Showing posts with label India income data. Show all posts
Showing posts with label India income data. Show all posts

Tuesday, January 29, 2019

गरीबी की पहेली



यदि सरकारों से आप सुविचारिततर्कसंगत और लक्ष्यबद्ध होने की उम्मीद करते हैं तो अपना माथा ठोंक लीजिये...नोटबंदी और सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थाओं में गरीबों को आरक्षण में समानता को पकडिय़ेआपको सरकार पर फिदा होना पड़ेगा.

नोटबंदी में सरकार को यह पता नहीं था कि उसे इस आर्थिक भूकंप से हासिल क्या करना है. नोटबंदी से पहले सरकार के पास देश में काले धन के आंकड़े नहीं थे और नए आरक्षण के बाद देश के गरीबों को यह पता नहीं कि उन्हें इससे कैसे और क्या मिलेगा क्योंकि सरकार ने गरीबी यानी कमाई को नापने-जोखने या गरीबों को पहचानने की योजना ही मुल्तवी कर दी.

सियासत आत्‍मघाती तौर पर तदर्थवादी है इसलिए गरीबी कम करने की योजनायें अमीरों को और अमीर करती हैं. चुनाव से पहले किसी को गरीबों के लिए न्‍यूनतम आय (मिनिमम बेसिक इनकम) की याद भी आ गई. लेकिन वे गरीब कौन से होंगे जिन्‍हें यह खैरात मिलेगी?

गरीबी की पैमाइश का ताजा किस्सा बेहद दिलचस्प है

हुआ यह कि मार्च2015 में सरकार ने नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पानगडिय़ा की अगुआई में 14 सदस्यीय दल बनाया जिसे 31 अगस्त2015 तक गरीबी की नई परिभाषा तय करनी थी और गरीबी कम करने की रणनीति बनानी थी. कार्यकाल विस्तार के बाद जून2017 में इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री तक आ गईतब तक गरीबों को आरक्षण देने का सरकार का कोई इरादा न था और गरीबी या लोगों की आय नाप-जोख को गैर जरूरी मान लिया गया था.

इस रपट का आधार बने एक अध्ययन (यह पंक्तियां लिखे जाने तक नीति आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध) के मुताबिक...

- 2009 में सुरेश तेंदुलकर समिति ने गरीबी मापने के फार्मूले (खपत खर्च बनाम कमाई) को नए सिरे से तय कियाजिसके तहत पांच लोगों के ग्रामीण परिवार में प्रतिमाह 4,080 रुपए और शहरों में 5,000 रुपए से कम कमाई वाले लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं. रंगराजन समिति ने इसे संशोधित किया था लेकिन उससे गरीबी और ज्यादा बढ़ी हुई नजर आने लगी. इसलिएबकौल नीति आयोगसुरेश तेंदुलकर की गणना ही आधिकारिक गरीबी रेखा है. हालांकि इसमें कई खामियां हैं.

- मोदी सरकार ने सरकारी स्कीमों (उज्ज्वलाबिजलीशौचालय) के लाभार्थियों की पहचान के लिए 2011 के सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण का इस्तेमाल शुरू किया. हालांकि यह सर्वे केवल ग्रामीण आबादी के लिए है और इसमें परिवारों की पूरी आय या खर्च की गणना नहीं की जाती.

- नीति आयोग ने इस विकल्प को भी टटोला कि गरीबी की रेखा तय करने के बजाय देश की सबसे निर्धन 30 फीसदी आबादी की जिंदगी में बेहतरी पर नजर रखकर गरीबी में कमी मापी जाए जैसा कि विश्व बैंक ने हाल में किया है

- अंततः यह कहते हुए कि गरीबी की रेखा तय करने का मकसद गरीबी में कमी को नापना है न कि गरीबों की पहचान के लिए किसी फार्मूले की जरूरत नहीं है...नीति आयोग ने (बकौल दस्तावेज) गरीबों की पहचान की कोशिश को छोड़ दिया और सरकारी स्कीमों के असर पर मुखातिब हो गया.
आर्थिक आरक्षण से पहले सूरते हाल यह है

गरीबी की कोई एक पैमाइश या पहचान नहीं है. सरकार इसे जानबूझ कर भ्रम में रखना चाहती है.

·  तेंदुलकर का फार्मूला (बीपीएल को राशन) और 2011 के सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण (अन्य स्कीमें) दोनों ही आजमाये जा रहे हैं.

·  सरकारों की हाउसिंग स्कीमों के तहत 3 लाख रु. की सीमा वालों को कमजोर आर्थिक वर्ग और 3 से लाख वालों को निम्न आय वर्ग मानने का पैमाना भी चल रहा है.

·  इस बीच आर्थिक आरक्षण में 8 लाख रु. तक की सालाना कमाई वाले लोग शामिल होंगे जबकि उन्हीं के परिवार में पांच लाख रु. सालाना कमाई वाले लोग इनकम टैक्स दे रहे होंगे.



