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Monday, November 19, 2012

यूरोप की बड़ी दरार



ग्‍लोबल इकोनॉमी के इमर्जेंसी वार्ड अर्थात यूरोप में चेतावनी के सायरन फिर बज उठे हैं। यूरोप जैसे कि इस इंतजार में ही था कि कब अमेरिका व चीन में सियासत की रैलियां खत्‍म हों और संकट के नए अध्‍याय शुरु किये जाएं। ग्रीस व स्‍पेन वेंटीलेटर पर थे ही इस बीच अधिकांश यूरोपीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं में मंदी की महामारी आ जमी है। लेकिन यह सब कुछ पीछे है, सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि यूरोपीय संघ टूटने को तैयार है। ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर जाने की दहलीज पर है। यूरोप की बड़ी राजनीतिक व आर्थिक ताकत ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच एक साल से चौडी हो रही दरार का नतीजा इस सप्‍ताह ब्रसेल्‍स की शिखर बैठक में सामने आ सकता है। 22 नवंबर की इस बैठक में यूरोपीय संघ का बजट पारित होना है। ग्‍लोबल बैंकिंग पर यूरोपीय संघ की सख्‍ती से उखड़ा ब्रिटेन बजट में किसी भी बढ़ोत्‍तरी को रोकने का ऐलान कर चुका है। बैंकिंग व वित्‍तीय सेवायें बर्तानवी अर्थव्‍यवस्था की जान हैं। इसलिए ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से बाहर होने के पक्ष में सियासत काफी गरम है।
ब्रिटिश समस्‍या 
नवंबर के दूसर सप्‍ताह में अमेरिका में जब राष्‍ट्रपति बराक ओबामा अपने दूसरे कार्यकाल के लिए शिकागो से वाशिंगटन डीसी रवाना हो रहे थे और बीजिंग में चीन के नए मुखिया श्‍यी जिनपिंग की ताजपोशी शुरु हो रही थी ठीक उस दौरान लंदन की दस डाउनिंग स्‍्ट्रीट में यूरोपीय संघ का विघटन रोकने की अंतिम कवायद चल रही थी। जर्मन चांसलर एंजला मर्केल लंदन में थीं और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन को यूरोपीय संघ के बजट में बढ़ोत्‍तरी पर राजी करने की कोशिश कर रही थीं। दावत अच्‍छी थी मगर बात नहीं बनी। फैसला इस सपताह ब्रसेल्‍स में होगा।
ब्रिटेन यूरो मुद्रा संघ का सदस्‍य नहीं है, यानी यूरोजोन से बाहर है वह यूरोपीय संघ की एकल वीजा शेंजन प्रणाली का हिस्‍सा भी नहीं है अर्थात वह संघ में आधा शामिल है। लेकिन इससे यूरोप की आर्थिक राजनीति में ब्रिटेन की अहमियत कम नहीं होती। जर्मनी और फ्रांस के बाद यूरोप की तीसरी सबसे बडी अर्थव्‍यवस्‍था ब्रिटेन यूरोपीय संघ की एकजुटता

Monday, October 1, 2012

बड़े दांव और गहरे जोखिम



ह इतिहास बनते देखने का वक्‍त है, जो आर या पार के मौके पर बनता है। दोहरी मंदी और वित्‍तीय संकटों की अभूतपूर्व त्रासदी में खौलते अटलांटिक के दोनों किनारों में ऐतिहासिक फैसले शुरु हो गए हैं। यूरोप और अमेरिका में ग्रोथ को वापस लाने की निर्णायक मुहिम शुरु हो चुकी है। जिसकी कमान सरकारों के नहीं बल्कि प्रमुख देशों के केंद्रीय बैंकों के हाथ है। अमेरिकी फेड रिजर्व और यूरोपीय केंद्रीय बैंक अब मंदी और संकट से मुकाबले के आखिरी दांव लगा रहे हैं। केंद्रीय बैंकों के नोट छापाखाने ओवरटाइम में काम करेंगे। मंदी को बहाने के लिए बाजार में अकूत पूंजी पूंजी छोड़ी जाएगी। यह एक नया और अनदेखा रास्‍ता है जिसमें कौन से मोड और मंजिले आएंगी, कोई नहीं जानता। क्‍या पता मंदी भाग जाए या फिर यह भी सकता है कि  सस्‍ते डॉलर यूरो दुनिया भारत जैसी उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के बाजार में पहुंच कर नई धमाचौकड़ी मचाने लगें। या ग्‍लोबल महंगाई नई ऊंचाई छूने लगे। .... खतरे भरपूर हैं क्‍यों कि इतने बड़े जोखिम भी रोज रोज नहीं लिये जाते।
पूंजी का पाइप 
बीते 15 सितंबर को दुनिया के बाजारों में लीमैन ब्रदर्स की तबाही की चौथी बरसी अलग ढंग से मनाई गई। फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नांके ने अमेरिका के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा जोखिम लेते हुए बाजार में हर माह 40 अरब डॉलर झोंकने का फैसला किया, यानी क्‍वांटीटिव ईजिंग का तीसरा दौर। तो दूसरी तरफ यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने कर्ज संकट में ढहते यूरोपीय देशों के बांड खरीदने का ऐलान कर दिया। बैंक ऑफ जापान  ने भी बाजार में पूंजी का पाइप खोल दिया। इन खबरों से शेयर बाजार जी उठे और यूरोप और अमेरिका के बांड निवेशकों के चेहरे खिल गए।
अमेरिका को मंदी से उबारने के लिए शुरु हुआ फेड रिजर्व का आपरेशन ट्विस्‍ट कई मामलों में अनोखा और क्रांतिकारी है। पहला मौका है जब

Monday, August 13, 2012

ब्रिटेन की अगली मेजबानी



जाने भी दीजिये ब्रांड लंदन !!! हमें तो यह देखना है ब्रिटेन की मेजबानी में ओलंपिक के बाद क्‍या होने वाला है …!  एक ग्‍लोबल कंपनी के मुहफट मुखिया ने यह बात ठीक उस समय कही जब प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन ओलंपिक को ब्रिटेन की आर्थिक तरक्‍की का मुकुट बता रहे थे। कैमरुन सरकार  ओलंपिक मेडल्‍स में ब्रिटेन की खेल ताकत दिखा रही थी तो निवेशक लंदन की वित्‍तीय साख पर दागों की लिस्‍ट बना रहे थे और ओलंपिक के भव्‍य उद्घाटन से निगाहें हटाकर ब्रिटेन की भयानक मंदी की आंकड़े पढ़ रहे थे। शताब्दियों से पूरी दुनिया के बैंकर रहे लंदन के बैंक घोटालों की नई नई किस्‍मे ईजाद कर रहे हैं और ब्रिटेन की अर्थव्‍यवस्‍था की यूरोजोन से जयादा बुरी हालत में है। ब्रिटेन विश्‍व की वित्‍तीय नब्‍ज संभालता है इसलिए बाजारो में डर की नई सनसनी है। यूरोप की चुनौतियां यूरोजोन से बाहर निकल कर ब्रिटेन के रास्‍ते ग्‍लोबल बैकिंग में फैल रहीं हैं। ओलंपिक के बाद यूरोपीय संकट की जो पदक तालिका बनेगी उसमें ब्रिटेन सबसे ऊपर होगा।
तालियों का टोटा
अमेरिका व चीन के बाद ओलंपिक की तीसरी ताकत होते हुए भी ब्रिटेन दरअसल तालियों को तरस गया। क्‍यों कि ऐन ओलंपिक के मौके पर लंदन दुनिया को तरह तरह के घोटाले और अपनी साख ढहने की खबरें बांट रहा था। 241 ग्‍लोबल बैंकों का गढ़ लंदन विश्‍व का वित्‍तीय पावर हाउस है। यहां हर रोज करीब 1.4 ट्रिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा और ब्‍याज दर सौदे होते हैं, जो इस तरह के विश्‍व कारोबार का का 46 फीसदी है। बैंकरों, बीमा कंपनियों, हेज फंड, ब्रोकरों, रिसर्च फर्म से लंद फंदे लंदन के वित्‍तीय कारोबारी जोन (फाइनेंशियल डिस्टि्क्‍ट) में सेकेंडों में अरब डॉलर इधर से उधर होते है। बीते सप्‍ताह जब ओलंपिक का झंडा चढ़ रहा था तब ब्रिटेन वित्‍तीय पारदर्शिता का परचम उतरने

