सुधार अगरचे धीमे हों लेकिन संकटों के इलाज में सरकारें जल्दी दिखायेंगी। यह उम्मीद भी हमने सिर्फ इसलिए की है क्यों कि उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। इसके बाद इंतजार के अलावा और क्या हो akataa है। ..तुम आए हो, न शबे इंतजार गुजरी है , तलाश में है सहर, बार-बार गुजरी है। (फैज)