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Sunday, March 6, 2016

ग्रोथ के सूरमा


2016 के बजट में खेती की गलती सुधारने के साथ ही सेवा क्षेत्र को उम्मीदों का केंद्र बनाना जरुरी था। 

 पिछले कई दशकों में सबसे अधिक युवा स्फूर्ति व अरमानों से चुनी सरकार अपने निर्धारित समय से करीब दो साल पीछे चल रही है. अरुण जेटली ने फरवरी, 2016 में जिस बजट को पेश किया, वह तो जुलाई, 2014 में आना चाहिए था, जब सरकार सत्ता में आई थी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संकट के पहले लक्षण दिखने लगे थे. अलबत्ता उस दौर में तो नरेंद्र मोदी सरकार किसानों को यह समझाने की जिद ठाने बैठी थी कि भूमि अधिग्रहण उनके लिए सुख, वैभव व समृद्धि लेकर आने वाला है. इसलिए बीजेपी ने बिहार में अपनी पूंछ कटने, तीन फसलों की बर्बादी व ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गहरे संकट के पैठ जाने का इंतजार किया और अपने तीसरे बजट को अर्थव्यवस्था की बुनियादी चुनौतियों पर केंद्रित किया.
बहरहाल, अब जबकि देश मोदी सरकार के इस लेट-लतीफ बजट को पचा चुका है . यह देखना बेहतर होगा कि 2016 में दरअसल कैसा बजट चाहिए था और अभी कुछ करने की कितनी उम्मीद कायम है. 
बेहद विपरीत माहौल में भी जीडीपी को सात फीसदी से ऊपर रखने वाले सूरमा तलाशने हों तो वह आपको मुंबई, दिल्ली के शानदार कॉर्पोरेट दफ्तरों में नहीं बल्कि अपने आसपास के बाजार में मिल जाएंगे जो होटल से लेकर रिपेयरिंग तक छोटी-छोटी दर्जनों सेवाएं व सुविधाएं देकर हमारी जिंदगी को आसान करते हैं. यह भारत की वह तीसरी ताकत है जिसने मंदी के बीच तरक्की व रोजगार को आधार देते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था का डीएनए बदल दिया है. मोदी सरकार की उंगली अगर नब्ज पर होती, तो 2016 के बजट में खेती की गलती सुधारने के साथ सेवा क्षेत्र को भविष्य की उम्मीदों का केंद्र बनाना चाहिए था.
कृषि और उद्योग (मैन्युफैक्चरिंग) अब अर्थव्यवस्था में केवल 34 फीसदी हिस्सा रखते हैं. समग्र आर्थिक उत्पादन में 66 फीसदी सेवा क्षेत्र का है, जिसमें देश का विशाल खुदरा व थोक व्यापार, होटल व रेस्तरां, ट्रांसपोर्ट, संचार, स्टोरेज, वित्तीय सेवाएं, कारोबारी सेवाएं, भवन निर्माण व उससे जुड़ी सेवाएं, सामाजिक सेवाएं और सामुदायिक सेवाएं आती हैं. 2015 की आर्थिक समीक्षा बताती है कि केंद्र व राज्यों की आय यानी राजस्व, रोजगार, विदेशी निवेश और भारत से निर्यात में अब ग्रोथ का परचम सर्विसेज क्षेत्र के हाथ में है.
भारत में जब बड़े उद्योगों और कृषि ने निवेश से किनारा कर लिया है, तब केवल सेवा क्षेत्र है जिसमें वैल्यू एडिशन हो रहा है. वैल्यू एडिशन एक आर्थिक पैमाना है जो यह साबित करता है कि किस आर्थिक क्षेत्र में कितना नया निवेश आ रहा है. केंद्रीय सांख्यिकी विभाग ने हाल में ही वैल्यू एडिशन के आंकड़े जारी किए हैं, जिनके मुताबिक, 2014-15 में सेवा क्षेत्र में सकल वैल्यू एडिशन की ग्रोथ दर 7.8 फीसदी से बढ़कर 10.3 फीसदी हो गई. आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, 2014-15 के दौरान