Monday, June 18, 2012

यूरोप का खौफ खाता


स्‍पेन के वित्‍त मंत्री क्रिस्‍टोबाल मोंटेरो कार से उतर कर वित्‍त मंत्रालय की इमारत की तरफ बढे ही थे कि पत्रकारों व सुरक्षा कमिर्यों की भीड को चीरते हुए एक अधेड़ महिला आगे आई ओर मोंटेरो से हाथ मिलाते हुए बोली..   मि. फाइनेस मिनिस्‍टर! मैं स्‍पेन की नागरिक हूं। बहुत डरी हुई हूं। मेरा पैसा बैंकिया (प्रमुख स्‍पेनी बैंक) में जमा है। क्‍या मुझे पूरा पैसा निकाल लेना चाहिए। 
नहीं!  . वित्‍त मंत्री मोंटेरो ने जवाब दिया
क्‍या आप पूरी तरह आश्‍वस्‍त हैं ?.. महिला ने जोर देकर पूछा
हां हां बिलकुल!  .. मोंटेरो ने जवाब दिया।
मैंने पूरी जिंदगी काम किया है। अगर कोई मेरा पैसा ले लेगा, तो मैं किसी को मार डालूंगी ... महिला ऊंची आवाज में बोली ... मोंटेरो तब तक आगे बढ गये थे।
एक निवेशक को यूट्यूब पर यह ताजा वीडियो दिखाते हुए वह विश्‍लेषक बोला, बेचारा यूरोप! बस इसी का तो खौफ था। यूरोप के समृद्ध इतिहास में दर्ज बैंकों की तबाही के किस्‍से स्‍पेन और ग्रीस में शहरों में खुद को दोहराने लगे हैं। बैंकों का डूबना, यूरोपीय समाज का सबसे गहरा मनोवैज्ञानिक डर इसलिए है क्‍यों कि बैंकों से जमा निकालने लिए जनता की अफरा तफरी  (बैंक रन)  कुछ घंटों में एक ताकतवर मुल्‍क को पिद्दी सा देश (बनाना रिपब्‍ल‍िक) बना देती है। यूरोप सरकारें भी  अब सुधार व उद्धार छोड़ कर आपदा प्रबंधन में लग गई हैं। खौफ जायज भी है क्‍यों कि जब सरकारें दीवालिया हों और बैंक तबाह, तो उबरने की उममीदें भी खत्‍म हो जाती हैं। यही वजह है कि दुनिया मैक्सिको में दुनिया के 20 दिग्‍गजों (जी20) जुटान को नहीं बल्कि ग्रीस के चुनाव को देख रही है। ग्रीस के चुनाव परिणाम इसी सप्ताह यूरो का भविष्‍य तय कर देंगे।
भरोसे का डूबना   
150 साल में  करीब सत्रह बैंकिंग, कर्ज  मुद्रा संकटों के धनी स्‍पेन के बैंकों को जब बीते सप्‍ताह 100 अरब यूरो का कर्ज मिला तो यूरोप में बैंकों के फायर अलार्म बज उठे। यूरोजोन की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था (स्‍पेन) के ऑक्‍सीजन लगने के बाद अब यूरोप की सेहत बैकों में जमा व निकासी के आंकड़े से परखी जा रही है। इस साल में अब तक स्‍पेन के बैंकों से करीब 50 अरब यूरो निकाले जा चुके हैं। स्‍पेन का प्रमुख बैंक, बैकिया, ताजा राष्‍ट्रीकण से पहले  करीब एक अरब यूरो की जमा गंवा चुका था। इधर 14 व 15 मई को दो दिन में लोगों ने ग्रीस के बैंकों से 180 करोड़ यूरो , पुर्तगाल और इटली के हाल भी ऐसे ही है। बैंकिंग उद्योग मान रहा है कि यूरोप में एक स्‍लो बैंक रन (जमा की लगातार निकासी) शुरु हो गई है और साथ में पूंजी पलायन भी। स्‍पेन से करीब 100 अरब यूरो और इटली के बाजारों से करीब दस फीसदी पूंजी हाल में बाहर गई है। इस पूंजी के ठिकाने जर्मनी अमेरिका और स्विटजरलैंड के बैंक या बाजार हैं, जिनकी अर्थव्यवस्‍थायें कमोबेश सुरक्षित हैं। लेकिन इतने यूरो की आवक को देखकर स्विस व जर्मन सरकारें नई पाबंदिया लगाने वाली है। बैंक ऑफ इंग्‍लैंड के वर्तमान गर्वर्नर मर्विन किंग ने एक बार कहा था कि बैंक रन (डर में जमा की निकासी) की शुरुआत गलत है मगर एक बार जब यह शुरु हो जाए तो इसमें भाग लेना ही समझदारी है। ग्रीस के यूरो जोन से अलग होते ही बैंकों पर आफत टूटेगी। इसलिए यूरोप की सरकारें बैंक व एटीएएम से जमा की निकासी, देश से बाहर पैसा ले जाने की सीमायें और इलेक्‍ट्रानिक फंड ट्रांसफर की सीमायें तय करने की तैयारी में है।

Monday, April 2, 2012

यूरोप की महासेल

रज यूरोप की मौज तीसरी दुनिया के नए अमीरों की! बिकवाल सरकारें और खरीददार भी सरकारें! माल चुनिंदा और बेशकीमती! कीमत बेहद आकर्षक। .... यूरोप में दुनिया की सबसे नायाब सेल शुरु हो चुकी है!! बिजली, तेल, गैस कंपनियां, वाटर वर्क्‍स, हवाई अड्डे, द्वीप, बैंक जैसी यूरोपीय संपत्तियों से सजा यह बाजार देखते ही बनता है । जहां तीसरी दुनिया के अमीर मुल्‍क यूरोप के कर्ज मारे देशों की अनमोल संपत्तियां खरीद रहे हैं। सॉवरिन डेट (संप्रभु कर्ज) से तबाह यूरोप को एशिया की सॉवरिन वेल्‍थ उबार रही है। अकूत मुद्रा भंडारों से लैस चीन और अरब देशों के लिए यह दोबारा न मिलने वाला मौका है, इसलिए इनके सॉवरिन (सरकारी) वेल्‍थ फंड इन बाजारों में चुन चुन कर माल उठा रहे हैं। इस खरीद के बाद जो बचेगा उसे साफ करने के लिए वित्‍तीय बाजार के गिद्ध तैयार हैं। अमेरिका के तमाम वल्‍चर फंड भी यूरोप पर मंडरा रहे हैं। परेशान हाल देशों व बैंकों की टोह ली जा रही है ताकि संपत्तियों को कौडि़यों के मोल खरीदा जा सके। कर्ज की कटार अब यूरोपीय प्रगति की जडे काट रही है।
कौड़ी मोल
पुर्तगाल की सबसे बड़ी बिजली कंपनी ईडीपी में 21 फीसदी हिस्‍सा चीन के पास पहुंच गया है। चीन की सार्वजनिक कंपनी थ्री गॉर्जेस (दुनिया की सबसे बड़ी प‍नबिजली परियोजना की मालिक) ने पुर्तगाल में यह शानदार हाथ मारने के लिए बीते साल के अंत में करीब 3.5 अरब डॉलर खर्च किये। कर्ज के मारे पुर्तगाल को यूरोपीय समुदाय व आईएमएफ ने जो मदद दी थी उसमें यह शर्त शामिल थी कि पुर्तगाल अपनी बिजली कंपनियों में हिस्‍सेदारी बेच कर पैसे जुटायेगा। पुर्तगाल अपने नेशनल बिजली‍ ग्रिड के 40 फीसदी हिस्‍से

Monday, January 23, 2012

यूरोप करे, दुनिया भरे

मीर और खुशहाल यूरोप 2012 में दुनिया की सबसे बड़ी साझा मुसीबत बनने वाला है। अमेरिका  अपनी सियासत, मध्‍य पूर्व अपनी खींचतान और एशिया अपनी अफरा तफरी से मुक्‍त होकर जब विश्‍व की तरफ मुखातिब होंगे तब तक यूरोप दुनिया के पैर में बंधे सबसे बड़े पत्‍थर में तब्‍दील हो चुका होगा। दुनिया की दहलीज पर यूरोपीय संकट की दूसरी किश्‍त पहुंच गई है। 2012 में एक फीसदी से कम ग्रोथ वाला यूरोप दुनिया की मंदी का जन्‍मदाता होगा। कर्ज संकट का ताजा धुंआ अब जर्मनी के पश्चिम व पूरब से उठ रहा है। ग्रीस की आग बुझाने निकले फ्रांस के फायर टेंडर जलने लगे हैं। आस्ट्रिया की वित्‍तीय साख भी लपेट में आ गई है। कर्ज के अंगारों पर बैठे स्‍पेन, इटली पुर्तगाल, आयरलैंड की जलन दोगुनी हो गई है। इन सबके साथ यूरोप के सात छोटे देश भी बाजार में रुतबा गंवा बैठे हैं। रहा ग्रीस तो, वहां से तो अब सिर्फ दीवालियेपन की अधिकृत खबर का इंतजार है। यूरोप के कर्जमारों को  उबारने की पूरी योजना इन सारी मुसीबतों का एक मुश्‍त शिकार होने वाली है। यूरोप के पास मुश्किलों से उबरने के लिए पूंजी व संसाधनों की जबर्दस्‍त किल्‍लत होगी यानी  यूरोप का कर्ज इस साल दुनिया की देनदारी बन जाएगा।
मदद मशीन की मुश्किल
नए साल के पहले पखवाड़े में ही दुनिया की पांचवीं और यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यव्‍सथा अपनी साख गंवा बैठी। अमेरिका में राजनीतिक विरोध के बावजूद रेटिंग एजेंसी स्‍टैंडर्ड एंड पुअर ने बेखौफ होकर फ्रांस ट्रिपल ए रेटिंग छीन ली। यानी कि फ्रांस भी अब निवेशकों के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा। ऑस्ट्रिया ने भी अपनी तीन इक्‍कों वाली साख गंवा दी। फ्रांस व आस्ट्रिया की साख गिरने से कर्जमारे पिग्‍स (पुर्तगाल, इटली,ग्रीस, आयरलैंड, स्‍पेन) को उबारने वाली मशीन संकट में फंस गई है। एस एंड पी ने सबको चौंकाते हुए यूरोपियन फाइनेंशियल स्‍टेबिलिटी फैसिलिटी (ईएफएसएफ) का साख भी घटा दी। यह संस्‍था यूरोजोन के संकट निवारण तंत्र का

