यह नामुराद खुदरा कारोबार है ही ऐसा। इसका उदारीकरण हमेशा, हाथ पर फूल और कांटे एक साथ धर देता है। रिटेल का विदेशीकरण एक तरफ से ललचाता है तो दूसरी तरफ से यह जालिम कील भी चुभाता है। यानी, रहा भी न जाए और सहा भी न जाए। वैसे खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा बढ़ने पर हैरत कैसी, संगठित मल्टी ब्रांड रिटेल भारत में दस साल पुराना हो चुका है, जिसमें आंशिक विदेशी निवेश भी हो चुका है। रिटेल में वाल मार्ट आदि की आमद (मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश) के ताजे फैसले का असर अंदाजने के लिए हमारे पास पर्याप्त तथ्य भी हैं जो रिटेल के उदारीकरण की बहस को गाढा और रोचक बनाते हैं। इसलिए अचरज तो इस फैसले की टाइमिंग पर होना चाहिए कि विरोधों की बारिश के बीच सरकार ने रिटेल की पतंग उड़ाने का जोखिम उठाया है। भारत में संगठित रिटेल का आंकड़ाशुदा अतीत, अगर विरोध के तर्कों की धार कमजोर करता है तो रिटेल से महंगाई घटने की सरकारी सूझ को भी सवालों में घेरता है। दरअसल संगठित रिटेल के खिलाफ खौफ का कारोबार जितना आसान है, इसके फायदों का हिसाब किताब भी उतना ही सहज है...जाकी रही भावना जैसी।
रोजगार का कारोबार
भारत में संगठित खुदरा यानी ऑर्गनाइज्ड रिटेल के पास अब एक पूरे दशक का इतिहास है, ढेरों अध्ययन, सर्वेक्षण व रिपोर्टें (इक्रीयर 2008, केपीएमजी 2009, एडीबी 2010, नाबार्ड 2011 आदि) मौजूद हैं, इसलिए बहस को तर्कों के सर पैर दिये जा सकते हैं। ग्रोथ और रोजगार के मामले में भारतीय संगठित रिटेल की कहानी दमदार है। भारत का (संगठित व असंगठित) खुदरा कारोबार यकीनन बहुत बड़ा है। 2008-09 में कुल खुदरा बाजार 17,594 अरब रुपये का था जो 2004-05 के बाद से औसतन 12 फीसदी सालाना की रफतार से बढ़ रहा है, जो 2020 तक 53,517 अरब रुपये का हो जाएगा। नाबार्ड की रिपोर्ट बताती है कि संगठित रिटेल करीब 855 अरब रुपये का है जिसमें 2000 फिट के छोटे स्टोर ( सुभिक्षा मॉडल) से लेकर 25000 फिट तक के मल्टी ब्रांड हाइपरमार्केट (बिग बाजार, स्पेंसर, इजी डे) आदि आते हैं। खुदरा कारोबार में तेज ग्रोथ के बावजूद संगठित रिटेल इस अरबों के बाजार के पिछले एक दशक में केवल पांच