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Saturday, October 5, 2019

इनके जीते, जीत है


मंदी का इलाज है कहांवहीं जहां इसका दर्द तप रहा हैदरअसलमेक इन इंडिया के मेलों की शुरुआत (2014) तक भारतीय अर्थव्यवस्थाएक दशक तक अपने इतिहास की सबसे तेज विकास दर के बाद ढलान की तरफ जाने लगी थीलेकिन 2015 में जीडीपी का नवनिर्मित (फॉर्मूलानक्कारखाना गूंज उठा और भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के दरकने के दर्द को अनसुना कर दिया गयाअलग-अलग सूबों के निवेश उत्सवों में निवेश के जो वादे हुएअगर उनका आधा भी आया होता तो हम दो अंकों की विकास दर में दौड़ रहे होते.

खपत और निवेश टूटने से आई इस मंदी की चुभन देश भर में फैली राज्य और नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में जाकर महसूस की जा सकती हैजो पिछले दशक में मांग और नए रोजगारों का नेतृत्व करती रही हैं. 1995 से 2012 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था का क्षेत्रीयस्थानीय और अंतरराज्यीय स्वरूप पूरी तरह बदल चुका हैपिछले सात-आठ वर्षों की नीतियां इस बदलाव से कटकर हवा में टंग गई हैंइसलिए मंदी पेचीदा हो रही है

भारतीय अर्थव्यवस्था की बदली ताकत का नया वितरण काफी अनोखा हैजिसे मैकेंजी जैसी एजेंसियांआर्थिक सर्वेक्षण और सरकार के आंकड़े नापते-जोखते रहे हैं.

·       दिल्ली में सरकार चाहे जो बनाते हों लेकिन भारत को मंदी से निकालने का दारोमदार 12 अत्यंत तेज और तेज विकास दर वाले राज्यों पर है. 2002-12 के दौरान इनमें से आठ की विकास दर भारत के जीडीपी से एक फीसद ज्यादा थीगोवाचंडीगढ़दिल्लीपुदुच्चेरीहरियाणामहाराष्ट्रगुजरातकेरलहिमाचलतमिलनाडुपंजाब और उत्तराखंड आज देश का 50 फीसद जीडीपी और करीब 58 फीसद उपभोक्ताओं की मेजबानी करते हैंअगले सात साल में इनमें आठ से दस राज्य यूरोप की छोटे देशों जैसी अर्थव्यवस्था हो जाएंगेमंदी से लड़ाई की अगुआई इन्हें ही करनी है.

·       अगले सात साल में भारत की करीब 38 फीसद आबादी (करीब 55-58 करोड़ लोगनगरीय होगीभारत के 65 नगरीय जिले (जैसे दिल्लीनोएडाहुगलीनागपुररांचीबरेलीइंदौरनेल्लोरउदयपुरकोलकातामुंबईसूरतराजकोट आदिदेश की खपत का नेतृत्व करते हैंदेश की करीब 26 फीसद आबादी, 45 फीसद उपभोक्ता वर्ग और 37 फीसद खपत और 40 फीसद जीडीपी इन्हीं में केंद्रित हैअगले पांच साल में खपत के सूरमा जिलों की संख्या 79 हो जाएगीखपत बढ़ाने की रणनीति इन जिलों के कंधों पर सवार होगी.

·       यूं ही नहीं भारत में रोजगार के अवसर गिने-चुने इलाकों में केंद्रित हैंलगभग 49 क्लस्टर (उद्योगनगरबाजारभारत मे जीडीपी में 70 फीसद का योगदान करते हैंइनके दायरे में करीब 250 से 450 शहर आते हैंयही रोजगार का चुंबक हैं और यहीं से बचत गांवों में जाती हैभारत के अंतरदेशीय प्रवास के ताजा अध्ययन इन केंद्रों के आकर्षण का प्रमाण हैंदुर्भाग्य से नोटबंदी और जीएसटी की तबाही का इलाका भी यही है.