Monday, December 12, 2011

डूब कर ही उबरेगा यूरोप

यूरो जोन तवे से गिरकर चूल्‍हे में आ गया है। कर्ज संकट की लपट से बचने के लिए यूरोप के खेवनहार अपनी दुकानें अलग करने लगे हैं। यूरोप का राजनीतिक नेतृत्‍व करो या मरो टाइप का एजेंडा लेकर इस सप्‍ताह ब्रसेल्स में जुटा था। दस घंटे तक मगजमारी के बाद यूरोपीय रहनुमा जब बाहर आए तो यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यव्‍स्‍था ब्रिटेन साथ नहीं थी। डेविड कैमरुन,  यूरोप की नई संकट निवारण संधि को शुभकामनायें देकर कट लिये और यूरोपीय एकता का शीशा खुले आम दरक गया। हालांकि मर्कोजी मान रहे हैं कि यूरोपीय देश नई सख्‍त वित्‍तीय अनुशासन संधि में बंध कर संकट से बच जाएंगे। यह बात अलग है नेताओं की इन कोशिशों पर बाजार का भरोसा जम नहीं रहा है।  रेटिंग एजेंसियां कह रही हैं कि यूरोपीय देशों 2012 में कर्ज की बहुत भारी देनदारी आ रही है जो सुधारों के इस नए इंतजाम से नहीं रुकने वाली। बाजार मान रहा है कि यूरोजोन पर कर्ज की इतनी बारिश हो चुकी है कि सुधारों की धूप की निकलने पर भी यह ढह जाएगा।
यूरो की खातिर
यूरोप के राजनेता जो बच सके बचाने की फिराक में हैं। यह सर्वनाशे समुत्‍पन्‍ने  अर्ध: त्‍यजति पंडित: जैसी स्थिति है। ब्रसेल्‍स की यूरोपीय संघ शिखर बैठक से पेरिस में मर्कोजी ( एंजेल मर्केल और निकोलस सरकोजी) ने तय कर लिया था कि यूरोप की मौद्रिक एकता को बचाने के  यूरोपी देशों के बजटों का डीएनए ठीक करना होगा है। अब पूरा यूरोपीय संघ एक नई संधि में बंधेगा जिसमें बेहद सख्‍त वित्‍तीय अनुशासन होगा और घाटों के बेहाथ होने पर देशों को जुर्माना चुकाना पड़ेगा। यूरो मुद्रा अपनाने वाले 17 देशों के लिए तो नियम और भी सख्‍त है। व्‍यवहारिक रुप से यूरोप के सभी देशों को अपने बजट अपनी संसद से पहले यूरोपीय आयोग को दिखाने होंगे। संप्रभु मुल्‍कों पर को पहली एसी विकट शर्त

Monday, November 7, 2011

शिखर पर शून्‍य

हीं, वे कुछ नहीं कर सके!! झूठी मुस्‍कराहटों में खिसियाहट छिपाते हुए जी20 की बारात कांस से अपने डेरों को लौट गई है। 1930 की मंदी के बाद सबसे भयानक हालात से मुखातिब है दुनिया को अपने  रहनुमाओं कर्ज संकट और मंदी रोकने की रणनीति तो छोडि़ये, एकजुटता, साहस, दूरंदेशी, रचनात्‍मकता, नई सोच तक नहीं मिली। जी20 की जुटान शुरु से अंत तक इतनी बदहवास थी कि कि शिखर बैठक का 32 सूत्रीय बयान दुनिया के आर्थिक परिदृश्‍य पर उम्‍मीद की एक रोशनी भी नहीं छोड़ सका। इस बैठक के बाद यूरो जोन बिखराव और राजनीतिक संकट के कई कदम करीब खिसक गया है। इटली आईएमएफ के अस्‍पताल में भर्ती हो रहा है और जबकि ग्रीस के लिए ऑक्‍सीजन की कमी पड़ने वाली है। तीसरी दुनिया ने यूरोप के डूबते अमीरों को अंगूठा दिखा दिया है और मंदी से निबटने के लिए कोई ग्‍लोबल सूझ फिलहाल उपलब्‍ध नहीं है। कांस की विफलता की सबसे त्रासद पहलू यह है कि इससे दुनिया में नेतृत्‍व का अभूतपूर्व शून्‍य खुलकर सामने आ गया है अर्थात दुनिया दमदार नेताओं से खाली है। इसलिए कांस का थियेटर अपनी पूरी भव्‍यता के साथ विफल हुआ है।
डूबता यूरो
देखो लाश जा रही है ! (डेड मैन वाकिंग).. य‍ह टिप्‍पणी किसी ने इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्‍कोनी को देखकर की थी जब वह कांन्‍स की बारिश से बचने के लिए काले ओवरकोट में लिपटे हुए फ्रेंस रिविऐरा रिजॉर्ट ( बैठक स्‍थल) पहुंचे। यह तंज आधे यूरोप के लिए भी फिट था, जो कर्ज में डूबकर अधमरा हो गया है। जी20 ने यूरोप का घाव खोल कर छोड़ दिया है। बैठक का उद्घघाटन यूरोजोन के बिखरने की चेतावनी के साथ हुआ। ग्रीस ने खुद को उबारने की कोशिशों को राजनीति (उद्धार पैकेज पर जनमत संग्रह) में फंसाकर पूरे यूरोपीय नेतृत्‍व की फजीहत करा दी और यूरो जोन की एकजुटता पर बन आई। ग्रीस का राजनीतिक संकट जब टला तब तक कांन्‍स का मेला उखड़ गया था। यूरोप को सिर्फ यह मिला कि कर्ज के जाल में फंसा इटली आईएमएफ की निगहबानी में आ गया है। जो इटली की गंभीर बीमारी

Monday, October 31, 2011

रहनुमाओं का थियेटर

बाल बाल बचा !!! कौन ? ग्रीस ? नहीं यूरोप अमेरिका को चलाने वाला एंग्‍लो सैक्‍सन आर्थिक मॉडल। ग्रीस अगर दिनदहाडे़ डूब जाता तो पूरा जी 20 ही बेसबब हो जाता। ग्रीस की विपत्ति टालने के लिए यूरोप में बैंकों की बलि का उत्‍सव शुरु हो गया है। बैंकों से कुर्बानी लेकर अटलांटिक के दोनों किनारों पर (अमेरिकी यूरोपीय) सियासत ने अपनी इज्‍जत बचा ली है नतीजतन ओबामा-मर्केल-सरकोजी-कैमरुन (अमेरिका, जर्मन फ्रांस, ब्रिटेन राष्‍ट्राध्‍यक्षों) की चौकडी जी 20 की कान्‍स पंचायत को अपना चेहरा दिखा सकेंगे। ग्रीस राहत पैकेज के बाद फिल्‍मों के शहर कांस (फ्रांस) में विश्‍व संकट निवारण थियेटर का कार्यक्रम बदल गया है। यहां अब भारत चीन जैसी उभरती ताकतों के शो ज्‍यादा गौर से देखे जाएंगे। इन नए अमीरों को यूरोप को उबारने में मदद करनी है और विकसित मुल्‍कों से अपनी शर्तें भी मनवानी हैं। विश्‍व के बीस दिग्‍गज रहनुमाओं के शो पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। कांस का मेला बतायेगा कि विश्‍व नेतृत्‍व ने ताजा वित्‍तीय हॉरर फिल्‍म की सिक्रप्‍ट बदलने की कितनी ईमानदार कोशिश की और यह संकट का यह सिनेमा कहां जाकर खत्‍म होगा।
और ग्रीस डूब गया
यूरोपीय सियासत की चपेट में आर्थिक परिभाषायें बदलने लगी हैं। शास्‍त्रीय अर्थों में मूलधन या ब्‍याज को चुकाने में असफल होने वाला देश संप्रभु दीवालिया (सॉवरिन डिफॉल्‍ट) है। इस हिसाब से बैंकों की कृपा ( तकनीकी भाषा में 50 फीसदी हेयरकट) का मतलब ग्रीस का दीवालिया होना है। मगर यूरोपीय सियासत इसे कर्ज माफी कह रही है। पिछली सदी के सातवें दशक में अर्जेंटीना यही हाल हुआ था और बाजार ने उसे दीवालिया ही माना था। यूरोप व तीसरी दुनिया में यही फर्क है। ग्रीस का ताजा पैकेज 2008 अमेरिकी लीमैन संकट की तर्ज पर है यानी कि बैंकर्ज माफ करेंगे और बाद में सरकारें बैंकों को