देश में जब सामान्य पूंजी निवेश बढऩे की गति केवल 5.6 फीसदी थी, तब सर्विसेज में यह 8.7 फीसदी की दर से बढ़ा. अर्थात् अगर भारत में विशाल सेवा क्षेत्र का इंजन न चल रहा होता तो शायद हम बेहद बुरी हालत में होते. यही वजह है कि भारत में विदेशी निवेश आकर्षित करने वाले क्षेत्रों में सेवा क्षेत्र ऊपर है. आर्थिक समीक्षा के आंकड़े बताते हैं कि 2014-15 में सेवा क्षेत्र की दस शीर्ष सेवाओं में विदेशी निवेश 70.4 फीसदी बढ़ा. यह रफ्तार 2015-16 में जारी रही है.
सर्विसेज की ग्रोथ भारतीय बाजार के बुनियादी और पारंपरिक हिस्सों से आई है. पिछले साल ट्रेड, रिपेयरिंग, होटल और रेस्तरां, प्रोफेशनल सर्विस, ट्रांसपोर्ट में 8 से 11.5 फीसदी तक ग्रोथ देखी गई. देश के 21 राज्यों के सकल घरेलू उत्पादन में 40 फीसदी हिस्सा सेवाओं का है. जिन राज्यों में औद्योगिक निवेश सीमित है, वहां भी राज्य की अर्थव्यवस्था की इमारत सेवाओं पर टिकी है. अगर इन सेवाओं में ग्रोथ न होती तो शायद केंद्र से ज्यादा बुरी हालत राज्यों की होती जिनके पास राजस्व के स्रोत बेहद सीमित हैं.
यदि रोजगार, खपत, शहरीकरण और ग्रोथ की संभावनाओं के नजरिए से देखा जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था अपना चोला बदल चुकी है. इस बदलाव की रोशनी में बजट कुछ असंगत लगते हैं. यही वजह है कि दो साल की कोशिश के बाद भी मेक इन इंडिया यानी मैन्युफैक्चरिंग ने गति नहीं पकड़ी जबकि जहां गति थी, वहां सरकार ने ध्यान नहीं दिया. उलटे सबसे तेजी से विकसित होते सर्विसेज क्षेत्र पर करों का बोझ अब सबसे ज्यादा है.
सरकार और बजटों की वरीयताओं में यह गलती शायद इसलिए होती है क्योंकि हम ग्रोथ को नापने के पुराने तरीके नहीं बदल पाए. सबसे आधुनिक और व्यावहारिक पैमाना रोजगार में कमी या बढ़ोतरी को नापना है. ग्रोथ या मंदी का दूसरा बड़ा संकेतक खपत में कमी-बेशी होता है. अमेरिका में तरक्की को नापने के लिए शेयर बाजारों और विशेषज्ञों की निगाह जीडीपी के जटिल आंकड़ों पर नहीं बल्कि हर महीने आने वाले रोजगार और खपत के आंकड़ों पर होती है. रोजगार के जरिए ग्रोथ को नापने का तरीका भारत जैसे देश के लिए भी बेहतर है, जहां विशाल युवा आबादी एक तथाकथित डेमोग्राफिक डिविडेंड का चेक लिये घूम रही है, जिसे कोई भुनाने को तैयार नहीं है.
 अगर सरकार ग्रोथ को नापने के तरीकों की नई रोशनी में भारत के ताजा आर्थिक बदलाव को देखती तो शायद हम बजटों को ज्यादा व्यावहारिक, सामयिक व आर्थिक हकीकत के करीब पाते. इस पैमाने पर 2014 का बजट खेती के लिए होना चाहिए था जबकि 2015 के बजट में मेक इन इंडिया जैसे नारे की बजाए उन चुनिंदा उद्योगों पर फोकस हो सकता था जहां ग्रोथ व रोजगार की गुंजाइश है, और यह बजट सेवा क्षेत्र पर फोकस करता जो भारत की नई उद्यमिता का गढ़ है और जिसे नए टैक्स नहीं बल्कि प्रोत्साहन और सुविधाओं की जरूरत है.
2016 का बजट बताता है कि दो साल की उड़ान के बाद, देर से ही सही, सरकार हकीकत की जमीन पर उतर आई है, हालांकि दो बेहद कीमती बजट गंवाए जा चुके हैं लेकिन फिर भी बड़े बदलावों की शुरुआत कभी भी की जा सकती है.