यानी कि राजा जिसे माने वही गरीब. इसलिए इस समय देश में दो तरह के गरीब हैं

एक—वे जो सच में निर्धन हैं

दूसरे—वे जिन्हें राजनीति की रोशनी में गरीब पहचाना जाएगा

सरकारें तो जन्मना सहस्रबाहु हैंबशर्ते वे कुछ करना तो चाहें. जब वे कुछ करना नहीं चाहतीं तो उनके हजार हाथ सच छिपानेभरमाने और बरगलाने में लग जाते हैं. इस काले जादू का अचूक मंतर हैं आंकड़े. संख्याएं गढ़ कर भरमाया जा सकता है. आंकड़े छिपा कर सच अंधरे में रखा जा सकता है या आंकड़ों की जरूरत ही खत्म करते हुए तथ्यतर्क और पारदर्शिता के स्मारक बनाए जा सकते हैं.

हालांकि सोलह लोकसभाएं बना चुके भारत के लोग भी अब शायद यह समझने लगे हैं: वे सरकार से झूठ बोलते हैं तो वह अपराध है पर  सरकारें या राजनीतिक दल लोगों से झूठ बोले तो...बस सियासत.

Tuesday, July 14, 2015

यह तो मौका है!


सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था.
याने लोग कहते हैं कि बार-बार मौके मुश्किल से मिलते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी इस कहावत को गलत साबित कर रहे हैं. भारत की सामाजिक-आर्थिक गणना मोदी के लिए ऐसा अवसर लेकर आई है, जो शायद उनको मिले जनादेश से भी ज्यादा बड़ा है. देश की अधिकांश आबादी में गरीब और सामाजिक सुरक्षा के प्रयोगों की विफलता के आकलन पहले से मौजूद थे. ताजा सर्वेक्षण ने इन आकलनों को आंकड़ों का ठोस आधार देते हुए मोदी सरकार को, पूरे आर्थिक-सामाजिक नीति नियोजन को बदलने का अनोखा मौका सौंप दिया है.