Monday, August 29, 2011

नेतृत्‍व का ग्‍लोबल संकट

राक ओबामा, एंजेला मर्केल, निकोलस सरकोजी, डेविड कैमरुन, नातो कान, मनमोहन सिंह, आंद्रे पापेद्रू (ग्रीस), बेंजामिन् नेतान्याहू, रो्ड्रियो जैप्टारो (स्पे न) आदि राष्ट्राध्यक्ष सामूहिक तौर पर इस समय दुनिया को क्या दे रहे हैं ??  केवल घटता भरोसा,  बढता डर और भयानक अनिश्चितता !!!!  सियासत की समझदारी ने बड़े कठिन मौके पर दुनिया का साथ छोड़ दिया है। हर जगह सरकारें अपनी राजनीतिक साख खो रही हैं। राजनीतिक अस्थिरता के कारण इस सप्‍ताह जापान की रेटिंग घट गई। दुनिया के कई प्रमुख देश राजनीतिक संकट के भंवर में है। भारत में अन्ना की जीत सुखद है मगर एक जनांदोलन के सामने सरकार का बिखर जाना फिक्र बढ़ाता है। मंदी तकरीबन आ पहुंची है। कर्ज का कीचड़ बाजारों को डुबाये दे रहा है। इस बेहद मुश्किल भरे दौर में पूरी दुनिया के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके सहारे उबरने की उम्मीद बांधी जा सके। राजनीतिक नेतृत्व की ऐसी अंतरराष्ट्रीय किल्‍लत अनदेखी है। पूरी दुनिया नेतृत्व के संकट से तप रही है।
अमेरिकी साख का डबल डिप
ओबामा प्रशासन ने स्टैंडर्ड एंड पुअर के मुखिया देवेन शर्मा की बलि ले ली। अपना घर नहीं सुधरा तो चेतावनी देने वाले को सूली पर टांग दिया। मगर अब तो फेड रिजर्व के मुखिया बर्नांकी ने भी संकट की तोहमत अमेरिकी संसद पर डाल दी है। स्टैंडर्ड एंड पुअर ने दरअसल अमेरिका की वित्तींय साख नहीं बल्कि राजनीतिक साख घटाई थी। दुनिया का ताजी तबाही अमेरिका पर भारी कर्ज से नहीं निकली, बल्कि रिपब्लिकन व डेमोक्रेट के झगड़े

Monday, August 15, 2011

दहकते हुए दो सवाल


क्या मंदी घेर ही लेगी? दुनिया में वित्तीय तबाही कैसे रुकेगी? अमेरिकी साख से जिनकी साख जुड़ी है वह देश, बैंक या कंपनियां कहां सर फोड़ेंगे? इटली स्पेन कब डिफॉल्ट। होंगे? कितने और बैंकों की श्रद्धांजलि छपेगी ? डॉलर की जगह कौन सी मुद्रा लेगी ? बेकारी व खर्च में कमी से गुस्सा ये लोग अब किस शहर को लंदन बनायेंगे ? चीन क्या खुद संकट में नहीं हैं? संकट के इलाजों से महंगाई कितनी बढ़ेगी ? ... दहकते हुए सवालों का लावा ! अनिश्चितता ऐसा तूफान ! अभूतपूर्व है यह सब कुछ !!!. जवाब के लिए तर्क, आंकड़े, इतिहास, तथ्यत, संभावनायें परखने तक का वक्त् तक नहीं। अमेरिका की रेटिंग घटने के बाद से सवालों के उठने की रफ्तार बाजारों के गिरने की गति से सौ गुना ज्यादा है। हर घंटे नए सवालों की फौज ललकारती हुई खड़ी हो जाती है। सवालों की इस भीड़ में दो प्रशन सबसे ज्या दा दहक रहे हैं। जिनके जवाब की तलाश में दुनिया के हर निवेशक, उद्यमी, रोजगार चाहने वाले की आंखें , अखबारों व कंप्यूटर स्क्रीनों से चिपकी हैं, कि शायद कहीं कोई उम्मीद कौंध जाए। इन दो की पीठ पर ही हजारों सवाल लदे हैं।
पहला सवाल : क्या अमेरिका और पश्चिम यूरोप की सरकारों के पास इतने संसाधन व क्षमता है तक वह दुनिया के वित्तीय तंत्र को डूबने से बचा सकें ??
बच जाएंगे मगर कीमत बड़ी होगी। दुनिया में इतना पैसा नहीं है कि डूबते सिस्टम को एकमुशत उबार सके। वित्तीतय बाजार में सबकी किस्मंत गुंथी हुई है इसलिए प्रायशिचत भी साझा होगा। तभी तो अमेरिका की साख घटने के बाद बाजारों ने कुछ दिनों में चार ट्रिलियन डॉलर गंवा दिये। अमेरिका की 168 शीर्ष वित्तीदय कंपनियां (मोर्गन, सिटी ग्रुप आदि आदि) अपनी बुकवैल्यू से 60 फीसदी कम पर बाजार में बिक रही हैं। अमेरिकी या यूरोपीय बांडों में पैसा लगाने वाले बैंक, कंपनियां आगे भी डूबेंगे। क्यों कि यह संकट सरकारों से ज्यादा उनका है जो सरकारों कर्ज दिये बैठे हैं। मगर दर्द सरकारों ने दिया है तो दवा भी वही देंगी। पहली कोशिश है सस्तेउ से सस्ता कर्ज देने कि ताकि पैसे की कमी से कोई न डूबें। यह काम केवल सरकारें कर सकती हैं। कोई स्टैंहडर्ड एंड पुअर कितनी भी बड़ी क्यों न हो, करेंसी नोट नहीं छाप सकती। नोट छपेंगे और पैसा बहेगा। बैंकों व सरकारों ने बाजार में दखल देकर बचाव शुरु कर दिया है। केंद्रीय बैंक सस्ता पैसा लेकर मोर्चे पर हैं। बड़े बैंकों को डूबने से बचाया जाएगा और छोटों को डूबने दिया जाएगा। अमेरिकी फेड रिजर्व का यही फार्मूला है। दूसरी समस्या है सरकारों की कर्ज की, जिसका इलाज सरकारों की संप्रभुता से ही निकलेगा। कानून बनाकर कर्ज का भुगतान टालने (ग्रीस की तर्ज पर) या बैंकों से कर्ज माफ कराने कोशिशें शुरु होने वाली हैं। देशों की संपुभता सवोच्च है और कोई वित्तीकय तंत्र देश की सीमाओं के बाहर नहीं है। इसलिए देशों की संसदें जो कहेंगी, बैंकों को मानना ही होगा। मजबूरी जो ठहरी।
खतरों का अंधेरा – कम ब्याज दरों से मुद्रास्फीति बढ़ने का जोखिम है तो कर्ज देनदारी टालने पर सरकारें साख गंवायेंगी। कई और बैंक व वित्तीदय संस्था्यें डूब सकते हैं। सरकारों को टैक्स बढ़ा कर और खर्च घटाकर अलोकप्रिय होना पड़ेगा। यूरोप अभी और डरायेगा। बाजार लगातार गोते खायेंगे। मगर इस निर्मम इलाज की पीड़ा झेलनी ही होगी।
उम्मीद की रोशनी – इस संकट में देश, बैंक व निवेशक सब थोड़ा थोड़ा गंवायेंगे, मगर शायद हम बच जाएंगे। सरकारो की राजनीतिक समझदारी का इम्तहान अब शुरु हुआ है।
दूसरा सवाल : मंदी का खतरा कितना सच है ?
खतरा भरपूर है। तथ्या देखिये। एक- दुनिया की सबसे बड़ी (अमेरिकी) अर्थव्यटवसथा साल की पहली तिमाही में केवल 0.4 फीसदी बढ़ी। दो- ग्रोथ के दो बड़े इंजन चीन व भारत सुस्त पड़ रहे हैं। तीन- पूरी दुनिया में महंगाई बढ़ रही है उपभोक्ता खर्च सिकोड़ रहे हैं। चार- रोजगारों में तगडी गिरावट है। यूबीएस कहता है कि अमेरिका में 4.5 लाख सरकारी नौकरियां घटेंगी और यूरोप में इसकी दोगनी। पांच - यूरोप की विकास दर में बढ़ोत्तरी कोई उम्मीद नहीं है। छह- जापान टूट चुका है,विकास दर धराशायी है। सात- तेल की कीमतें महंगाई का ईंधन हैं। ..... यानी कि मंदी की पालकी तैयार है। अमेरिका में डबल डिप ( आर्थिक विकास दर में लगातार गिरावट) ही नहीं, दुनियावी मंदी का खतरा है। 2008 और 2011 की गिरावट में फर्क यह है कि तब अमेरिका-यूरोप-जापान फिसल रहे थे मगर भारत व चीन के ग्रोथ इंजन दहाड़ रहे थे। अब दुनिया में उस पार गिरावट है तो इस तरफ सुस्तीे। यूरोप अमेरिका में मांग घटने से उत्पाकदन गिरा है तो भारत-चीन-लैटिन अमेरिका में मांग घटाने के लिए उत्पा दन गिराया जा रहा है ताकि महंगाई रुक सके। इस सूरते हाल का भविष्य मंदी है। महंगाई व मंदी के इलाज एक दूसरे के उलटे हैं। पश्चिम यूरोप व अमेरिका मांग बढ़ाने के लिए बाजार में पैसा बढ़ायेंगे जबकि चीन व भारत महंगाई थामने के लिए मुद्रा का प्रवाह सिकोड़ रहे हैं। अर्थात ग्रोथ बढाने पर दुनिया बंटी हुई है। गौरतलब है कि जब भी पेट्रो उत्पादों पर खर्च की लागत विश्वर जीडीपी के मुकाबले तीन फीसदी से ऊपर गई हैं, मंदी आई है। 1973-74 के अरब इजरायल युद्ध, 1979 के ईरान युद्ध और 2008 के वित्तीय संकट ( तेल कीमत 147 डॉलर प्रति बैरल तक) में ऐसा हुआ था। यानी कि मंदी का डर सौ फीसदी जायज है।
खतरों का अंधेरा– दुनिया के अधिकांश हिस्सों में महंगाई के बीच कर्ज का प्रवाह बढ़ाना बारुद हाथ में लेकर आग बुझाने की प्रेक्टिस करने जैसा है। मगर ग्रोथ पर दांव लगाने के अलावा कोई दूसरा रास्ताझ भी नहीं है। अगर ग्रोथ लौटी तो बहुत सारी मुश्किलें हल हो जाएंगी नहीं तो महंगाई व मंदी मिलेगी।
उम्मीद की रोशनी- तेल की कीमतें घटें तो सस्ते पेट्रोल डीजल से पूरब व पश्चिम के इंजन फिर रफ्तार पकड़ सकते हैं और महंगाई के बिना ग्रोथ बढ़ाने की कोशिश मजबूत हो सकती है। मगर तेल की कीमतें तो शुरुआती गिरावट के बाद फिर बढ़ने लगी हैं। गेंद राजनीति के पाले में है।
यूं तो मौजूदा कोशिशों को नैतिक, सैद्धांतिक और व्यगवस्‍थागत कई सवालों से घेरा जा सकता है मगर हम एक भयानक संकट से मुखातिब हैं। जहां नैतिक बहसों का वक्त नहीं है। अब तो सर्वनाश को टालने की बात है यानी आधा गंवाकर आधा बचाने (सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध: त्यजति... ) वाली रणनीतियां ही कारगर होंगी। कौन बचा और कौन उबरा इसका हिसाब एक साल बाद होगा। फिलहाल तो यह देखिये कि कौन डूबा और कौन निबटा? आग का दरिया खौल रहा है जिसमें डूब कर ही जाना है। ....कमजोर दिल वालों को अपना खास ख्याल रखना चाहिए।
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Monday, July 25, 2011