Wednesday, February 24, 2016

तीस बनाम सत्तर




थ्री स्पीड इकोनॉमी एक अजीब तरह की विकलांगता है जिसे संभालने के लिए सूक्ष्म उपायों की जरूरत है.

स्सी के दशक वाली रीगनॉमिक्स के पुरोधा और ट्रिकल डाउन थ्योरी के प्रवर्तक आज के भारत में आ जाएं तो उन्हें शायद एक नई थ्योरी की ईजाद करनी होगी जिसे ट्रिकल अप थ्योरी कहेंगे. ट्रिकल डाउन थ्योरी वाले कहते थे कि समाज के ऊपरी तबके यानी उद्योग-कारोबार को रियायतें देकर मांग बढ़ाई जा सकती है जो निचले तबके तक रोजगार व कमाई पहुंचाएगी. लेकिन इस सिद्धांत के पुरोधाओं को आज के भारत में यह साबित करने में कतई दिक्कत नहीं होगी कि कभी-कभी किसी देश की इकोनॉमी में ग्रोथ ऊपर से नीचे नहीं बल्कि नीचे से ऊपर चल देती है, जहां एक विशाल अर्थव्यवस्था की ग्रोथ इसके सबसे बड़े हिस्सों को छोड़कर मुट्ठी भर धंधों में सिमट जाती है भारतीय अर्थव्यवस्था अब एक थ्री स्पीड इकोनॉमी है, जिसमें तेज ग्रोथ अर्थव्यवस्था के ऊपरी 30 फीसदी हिस्से में रह गई है, जहां ई- कॉमर्स, ट्रैवेल, स्टॉक मार्केट आदि है. उद्योगों वाला दूसरा 30 फीसदी हिस्सा इकाई की ग्रोथ में है और खेती, भवन निर्माण आदि का तीसरा हिस्सा तो पूरी तरह नकारात्मक ग्रोथ में है. यह परिदृश्य देश में पहली बार देखा गया है. जो एक जगह ग्रोथ बनाए रखने, दूसरी जगह बढ़ाने और तीसरी जगह ग्रोथ वापस लाने की बेहद पेचीदा चुनौती लेकर पेश हुआ है. इस चुनौती की रोशनी में 2016 का बजट बड़ा संवेदनशील हो जाता है.
तीन अलग-अलग रफ्तारों वाली अर्थव्यवस्था के इस माहौल को समझना जरूरी है क्योंकि इस परिदृश्य पर अगले एक-दो साल की ग्रोथ, निवेश और रोजगारों का बड़ा दारोमदार है. मुंबई की रिसर्च फर्म एम्बिट कैपिटल का ताजा अध्ययन थ्री स्पीड इकोनॉमी को गहराई से समझने में हमारी मदद करता है. यह अध्ययन जीडीपी में योगदान करने वाले विभिन्न हिस्सों के ग्रोथ के आंकड़ों पर आधारित है. अर्थव्यवस्था में सबसे तेज दौडऩे वाले तीन क्षेत्रों में तेज रफ्तार वाला पहला हिस्सा वह है जिसमें परिवहन (खास तौर पर एविऐशन), होटल, कॉमर्शियल प्रॉपर्टी, ई-कॉमर्स और कारोबारी सेवाएं आती हैं. दो अंकों की गति से दौड़ रहे इस क्षेत्र का जीडीपी में 30 फीसदी हिस्सा है. गौर तलब है कि भले ही भवन निर्माण उद्योग में मंदी हो लेकिन कॉमर्शियल प्रॉपर्टी बिक रही है. ठीक इसी तरह उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में मंदी के बावजूद ई-कॉमर्स में सक्रियता है. इस तेज दौडऩे वाली अर्थव्यवस्था में वेंचर कैपिटल और पीई फंड के जरिए निवेश आया है. इसके अलावा ऊंची आय वाले निवेशक भी इसमें सक्रिय हैं. इस हिस्से में जल्दी मंदी की उम्मीद भी नहीं है.
मझोली गति वाला दूसरा हिस्सा भी जीडीपी में 30 फीसदी का हिस्सेदार है. एम्बिट का अध्ययन बताता है कि इसमें वाणिज्यिक वाहन यानी ऑटोमोबाइल, मैन्युफैक्टरिंग, आवासीय भवन निर्माण और खनन क्षेत्र आते हैं. इस क्षेत्र में इकाई की गति से मरियल ग्रोथ दर्ज हो रही है. यहां कर्ज में दबी कंपनियां बैलेंसशीट रिसेसशन से जूझ रही हैं, जिसमें कर्ज के कारण नया कॉर्पोरेट निवेश नहीं हो पाता. इसलिए मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के कुछ हिस्सों में मामूली ग्रोथ दिखती है. जैसे पिछली दो तिमाहियों में बंदरगाह परिवहन और रेलवे माल भाड़े की ढुलाई में स्थिरता है जबकि कोयला व बिजली में गिरावट दर्ज की गई है.