इस सर्वेक्षण ने नीति नियोजन ढांचे की सबसे बड़ी कमी पूरी कर दी है. भारत दशकों से अपने लोगों की कमाई के अधिकृत आंकड़े यानी एक इन्कम डाटा की बाट जोह रहा था, जो हर आर्थिक फैसले के लिए अनिवार्य है. यहां सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के पांच बड़े नतीजों को जानना जरूरी है जो नीतियों और सियासत को प्रभावित करेंगेः (1) भारत में दस में सात लोग गांव में रहते हैं, (2) 30 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं और 51 फीसदी लोग सिर्फ मजदूर हैं, (3) गांवों में हर पांच में चार परिवारों में सर्वाधिक कमाने वाले सदस्य की अधिकतम आय 5,000 रु. प्रति माह है. यानी पांच सदस्यों के परिवार में प्रति व्यक्ति आय प्रति माह एक हजार रु. से भी कम है, (4) 56 फीसद ग्रामीण भूमिहीन हैं, (5) 36 फीसदी ग्रामीण निरक्षर हैं. केवल तीन फीसदी लोग ग्रेजुएट हैं. ये आंकड़े केवल ग्रामीण आबादी की आर्थिक स्थिति बताते हैं. इसी सर्वेक्षण का शहरी हिस्सा अभी जारी होना है. जो शायद यह बताएगा कि शहरों में बसे 11 करोड़ परिवारों में 35 लाख परिवारों के पास आय का कोई साधन नहीं है.
ग्रामीण और शहरी (अनाधिकारिक) आर्थिक सर्वेक्षण के तीन बड़े निष्कर्ष हैं. पहला, देश की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण है. दूसरा, शहरों-गांवों को मिलाकर करीब 90 फीसदी आबादी ऐसी है जो केवल 200 से 250 रु. प्रति दिन पर गुजारा करती है, और तीसरा भारत में मध्य वर्ग केवल 11 करोड़ लोगों का है जिनके पास एक सुरक्षित नियमित आय है.
इस आंकड़े के बाद कोई भी यह मानेगा कि देश में नीतियों के गठन की बुनियाद बदलने का वक्त आ गया है जिसकी शुरुआत उन पैमानों को बदलने से होगी जो सभी आर्थिक-सामाजिक नीतियों का आधार हैं. देश में गरीबी की पैमाइश बदले बिना अब काम नहीं चलेगा क्योंकि इन आंकड़ों ने साबित किया है कि भारत में गरीबी पिछली सभी गणनाओं से ज्यादा है. खपत सर्वेक्षण, महंगाई की गणना, रोजगारों का हिसाब-किताब, सामाजिक सुरक्षा की जरूरत हैं. फॉर्मूले भी नए सिरे से तय होंगे. खपत को आधार बनाकर भारत में असमानता घटने का जो आकलन (गिन्नी कोइफिशिएंट) किया जाता रहा है, इस आंकड़े की रोशनी में वह भी बदल जाएगा.
इन पैमानों को बदलते ही सरकारी नीतियां एक निर्णायक प्रस्थान बिंदु पर खड़ी दिखाई देंगी. सामाजिक-आर्थिक सेंसस के आंकड़े साबित करते हैं कि भारत में मनरेगा जैसे कार्यक्रम राजनैतिक सफलता क्यों लाते हैं? सस्ते अनाज के सहारे रमन सिंह, नवीन पटनायक या सस्ते भोजन के सहारे जयललिता लोकप्रिय और सफल कैसे बने रहते हैं जबकि औद्योगिक निवेश और बुनियादी ढांचे की सफलता पर वोटर नहीं रीझते. अलबत्ता आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोकलुभावन नीतियों का ढांचा सिर्फ लोगों को जिंदा रख सकता है, उनकी जिंदगी बेहतर नहीं कर सकता.
अर्थव्यवस्था पर आर्थिक सुधारों के प्रभाव के समानांतर इन आंकड़ों की गहरी पड़ताल की जाए तो शायद नीतियों के एक नए रास्ते की जरूरत महसूस होगी, जो विकास के पूरे आयोजन को बदलने, गवर्नेंस के बड़े सुधार, तकनीकों का इस्तेमाल, संतुलित रूप से खुले बाजार और नए किस्म की स्कीमों से गढ़ा जाएगा. गरीबी की राजनीति यकीनन बुरी है लेकिन जब 90 फीसदी लोगों के पास आय सुरक्षा ही न हो तो रोजगार या भोजन देने वाली स्कीमों के बिना काम नहीं चलता. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा देने के नए तरीके खोजने होंगे और रोजगारों को मौसमी व अस्थायी स्तरों से निकालकर स्थायी की तरफ ले जाना होगा.
आप पिछले छह दशक की ग्रामीण बदहाली को लेकर कांग्रेस को कोसने में अपना वक्त बर्बाद कर सकते हैं लेकिन सच यह है कि इन आंकड़ों के सामने आने का यह सबसे सही वक्त है. कांग्रेस के राज में अगर ये आंकड़े आए होते तो लोकलुभावनवाद का चरम दिख जाता. केंद्र में अब ऐसी सरकार है जो अतीत का बोझ उठाने के लिए बाध्य नहीं है. इसके पास मौका है कि वह भारत में नीतियों का रसायन नए सिरे से तैयार करे.
सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण और पुराने तजुर्बे ताकीद करते हैं कि देश को नीतियों व स्कीमों के भारी मकडज़ाल की जरूरत नहीं है. अचूक तकनीक, मॉनिटरिंग, राज्यों के साथ समन्वय से लैस और तीन चार बड़े सामाजिक कार्यक्रम पर्याप्त हैं, जिन्हें खुले और संतुलित बाजार के समानांतर चलाकर महसूस होने वाला बदलाव लाया जा सकता है.
सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था. सर्वेक्षण के अनुसार 200 रु. से 250 रु. रोज पर गुजरा करने वाली अधिकांश आबादी के लिए बैंक खाते, बीमा वाली जनधन योजना लगभग बेमानी है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया या इस तरह के अन्य कार्यक्रम अधिकतम दस फीसदी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं. यही वजह है कि दिहाड़ी पर जीने वाले 90 फीसदी और उनमें भी अधिकांश अल्पशिक्षित और अशिक्षित भारत पर मोदी सरकार के मिशन और स्कीमों का असर नजर नहीं आया है.
मोदी की नीतियों का पानी उतरे, उससे पहले देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत उनके हाथ में है. इन आंकड़ों की रोशनी में वे नीतियों और गवर्नेंस की नई शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लोगों ने नई शुरुआत के लिए ही चुना है, अतीत की लकीरों पर नए रंग-रोगन के लिए नहीं.

Monday, July 29, 2013

गरीबी की गफलत


गरीबी में कमी न स्‍वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती।

योजना आयोग के मसखरेपन का भी जवाब नहीं। जब उसे राजनीति को झटका देना होता है तो वह गरीबी घटने के आंकड़े छोड़ देता है और देश की लोकलुभावन सियासत की बुनियाद डगमगा जाती है। गरीबी भारत के सियासी अर्थशास्‍त्र का गायत्री मंत्र है। यह देश का सबसे बड़ा व संगठित सरकारी उपक्रम है जिसमें हर साल अरबों का निवेश और लाखों लोगों के वारे-न्‍यारे होते है। भारत की सियासत  हमेशा से मुफ्त रोजगार, सस्‍ता अनाज देकर वोट खरीदती है और गरीबी को बढ़ता हुआ दिखाने की हर संभव कोशिश करती है ताकि गरीबी मिटाने का उद्योग बीमार न हो जाए। गरीबी में कमी न स्‍वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती। यही वजह है कि योजना आयोग, जब निहायत दरिद्र सामाजिक आर्थिक आंकड़ो के दम पर गरीबी घटने का ऐलान करता है तो सिर्फ एक भोंडा हास्‍य पैदा होता है।
भारत गरीबी के अंतरविरोधों का शानदार संग्रहालय है जो राजनीति, आर्थिकी से लेकर सांख्यिकी तक फैले हैं। आर्थिक नीतियों का एक चेहरा पिछले एक दशक से गरीबी को बढ़ता हुआ