साख की राख

याद नहीं पड़ता कि इतिहास को इस कदर तेजी से पहले कब देखा था। आर्थिक दुनिया में पत्थर की लकीरों का इस रफ्तार से मिटना अभूतपूर्व है। तारीख दर्ज कर रही है कि अब वित्‍तीय दुनिया अमेरिका की साख की कसम अब कभी नहीं खायेगी। इतिहास यह भी लिख रहा है कि ग्रीस वसतुत: दीवालिया हो गया है और समृद्ध और ताकतवर यूरोप में कर्ज संकटों का सीरियल शुरु हो रहा है। अटलांटिक के दोनों किनारे कर्ज के महामर्ज से तप रहे हैं। अमेरिकी सरकार कर्ज के गंभीर संकट में है। ओबामा कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिए दुनिया को डराते हुए अपने विपक्ष को पटा रहे हैं, दो अगस्त के बाद अमेरिका सरकार के खजाने खाली हो जाएंगे। यूरोपीय समुदाय ने ग्रीस के इलाज ( सहायता पैकेज) से मुश्किलों का नया पाठ खोल दिया है। कर्ज के संकट से बचने के‍ लिए अमेरिका और यूरोप ने शुतुरमुर्ग की तरह अपने सर संकट की रेत में और गहरे धंसा दिये हैं। जबकि संप्रभु कर्ज संकटों का अतीत बताता हैं कि आग के इस दरिया में डूब कर ही उबरा जा सकता है। दिग्गज देशों की साख, राख बनकर उड़ रही है और वित्तीय बाजारों आंखों के सामने अंधेरा छा रहा है।
दीवालियेपन का अरमेगडॉन
...यानी वित्तीय महाप्रलय। राष्ट्रपति ओबामा ने अमेरिका के संभावित डिफॉल्ट ( यानी और कर्ज लेने पर पाबंदी) को यही नाम दिया है। अमेरिकी संविधान के मौजूदा सीमा के मुताबिक देश का सार्वजनिक (सरकारी) कर्ज 14.29 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर नहीं जा सकता। कर्ज का यह घड़ा इस साल मई में भर गया था। अमेरिका में सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 70 फीसदी है। संसद से कर्ज की सीमा बढ़वाये बिना, अमेरिकी सरकार एक पाई का कर्ज भी नहीं ले पाएगी। ओबामा विपक्ष को डरा व पटा रहे हैं और पहले दौर कोशिश खाली गई है। विपक्षी कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिए कर बढ़ाने व खर्च काटने ( करीब 2.4 ट्रिलियन डॉलर का पैकेज) की शर्त लगा रहे है। घटती लोकप्रियता के बीच चुनाव की तैयारी में लगे ओबामा यह राजनीतिक जोखिम नहीं ले सकते। अमेरिका का डिफॉल्‍ट होना आशंकाओं भयानक चरम

Monday, June 20, 2011

विश्‍वत्रासदी का ग्रीक थियेटर

दीवालियेपन के प्रेतों की बारात ग्रीस में उतर आई है। पंद्रहवीं सदी का फ्रांस, अठारहवीं सदी का स्पेन और पिछली सदी के अर्जेंटीना, मेक्सिको व उरुग्वे आदि एथेंस के मशहूर हेरोडियन थियेटर में खास मेहमान बन कर बैठे हैं और ग्रीस की कर्ज त्रासदी देखने को बेताब है। ग्रीक ट्रेजडी का कोरस ( पूर्व गान) शुरु हो गया है। थियेटर में रह रह कर संवाद गूंज रहा है कि उम्मीद व ग्रीस अब एक दूसरे के विलोम हैं !!!! ... बड़ा भयानक सपना था।...जापानी निवेशक आधी रात में डर कर जग गया।  एक संप्रभु मुल्क. का दीवालिया होना यानी कर्ज चुकाने में चूकना ! देश की साख खत्म होना अर्थात बैंकों और मुद्रा का डूबना ! वित्तीय जगत की सबसे बड़ी विपत्ति अर्थात जनता के लिए एक लंबी दर्दनाक त्रासदी !! .... निवेशक का खौफ जायज है ग्रीस की महात्रासदी अब शुरु ही होने वाली है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार कोई अमीर मुल्क डूबने वाला है। राजनीतिक व वित्तील समाधान ढह रहे हैं निवेशकों ने अपना जी कड़ा कर लिया है, ग्रीस की साख का सूर्य डूबते ही बाजार ग्रीस में निवेश करने वाले बैंकों, कंपनियों को सूली पर टांगने लगेगा। ...बात यहां से निकल कर दूर तलक जाएगी क्यों कि ग्रीस अकेले नहीं डूबेगा। इस त्रासदी के साथ बहुत कुछ गर्त हो सकता है।
डूबने को तैयार
ग्रीस फिर अपनी हैसियत से बड़ा इतिहास रचने (एक यूरोपीय कहावत) को तैयार है कयों कि सॉवरिन डिफाल्ट या देश का दीवालियापन छोटी विपत्ति नहीं है। ग्रीस का संकट देश के वित्तीय हिसाब में सरकारी फर्जीवाड़े से निकला है। घाटा छिपाकर कर्ज लेते रहे ग्रीस का सच (जीडीपी के अनुपात में अब 180 फीसदी कर्ज) 2009 में अंत यूरोपीय समुदाय की वित्ती‍य पड़ताल में खुला था। 110 अरब यूरो के पैकेज और यूरोपीय केंद्रीय बैंक की तरफ से ग्रीस के बांडों की खरीद के साथ ग्रीस को बचने के लिए जो एक साल मिला था

Monday, November 15, 2010

संकटों के नए संस्करण

अर्थार्थ
दुनिया की आर्थिक फैक्ट्रियों से संकटों के नए संस्करण फिर निकलने लगे हैं। ग्रीस के साथ ही यूरोप की कष्ट कथा का समापन नहीं हुआ था, अब आयरलैंड दीवालिया होने को बेताब है और इधर मदद करने वाले यूरोपीय तंत्र का धैर्य चुक रहा है। बैंकिंग संकट से दुनिया को निकालने के लिए हाथ मिलाने वाले विश्व के 20 दिग्गज संरक्षणवाद को लेकर एक दूसरे पर गुर्राने लगे हैं यानी कि बीस बड़ों की (जी-20) बैठक असफल होने के बाद करेंसी वार और पूंजी की आवाजाही पर पाबंदियों का नगाड़ा बज उठा है। सिर्फ यही नहीं, मंदी में दुनिया की भारी गाड़ी खींच रहे भारत, चीन, ब्राजील आदि का दम भी फूल रहा है। यहां वृद्धि की रफ्तार थमने लगी है और महंगाई के कांटे पैने हो रहे हैं। दुनिया के लिए यह समस्याओं की नई खेप है और चुनौतियों का यह नया दौर पिछले बुरे दिनों से ज्यादा जटिल, जिद्दी और बहुआयामी दिख रहा है। समाधानों का घोर टोटा तो पहले से ही है, तभी तो पिछले दो साल की मुश्किलों का कचरा आज भी दुनिया के आंगन में जमा है।