शून्य या नकारात्मक ग्रोथ वाला तीसरा हिस्सा खेती, समग्र भवन व इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण, प्रशासनिक सेवाएं व बैंकिंग है. इन सबका जीडीपी में हिस्सा 40 फीसदी है. सरकारी खर्च, सीमेंट, स्टील आदि की मांग व उत्पादन और आय व रोजगारों में वृद्धि के आंकड़े साबित करते हैं कि इन चार क्षेत्रों में हालत सबसे बुरी है. तीन फसलों की बर्बादी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संकट के चलते ग्रामीण मजदूरी की वृद्धि दर 2013-15 के 13.7 फीसदी से घटकर अब -5.5 फीसदी पर आ गई है. बैंकों की हालत बुरी है, मुनाफे गोता खा रहे हैं और कर्ज की मांग पूरी तरह खत्म हो चुकी है. दूसरी तरफ सरकारी खर्च में कटौती के कारण बुनियादी ढांचा निवेश न बढऩे से सीमेंट स्टील की मांग नहीं बढ़ी है. गैर बिके मकानों की भीड़ और प्रॉपर्टी मूल्यों में तेज गिरावट बताती है कि रियल एस्टेट में निवेश का बुलबुला फूट गया है. 
थ्री स्पीड इकोनॉमी ने गवर्नेंस और नीतिगत स्तर पर दो तरह की असंगतियां पैदा की हैं. इसने सरकार को भ्रमित कर दिया है. पिछले दो बजट इसी असमंजस में बीत गए कि दौड़ते को और दौड़ाया जाए, फिर उसके सहारे मंदी दूर की जाए या फिर असली मंदी से सीधे मुठभेड़ की जाए. दूसरी असंगति यह है कि जीडीपी के 30 फीसदी हिस्से में चमक और 70 फीसदी में सुस्ती के कारण अर्थव्यवस्था की सूरते-हाल को बताने वाले आंकड़ों को लेकर गहरी ऊहापोह है.
थ्री स्पीड इकोनॉमी की सबसे व्यावहारिक मुश्किल यह है कि अर्थव्यवस्था के जिस 70 फीसदी हिस्से में सुस्ती या गहरी मंदी छाई है उसमें खेती, भवन निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग आते हैं जो रोजगारों का सबसे बड़े स्रोत हैं. सिर्फ 30 फीसदी अर्थव्यवस्था की चमक 'सूट-बूट की सरकार' जैसी राजनैतिक बहसों को ताकत दे रही और आर्थिक गवर्नेंस को दकियानूसी सब्सिडीवाद की तरफ धकेल रही है जो और बड़ी समस्या है.
इस तीन रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था के बाद हमें जीडीपी को खेती, उद्योग, सेवा क्षेत्रों में बांटकर देखना बंद करना चाहिए और उन मिलियन इकोनॉमीज को देखना होगा जो इन तीन बड़े हिस्सों में भीतर छिपी हैं और मंदी, ग्रोथ व रोजगार में नायक व प्रतिनायक की भूमिका निभा रही हैं.
थ्री स्पीड इकोनॉमी एक अजीब तरह की विकलांगता है जिसे संभालने के लिए सूक्ष्म उपायों की जरूरत है. यकीनन इस तरह की आर्थिक चुनौतियों के इलाज एकमुश्त बजटीय रामबाण में नहीं बल्कि छोटे-छोटे उपायों में छिपे हैं जो सरकार से मैक्रो मैनेजमेंट छोड़कर विशेषज्ञों की तरह क्षेत्र विशेष के इलाज की अपेक्षा रखते हैं. अरुण जेटली, हाल के इतिहास में पहले वित्त मंत्री होंगे जो इस तरह की पेचीदा ग्रोथ गणित से मुकाबिल हैं. इस समस्या के समाधान से पहले उन्हें 2016 के बजट में यह साबित करना होगा कि सरकार समस्या को समझ भी पा रही है या नहीं. चलिए, बजट का इंतजार करते हैं.