दुनिया-बदल तकनीकों के पैमाने पर अगर कंप्यूटरों, इंटरनेट, मोबाइल का पूर्वज तलाशना हो तो हमें 18वीं सदी की नहरें, रेलवे और स्टील मिलेंगे, जिनमें इतनी पूंजी झोंकी गई कि संकट फूट पड़े और बर्बादी का इतिहास बन गया.
लेकिन बाद के दशकों में इतिहास ने बदलने का तरीका बदल दिया. डॉट कॉम बबल के बाद भी इंटरनेट की गति नहीं रुकी. ऐसा ही उन तकनीकों के साथ हुआ जिनके जरिए बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ. मंदी के झटके लगते रहे लेकिन फिर कैनाल पैनिक (1797) या रेल पैनिक (1847) नहीं दोहराए गए.
1942 तक दुनिया समझ गई थी कि खुले बाजार का मकसद बराबरी स्थापित करना नहीं है बल्कि नई तकनीक से नए उत्पाद/सेवाएं लाना, उत्पादन व प्रतिस्पर्धा बढ़ाना, मुनाफा कमाना और नए तरह के रोजगार तैयार करना था.
इस सकारात्मक ध्वंस (क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन) को पहले पहल ऑस्ट्रियन अर्थविद जोसफ शंपिटर ने पकड़ा था जिनके सिद्धांतों पर मार्क्सवाद की छाया थी. दूसरी बड़ी लड़ाई के साथ आई नई तकनीकें जिनकी छाया में यह ध्वंस आज का इनोवेशन बन गया. इस के साथ ही रोजगारों के आयाम पूरी तरह तब्दील हो गए.
महामारी और महामंदी के बाद दुनिया बदलती है. कोविड पार की नई अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा का रसायन सरकारों की आत्ममुग्धता में नहीं, श्रमिकों या मानव संसाधन की दक्षता पर केंद्रित है.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने अपनी ग्लोबल कंपीटीटिवनेस रिपोर्ट 2020 नए आर्थिक चोला बदलने में दुनिया के करीब 37 प्रमुख देशों की तैयारियों और क्षमताओं का आकलन किया है. जानना जरूरी है कि नए रोजगार कहां से आएंगे और भारत कितना तैयार है.
दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में करीब 48 फीसद नौकरियां ऑटोमेशन और तकनीकी उठा-पटक का शिकार होंगी. अब नए डिजिटल कौशल के दम पर ही टिका जा सकेगा.
महामारी पार की अर्थव्यवस्था सूचना तकनीक के बहुआयामी इस्तेमाल, डिजिटल कौशल, रोजगारों के लचीलापन और डिजिटल कारोबारों के मुफीद कानूनी ढांचे पर केंद्रित होगी.
इस बदलाव की तैयारी से लैस दस प्रमुख देशों में भारत शामिल नहीं है. इस सूची में अमेरिका जापान, सिंगापुर, जर्मनी चीन, ऑस्ट्रेलिया, डेनमार्क, इज्राएल, स्वीडन, कोरिया, हांगकांग, फिनलैंड तो हैं हीं लेकिन सऊदी अरब, अमीरात, कतर, मलेशिया और एस्टोनिया की मौजूदगी चौंकाती है.
तकनीक की ताकत पर आगे बढ़ती दुनिया में ग्लोबल पेटेंट आवेदन में भारत मीलों पीछे है. जापान, अमेरिका, जर्मनी के अलावा कोरिया और चीन पेटेंट की ताकतवाले पांच शीर्ष देश हैं.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक विश्व के शीर्ष उद्यमियों को भारत की उत्पादन वैल्यू चेन के जल्दी आधुनिक या ग्लोबल होने की उम्मीद नहीं है. वे भारत को आपूर्ति का स्रोत बनाने नहीं जा रहे हैं.
नई प्रतिस्पर्धा
बीते सौ वर्ष तीन बड़ी मंदी आईं. हर बार यह साबित हुआ कि कारोबार में बढ़त के बीच जो कंपनियां तकनीकी बदलाव में निवेश को टालती हैं वे भी मंदी के दौरान नई तकनीकों की शरण में चली जाती हैं. हर बड़ी मंदी रोजगारों और कौशल का पूरा ढांचा बदल देती है.
प्रतिस्पर्धा की नई ग्लोबल नापजोख बताती है कि अगले एक दशक में किसी देश में ग्लोबल ताकत उसके स्कूलों से तय होगी. लोगों को बार-बार प्रशिक्षण देकर प्रतिस्पर्धी (रिस्किलिंग) बनाना होगा. इन पैमानों पर भारत की रैंकिंग बेहद घटिया है.
2009 की मंदी के बाद दुनिया के जिन शहरों में अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ वहां नई भर्तियों में नए कौशल की मांग तेजी से बढ़ गई. कई जगह तो कंपनियों ने अपनी पांच साल पुरानी रोजगार-कौशल नीति ही बदल डाली. (हावर्ड बिजनेस रिव्यू 2017)
भारतीय रोजगारों के बाजार में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. अब 2015-16 के बाद आईं मोबाइल डेटा, मशीन लर्निंग, क्लाउड, नैनो टेक, थ्रीडी आदि तकनीकें ही भविष्य का नेतृत्व करेंगी. चीन और कोरिया के साथ सऊदी अरब ने नई दक्षताओं में बढ़त लेकर दुनिया को चौंका दिया है. युवा आबादी को तकनीकी कौशल से लैस करने में मिस्र, तंजानिया और बल्गारिया अब अमेरिका और जापान से आगे निकल रहे हैं. (डब्ल्यूईएफ)
भारत का रोजगार परिदृश्य गहरे अंधेरे में है. नए लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस जुलाई 2019-जून 2020) ने बताया है कि बेराजगारी में सबसे बड़ा हिस्सा स्नातकों का (17.2 फीसद) का है. इसके बाद डिप्लोमा या फिर सर्टिफिकेट और पोस्ट ग्रेजुएट नौकरी की तलाश में टूट रहे हैं.
नेताओं को इस बात की फिक्र ही नहीं है कि 2016 से 2020 के बीच स्नातकों कौशल बढ़ाने के मामले में भारत, जी 20 देशों में आखिरी पंक्ति में खिसक गया है. (डब्ल्यूईएफ-ग्लोबल कंपीटीटिवनेस रिपोर्ट 2020)
भारत में नए, अच्छे और संगठित रोजगारों का बाजार अभूतपूर्व रचनात्मक ध्वंस से मुखातिब है. महामारी और बदलती तकनीकें, 'गई’ नौकरियों की वापसी असंभव बना रही हैं लेकिन क्या नई नौकरियों के लिए भी हम तैयार हो पा रहे हैं?