ट्रेजडी पार्ट टू
यूरोप के पिग्स (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस, स्पेन) में दूसरा यानी आयरलैंड ढहने के करीब है। 1990 के दशक की तेज विकास दर वाला सेल्टिक टाइगर बूढ़ा होकर बैठ गया है और यूरोपीय समुदाय से लेकर आईएमएफ तक सब जगह उद्धार की गुहार लगा रहा है। डबलिन, दुबई जैसे रास्ते से गुजरते हुए यहां तक पहुंचा है। जमीन जायदाद के धंधे को कर्ज देकर सबसे बड़े आयरिश बैंक एंग्लो आयरिश और एलाइड आयरिश तबाह हो गए, जिसे बजट से 50 बिलियन यूरो की मदद देकर बचाया जा रहा है। आयरलैंड का घाटा जीडीपी का 32 फीसदी हो रहा है, सरकार के पास पैसा नहीं है और बाजार में साख रद्दी हो गई है। इसलिए बांडों को बेचने का इरादा छोड़ दिया गया है। आयरलैंड के लिए बैंकों को खड़ा करने की लागत 80 बिलियन यूरो तक जा सकती है। करदाताओं को निचोड़कर (भारी टैक्स और खर्च कटौती वाला बजट) यह लागत नहीं निकाली जा सकती। इसलिए ग्रीस की तर्ज पर यूरोपीय समुदाय की सहायता संस्था (यूरोपियन फाइनेंशियल स्टेबिलिटी फैसिलिटी) या आईएमएफ से मदद मिलने की उम्मीद है। लेकिन यह मदद उसे दीवालिया देशों की कतार में पहुंचा देगी। यूरोपीय समुदाय की दिक्कत यह है कि

Monday, May 24, 2010

शायलाकों से सौदेबाजी

शुतुरमुर्ग एक समस्या का नाम भी है। इसके शिकार लोग अक्सर लैला और कैटरीना जैसे चक्रवातों से बचने के लिए छतरी लगा लेते हैं। संप्रभु कर्ज संकट में फंसे देशों में यह रोग बहुत आम है। इन्हें कभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ऑक्सीजन में जिंदगी नजर आती है तो कभी वह टैक्स से जनता को निचोड़ कर ताकत जुटाने की कोशिश करते हैं। मगर इससे न तो संकट टलता है और न खत्म होता है। कर्ज में चूकना और देनदारी को नए सिरे से तय करने का दर्द भरा इलाज ही वस्तुत: इनकी नियति होती है। कर्जदार देशों को अंतत: उस निर्मम दुनिया से निबटना होता है जिस पर दर्जनों शायलॉक (मर्चेट आफ वेनिस- शेक्सपियर) राज करते हैं। कर्ज देने वाले बैंकों व देशों के साथ देनदारी के पुनर्गठन का मतलब ऐसी लंबी सुरंग से गुजरना है, जिससे क्षत विक्षत हुए बिना बाहर आना मुश्किल है। हाल का सबसे बड़ा (2002 में 141 बिलियन डॉलर) डिफॉल्टर अर्जेटीना पिछले आठ साल से इस सुरंग में भटक रहा है। इस खतरनाक रास्ते पर किसी अंतरराष्ट्रीय संधि या व्यवस्था की रोशनी भी नहीं है।
....और सूद में चिडि़यों की बीट
र्ज व्यक्ति पर हो या देश पर, वसूली गलादाब ही होती है। 1890 के करीब दक्षिण अमेरिकी मुल्क पेरु जब कर्ज चुकाने में चूका तो कर्जदारों से सौदा दो मिलियन टन गुआनो (चिडि़यों की उर्वर बीट), 66 साल के लिए रेलवे पर नियंत्रण और टिटिकाका झील में बोट चलाने के अधिकारों के बदले छूटा। दुनिया के ताकतवर महाजन अभी पिछली सदी के मध्य तक कर्जो के बदले दक्षिण अमेरिकी व अफ्रीकी देशों के रेलवे, नौवहन, टैक्स तंत्र जैसे आय के मुख्य स्रोत कुर्क करते रहे हैं। मैक्सिको कर्ज न चुकाने के कारण 1861 में फ्रांस के हमले (स्पेन व ब्रिटेन की मदद से) का शिकार होकर गुलाम बना था। वेनेजुएला के समुद्री परिवहन पर जर्मनी, ब्रिटेन व इटली का प्रतिबंध हो या निकारागुआ और डोमनिकन रिपब्लिक के सीमा शुल्क प्रशासन पर अमेरिका का कब्जा, पिछली सदी की इन चर्चित घटनाओं के मूल में संप्रभु कर्जो से चूकने की ही कहानी है। वैसे यह बातें कुछ पुरानी सी लगती हैं क्योंकि आधुनिक दुनिया अब कर्ज के बदले चिडि़यों की बीट और रेलवे पर कब्जे जैसे सौदे नहीं करती। मगर यकीन मानिए कि कर्ज में चूकने वालों के प्रति वह उतनी ही निर्मम है। यही वजह है कि देशों को दिए जाने वाले कर्ज के बाजार में आज भी महाजनों का ही राज है।
महाजनों के क्लब
यूरोप के पिग्स (पुर्तगाल, इटली, ग्रीस, स्पेन आदि) अगर कर्ज देने में चूके तो हो सकता है कि दुनिया को एक बार फिर संप्रभु कर्ज की समस्या के अंतरराष्ट्रीय तंत्र (सॉवरिन डेट रिस्ट्रक्चरिंग मेकेनिज्म-एसआरडीएम) की याद आए लेकिन हकीकत यह है कि पिछली दो सदियों से संप्रभु कर्ज के बाजार पर महाजनों का ही राज है। दुनिया चाहे जितनी काबिल हो गई हो लेकिन वह कर्ज के फेर में बर्बाद होने वाले देशों को पारदर्शी ढंग से कर्ज चुकाने का तंत्र नहीं दे सकी है। इसके बदले दुनिया को मिले हैं पेरिस क्लब और लंदन क्लब। यकीनन, यही नाम हैं कर्ज देने वाले पक्षों के दो समूहों के। लंदन क्लब सातवें दशक में बना, जबकि पेरिस क्लब उसे बीस साल पहले बन चुका था। यह समूह तदर्थ हैं। इनका कोई कानूनी आधार नहीं है लेकिन कर्ज देने वाले इनके जरिए ही सौदेबाजी करते रहे हैं। लंदन क्लब वाणिज्यिक कर्जो के लिए सौदेबाजी करता है। जबकि पेरिस क्लब सरकारों के स्तर से दिए गए संप्रभु कर्जो की। संप्रभु कर्ज के खेल में विश्व बैंक व आईएमएफ की भूमिका केवल परेशान देश को ऑक्सीजन देने तक है। कर्ज देने वाले अपनी शर्तो पर कर्ज का पुनर्गठन करते हैं। 2002 में अर्जेटीना के कर्ज संकट के बाद दुनिया संप्रभु कर्जो को लेकर कुछ सतर्क हुई है। संप्रभु बांड जारी करने वाले देशों के अधिकारों की फिक्र होने लगी है और निर्मम हेज फंड (वल्चर फंड) की मनमानी को रोकने के कुछ नए नियम बनाए गए हैं लेकिन यह सब कोई अंतरराष्ट्रीय संधि या कानून नहीं है। अर्जेटीना का इतिहास बताता है कि वह अपना 75 फीसदी कर्ज ही पुनर्गठित कर सका। 20 बिलियन डॉलर के मूलधन, 10 बिलियन डॉलर काब्याज और कुछ अन्य विवादित कर्ज दक्षिण अमेरिका के इस मुल्क के हलक में अभी भी फंसा है।
कर्ज का 'हेयरकट' साख का मुंडन
डिफॉल्टर देश जब कर्ज देने वालों के सामने लेन देन पूरा करने के लिए कर्ज घटाने का प्रस्ताव करता है तो उसे वित्तीय बाजार हेयरकट कहता है। मगर कर्ज पुनर्गठन की यह प्रक्रिया उस देश की साख का मुंडन कर देती है। अर्जेटीना के 141 बिलियन डॉलर के डिफॉल्ट में करीब 82 बिलियन डॉलर मूलधन था और हेयरकट कर्ज समायोजन प्रस्ताव का हिस्सा था। संप्रभु कर्ज के पुनर्गठन की लंबी व पेचीदा सौदेबाजी के बाद कर्जो की देनदारी आगे खिसकाई जाती है और कर्जदारों को नए बांड दिए जाते हैं, जिसमें कर्ज देने वाले पक्षों को नुकसान भी होता है। कई देश वाणिज्यिक कर्जदारों को अपनी कंपनियों में इक्विटी देकर स्वैप करते हैं। चिली इसका ताजा और सफल उदाहरण है। मगर पूरी प्रक्रिया डिफॉल्टर देश को वित्तीय बाजार में दागी कर देती है। अर्जेटीना ने इसी अप्रैल में अपने कर्जदारों को हेयरकट का नया प्रस्ताव दिया है। अर्जेटीना की पेशकश है कि कर्जदार पिछले कर्ज के बदले नए बांडों को डिस्काउंट पर खरीदकर बात नक्की करें। अर्जेटीना अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार में अभी भी कालेपानी की सजा झेल रहा है। वह निर्वासन दूर करने व सामान्य देश बनने के लिए गिड़गिड़ा रहा है।
शायलॉक याद है आपको? शेक्सपियर के मशहूर नाटक मर्चेट ऑफ वेनिस का खलनायक, सूदखोर (लोन शार्क) महाजन, जो एंटोनियो से कर्ज के बदले उसके शरीर का एक हिस्सा मांगता है। कर्ज की दुनिया शेक्सपियर के जमाने से आज तक लगभग वैसी ही बेढंगी है। यहां रंग और ढंग बदला है लेकिन तासीर नहीं। अब तो यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने खुद बाजार से यूरोपीय देशों के कचरा रेटिंग वाले बांड (16 बिलियन डॉलर के सौदे) खरीद रहा है। यह यूरो जोन के केंद्रीय बैंक का (बाजार की भाषा में न्यूक्लियर ऑप्शन) ब्रह्मास्त्र है। इसके बावजूद वित्तीय बाजार मान रहा है कि यूरोपीय बैंक का मंत्र, आईएमएफ की मदद और जर्मनी की दया ग्रीस को उबार नहीं सकती। महाजनों की दुनिया, 130 बिलियन डॉलर के कर्जदार ग्रीस को कर्ज पुनर्गठन की कीलों भरी कुर्सी पर बैठाने के लिए बेताब है। स्पेन, पुर्तगाल भी शायद इसी कतार में हैं।
इतनी बारिश हो चुकी है रात इस दीवार पर
कल सुबह जो धूप निकली तो भी यह गिर
जाएगी
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Monday, April 12, 2010

सुरक्षित होने के खतरे

अच्छा होना हमेशा अच्छा ही नहीं होता। कम से कम इस निष्ठुर आर्थिक दुनिया का तो यही नियम है। यहां संतुलित और कुछ बेहतर होने की भी अपनी एक कीमत होती है। भारत सहित उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं संकटग्रस्त दुनिया के बीच (तुलनात्मक रूप से) निरापद होने की एक बड़ी कीमत चुकाने वाली हैं। भारत से लेकर कोरिया तक और ब्राजील से लेकर रूस तक विभिन्न अर्थव्यवस्थाएं मंदी से उबरने का कितना उत्सव मना पाएंगी यह तो पता नहीं, लेकिन उनकी चिंता का नया चक्र शुरू हो रहा है। चिंता बड़ी दिलचस्प है... यूरोजोन के निवेश सरोवर सूखने और डालरजोन (अमेरिका) में अनदेखे जोखिम के कारण दुनिया भर के प्रवासी निवेशक भारत जैसे मुल्कों में झुंड बांध कर उतरने लगे हैं। केवल मार्च में ही छह अरब डालर का विदेशी निवेश अकेले भारत के वित्तीय बाजारों में जज्ब हो चुका है। भारत का रुपया, रूस का रूबल, ब्राजील का रिएल, दक्षिण अफ्रीका का रैंड, मेक्सिको का पेसो, मलेशिया का रिंगिट आदि उभरते बाजारों की मुद्राएं, इस विदेशी खुराक से पहलवान हुई जा रही हैं। वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की भरमार और बेवजह ताकत दिखाती घरेलू मुद्राओं के अपने खतरे हैं। ऊपर से डर यह है कि अगर ग्रीस डूबा तो फिर डालरों व यूरो का एक ज्वार इन बाजारों से आकर टकराएगा, जिसे संभालना बड़ा मुश्किल होगा।
ग्रीक ट्रेजडी, डालर कामेडी
डालर की कामेडी बड़ी मजेदार है। डालर खुद खोखला है, लेकिन प्रतिस्पर्धी मुद्रा इतनी मरियल है कि डालर में ताकत दिख रही है। संकट शुरू हुआ था डालर की दुनिया से, लेकिन बन आई यूरो पर। डालर के आसपास भी जोखिमों का घेरा है लेकिन उसकी तुलना में यूरो की स्याही ज्यादा गाढ़ी है, इसलिए बुनियादी रूप से कमजोर होते हुए भी डालर यूरो के मुकाबले मजबूत है। पिछले दो तीन माह में डालर ने अर्से से मजबूत यूरो को पछाड़ दिया है। यूरोजोन में ग्रीक ट्रेजडी किसी भी वक्त घट सकती है। यूरोप के बड़े मुल्क मदद को तैयार नहीं हैं अर्थात भारी कर्ज में दबे पिग्स देशों (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन) में पहला हादसा होने को है। बाजार ने इसे कायदे से सूंघ लिया है। यूरो की सेहत बिगड़ रही है। ग्रीस का डिफाल्टर होना दक्षिण यूरोप के अन्य परेशान हाल देशों की किस्मत भी लिख देगा। पिछले एक सप्ताह में यूरोजोन के बाजार लगातार टूटे हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत उभरते बाजारों में तेजी का त्यौहार है। भारी विदेशी निवेश के सहारे पिछले एक पखवाड़े में उभरते बाजारों की कई मुद्राओं ने अपने एक साल के सर्वोच्च स्तर छू लिये हैं। दुनिया के निवेशकों को यूरो से तो उम्मीद है ही नहीं और डालर पर भी उनका भरोसा सीमित ही है, क्योंकि अमेरिका भी जीडीपी के अनुपात में 10.6 फीसदी के राजकोषीय घाटे (1.56 खरब डालर) पर बैठा है। जापान और ब्रिटेन भी भारी सरकारी कर्ज से हलाकान हैं। इसलिए डालर, येन या पौंड पर ज्यादा लंबे दांव लगाने वाले वाले लोग कम हैं। नतीजतन सबकी उम्मीदें उभरते बाजारों में उभर रहीं है, जहां मंदी का अंधेरा भी छंटने लगा है।
निवेशकों के काफिले
खरबों डालर को समेटे दुनिया की वित्तीय पाइपलाइनें इन नए सितारों की तरफ मुड़ गई हैं। इक्विटी निवेशक, हेज फंड, पेंशन फंड के काफिले भारत समेत पूर्वी एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों में पड़ाव डालने लगे हैं। भारत की स्थिति तो बड़ी दिलचस्प है। मार्च में विदेशी निवेशक इक्विटी में करीब 4 अरब डालर और ऋण बाजार में 2.2 अरब डालर लगा चुके हैं। इससे पहले दिसंबर तक पिछले कैलेंडर साल में 17.64 अरब डालर काविदेशी निवेश आ चुका है। विदेश से सस्ता पैसा लाकर भारत में ब्याज कमाने (आरबिट्रेज) का पूरा कारोबार भी काफी गुलजार है। संकट से उबरने और मंदी दूर करने के लिए दुनिया भर के बैंकों ने ब्याज दरें घटाकर बाजार में धन की नदियां बहा दीं। विश्व के बाजारों में कम ब्याज दर पर भारी पैसा उपलब्ध है, लेकिन निवेश के विकल्प कम हैं। दरअसल दुनिया के निवेशकों को यह अंदाज नहीं था कि अमेरिका का वित्तीय संकट यूरोजोन को तोड़ देगा। वह तो यूरोजोन को निवेश की नई उम्मीद के तौर पर देख रहे थे, लेकिन अमेरिका के साथ यूरोपीय उम्मीद भी बिखर गई। इसलिए पैसे की गठरी उठाए निवेशक भारत जैसे उभरते बाजारों में मंडरा रहे हैं। भारत में मंदी का असर अभी बाकी है, महंगाई है, ऊंचा राजकोषीय घाटा है, फिर भी विदेशी निवेशकों के लिए यह बाजार हर हाल में यूरोजोन से अच्छा है।
अनोखी आफत
उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास इस नए आकर्षण पर इतराने का वक्त नहीं है, क्योंकि चुनौतियां बिल्कुल फर्क हैं। भारत में इस अनोखी आफत ने पैमाने ही बदल दिए हैं। 1990-91 के संकट के बाद भारत में पहली बार चालू खाते का घाटा जीडीपी के अनुपात में तीन फीसदी पर आया है। कोई दूसरा वक्त होता तो इस चिंताजनक घाटे के कारण रुपया जमीन सूंघ रहा होता, लेकिन 280 अरब डालर के जबर्दस्त विदेशी मुद्रा भंडार के कारण उलझनों की गणित तब्दील हो गई है। अब समस्या इन डालरों को संभालने, लगाने और इनकी भरमार के असर से निबटने की है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति भी विदेशी निवेश की इस चमक पर अपनी आशंका जाहिर कर चुकी है। रिजर्व बैंक के लिए इन डालरों को खरीद कर विदेश में निवेश करना घाटे का सौदा है, क्योंकि दुनिया में ब्याज दरें कम हैं। इधर देश में डालर लाने वाले निवेशकों को ऊंचा ब्याज मिलता है। दूसरी तरफ बाजार से डालर खरीदने के बदले छोड़ा जाने वाला रुपया महंगाई की आग भड़का देता है, लेकिन अगर रिजर्व बैंक डालर न खरीदे तो रुपये की ताकत निर्यातकों को निचोड़ देगी। देशी बाजार में इन डालरों को खपाने का विकल्प नहीं है, क्योंकि परियोजनाएं उपलब्ध नहीं हैं। रिजर्व बैंक ने पिछले साल दिसंबर में विदेशी मुद्रा बाजार से किनारा कर लिया था, लेकिन अब चर्चा है कि 45 रुपये पर पहुंचा डालर उसे बाजार में उतरने और डालर खरीदने पर बाध्य कर रहा है।
छप्पर फाड़कर मिलना अच्छा है, मगर उस मिले हुए को सहेजने के लिए दूसरे ठिकाने तो होने ही चाहिए। निवेश के नए स्वर्गो की यही दिक्कत है कि उनके पास इस भेंट को सहेजने के रास्ते जरा कम हैं। नतीजतन विदेशी निवेश की यह अनोखी आमद इनके यहां मुद्रास्फीति से लेकर, अचल संपत्ति की कीमतों में कृत्रिम तेजी और बाजारों में सट्टेबाजी जैसी बुराइयां ला सकती है। ऊपर से यह निवेश डरे हुए व परेशान निवेशकों का है, इसलिए इसके टिकाऊ होने की गारंटी भी जरा कम है। लेकिन इस निवेश पर रोक लगाना और बड़ी चुनौती है। उभरती अर्थव्यवस्थाएं यकीनन शेष दुनिया से बेहतर, सुरक्षित और अच्छी हैं। भविष्य बताएगा कि इन्हें इस बेहतरी का क्या ईनाम मिला, फिलहाल वर्तमान तो यह बता रहा है कि इन्हें निवेश की शरणार्थी समस्या के निबटने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। ..शाख से तोड़े गए फूल ने हंस करके कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में।
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अन्‍यर्थ के लिए
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Monday, April 5, 2010

डूबे तो.. उबरेंगे

दुनिया के वित्तीय बाजारों में इस समय एक अजीब सी गंध तैर रही है, कुछ जलने की गंध! ताजे वित्तीय संकट की आंच पर यूरोप की अनोखी बेमेल (मौद्रिक एकता) खिचड़ी शायद जलने लगी है। यूरोप में अलग आकार और स्वरूप की अर्थव्यवस्थाओं को यूरो नामक एकल मुद्रा का जो अनोखा परिधान पहनाया गया था वह छोटों की गर्दन पर कसने और बड़ों के बदन पर ढीला होने लगा है। ओलंपिक के मुल्क ग्रीस में वित्तीय संकट सुलग रहा है, जिसमें सोलह यूरोपीय देशों की एकता घुलने लगी है। बाजार घुस फुसा रहा है कि एक से अधिक यूरोपीय देश दीवालिया हो सकते हैं।
देश अलग, अर्थव्यवस्थाओं के आकार अलग, बजट अलग, वित्तीय कायदे अलग, राजनीति अलग मगर मुद्रा यानी करेंसी एक। .. सवाल दस साल पहले भी उठे थे, लेकिन संकट अब उठा है। वित्तीय बाजारों के महासंकट ने अपारदर्शी वित्तीय प्रणाली वाले ग्रीस, आयरलैंड जैसे कमजोरों के पैर उखाड़ दिए। सोलह यूरोपीय देशों वाला यूरो क्लब ग्रीस को उबारने पर बंट गया है। बीते सप्ताह ब्रुसेल्स की बैठक में यूरोजोन के बड़ों (फ्रांस व जर्मनी) के बीच दरारें साफ दिख गई। यूरो की साख टूट रही है। यूरो क्लब की एकता पर ही बन आई है। यह मानने वाले अब बहुत से हैं कि यूरो क्लब डूब कर ही उबर सकता है।
परेशान 'पिग्स'
पिग्स से मतलब है कि यूरोप के पांच परेशान छोटे अर्थात पुर्तगाल, इटली, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन। इनकी समस्या है इनका भारी कर्ज। यूरोप की इन छोटी अर्थव्यवस्थाओं को ताजी मंदी और वित्तीय बाजारों के हाहाकार ने बेदम कर दिया। रही बची कसर इन के वित्तीय कुप्रबंध ने पूरी कर दी है। ग्रीस (यूनान) सबसे बुरी हालत में है। जहां सरकार का कुल कर्ज देश के जीडीपी का 125 फीसदी हो गया है। ग्रीस की सरकार का डिफाल्टर होना तय है। इसे बचाने के तरीकों पर यूरोप में चख-चख जारी है। बात सिर्फ ग्रीस की ही नहीं, इस समूह में जनमों का कर्जदार इटली, दीवालियेपन के लिए कुख्यात और अभी तक मंदी से जूझ रहा स्पेन, प्रापर्टी मार्केट टूटने से बदहाल हुआ आयरलैंड (जीडीपी के अनुपात में कर्ज 82 फीसदी) और कर्ज में दबा पुर्तगाल (कर्ज जीडीपी अनुपात 85 फीसदी) भी हैं। दरअसल यूरो क्लब में होना या यूरो मुद्रा अपनाना इस गाढ़े वक्त में इन्हें बहुत साल रहा है। अगर इनकी स्वतंत्र मुद्राएं होतीं तो अब तक ये अवमूल्यन करने अपने कर्ज को घटाने का जुगाड़ बिठा चुके होते। मगर ऐसा होना नामुमकिन है और क्योंकि यूरो की कीमत गिरने में यूरोप के बड़ों का बहुत बड़ा नुकसान है।
और हैरान दिग्गज
पिग्स परिवार को मदद का चारा देने में भी कम नुकसान नहीं हैं। यूरो क्लब में जबर्दस्त ऊहापोह है। अगर पिग्स को नहीं उबारा जाता तो यूरो जोन दीवालिया मुल्कों का जोन बन जाएगा, लेकिन इनको उबारने का मतलब होगा कि बड़े अपने खजाने से इसका बिल चुकाएं। यानी कि जर्मनी व फ्रांस जैसे बड़े यूरोपीय देश इनके कर्ज की जिम्मेदारी उठाएं। यूरो क्लब की बुनियादी संधि (स्टेबिलटी एंड ग्रोथ पैक्ट) किसी तरह के बेल आउट या उद्धार पैकेजों की छूट नहीं देती। इसी संधि के जरिए सभी सदस्यों के लिए कर्ज व घाटा कम करने की कड़ी शर्ते भी तय की गई थीं, मगर छोटों ने ये बंदिशें कायदे से नहीं मानीं। बड़े अगर मदद कर भी दें तो भी इस बात की गारंटी नहीं है कि कमजोर और बदहाल पिग्स अपनी राजकोषीय सेहत सुधारने के लिए खर्च में कमी कर सकेंगे। मंदी व महंगाई के बाद वेतन और खर्चो में कटौती कठिन राजनीतिक फैसला है। यूरोप के बड़े अगर अपने बजट से इनका कर्ज उठाते हैं तो उनकी अपनी और यूरो की साख टूटेगी, लेकिन अगर मुल्क दीवालिया हुए तो भी यूरो टूटने से नहीं बचेगा। तीसरा विकल्प आईएमएफ को बीच में लाने का है, लेकिन इससे बुरा विकल्प कोई नहीं है। आईएमएफ की मदद का मतलब एकल यूरोपीय मुद्रा का असफल होना है। क्योंकि तब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुद्रा किसी छोटे देश की कमजोर मुद्रा जैसी हो जाएगी जो बाहरी मदद की बैसाखियों पर टिकी होगी।
क्या अब लौट चलें?
चर्चा तो वापस लौटने की ही है। वित्तीय संकट ने यूरो क्लब को तोड़ दिया है। अब जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रिया, फिनलैंड, नीदरलैंड जैसे मजबूत मुल्क एक तरफ हैं तो पिग्स जैसे कर्ज में दबे दक्षिण यूरोप के मुल्क दूसरी तरफ। कहा यह भी जा रहा है कि दक्षिण के छोटों ने यूरो क्लब का हिस्सा बनने और एकल मुद्रा के फायदे पाने के लिए अपनी वित्तीय असलियत दुनिया से छिपाई। ग्रीस को लेकर यह तो यह चर्चा काफी प्रामाणिक है। दक्षिण के मुल्कों की साख ध्वस्त है। वित्तीय बाजार उनके बांडों से बिदक रहा है। यूरोप में ऐसा मानने वाले बहुत से हैं कि यूरो मुद्रा इन घायल पिग्स सिपाहियों के सहारे वित्तीय दुनिया में जंग में टिक नहीं सकती। क्या जर्मनी व फ्रांस के नेतृत्व में एक नया मौद्रिक ब्लाक बनना चाहिए? जैसा 1999 के पहले था जब यूरोप में ड्यूश मार्क, पौंड और फ्रैंक तीन बड़ी मुद्राएं थीं। दरअसल यूरो क्लब सातवें व आठवें दशक की मंदी और मुद्रास्फीति यानी महंगाई की बुनियाद पर बना था। नतीजतन कड़े मौद्रिक नियंत्रण व महंगाई पर काबू, इस एकता की बुनियाद थे। अब वह एकता बिखर चुकी है। क्या यूरो क्लब से कमजोर मुल्कों की निकासी होगी? या एक नया मौद्रिक ब्लाक बनेगा? अथवा दुनिया एक कमजोर और लुढ़कते यूरो के साथ जिएगी? .इन सवालों के फिलहाल कोई जवाब नहीं हैं। वैसे चाहे यूरोप में कुछ देश दीवालिया हों या फिर यूरो क्लब में टूट हो .. यूरो का जलवा अब ढलने वाला है।
मशहूर अर्थविद मिल्टन फ्रीडमैन सही साबित होते दिख रहे हैं। एकल यूरोपीय मुद्रा के जन्म के समय 1999 में उन्होंने कहा था कि यह क्लब पहला वित्तीय संकट नहीं झेल पाएगा। कहां तो बात डालर का विकल्प बनने से शुरू हुई थी और अब यूरो की साख के लाले हैं। दुनिया ताजी वित्तीय बदहाली में अपना चेहरा देखकर पहले से ही हैरत में थी, इस बीच यूरो क्लब का शीराजा भी दरकने लगा है।.. हैरां थे अपने अक्स पर घर के तमाम लोग, शीशा चटख गया तो हुआ एक काम और।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)