2008 के बाद दुनिया में आए संकट को करीब से देखने के बाद दुनिया के कई देशों में यह महसूस किया गया कि उनकी स्थानीय समृद्धि कुछ दर्जन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के पास सिमट गईजबकि अगर स्थानीय अर्थव्यवस्था में 100 डॉलर लगाए जाएं तो कम से 60 फीसद पूंजी स्थानीय बाजार में रहती हैइसके आधार पर दुनिया में कई जगह लोकल इकोनॉमी (आर्थिक भाषा में लोकल मल्टीप्लायरताकत देने के अभियान शुरू हुएबैंकिंग संकट और ब्रेग्जिट के बीच उत्तर इंग्लैंड के शहर प्रेस्टन का लोकल ग्रोथ मॉडल चर्चा में रहा हैजहां उपभोक्ताओं से जुटाए गए टैक्स और संसाधनों का स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल किया गया.

कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती से मांग या रोजगार बढ़ने के दावे जड़ नहीं पकड़ रहे हैंबार्कलेज बैंक ने हिसाब लगाया हैअगर अपने मुनाफे पर टैक्स देने वाली कंपनियों की कारोबारी आय पिछले वर्षों की रफ्तार से बढे़ (जो कि मुश्किल हैतो यह कटौती जीडीपी को ज्यादा से ज्यादा 5.6 फीसद तक ले जाएगी और अगर आय कम हुई (जो कि तय लग रहा हैतो कॉर्पोरेट कर में कमी से जीडीपी हद से हद 5.2 फीसद तक जाएगायानी करीब 1.5 लाख करोड़ रुपए के तोहफे के बदले छह फीसद की ग्रोथ भी दुर्लभ है.
रोजगारों के बाजार में बड़ी कंपनियों की भूमिका पहले भी सीमित थी और आज भी हैहमारे पड़ोस की ग्रोथ फैक्ट्रियों और बाजारों के सहारे ही भारत की उपभोक्ता खपत 2002 से 2012 के बीच हर साल सात फीसद (7.7 फीसद की जीडीपी ग्रोथ के लगभग बराबरबढ़ी और निवेश जीडीपी के अनुपात में 35 फीसद के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचानतीजा यह हुआ कि करीब 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले और लगभग 20 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़ गए.

रोजगार और खपत बढ़ाने के लिए ज्यादा नहीं केवल एक दर्जन राज्य स्तरीय और 50 स्थानीय रणनीतियों की जरूरत हैअब मेक इन इंडिया की जगह मेक इन लुधियानापुणेकानपुरबेंगलूरूसूरतचंडीगढ़ की जरूरत हैइन्हीं के दम पर मंदी रोकी जा सकती हैयाद रहे कि भारत का कीमती एक दशक पहले ही बर्बाद हो चुका है.



Saturday, March 16, 2019

सत्ता की चाबी


क्या नरेंद्र मोदी को दोबारा जीत के करिश्मे के लिए 2014 से बड़ी लहर चाहिए? 

क्या लोग सरकार चुनते नहीं बल्कि बदलते हैं?

क्यों सत्ता विरोधी मत चुनावों का स्थायी भाव है?

चुनाव सर्वेक्षणों की गणिताई में इनके जवाब मिलना मुश्किल है. जातीय रुझानों या चेहरों की दीवानगी के आंकड़ों से परेतथ्यों की एक दूसरी दुनिया भी है जहां से हम वोटरों के मिजाज को आंक सकते हैं.

इसके लिए भारत के ताजा आर्थिक इतिहास की एक चुनावी यात्रा पर निकलना होगा. इस सफर के लिए जरूरी साजो-सामान कुछ इस प्रकार हैं:

-  गुजरातपंजाबकर्नाटकमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थानतेलंगाना के ताजा चुनाव नतीजे. गुजरात और कर्नाटक उद्योग-निर्यात-कृषि-खनिज-सेवा आधारित अर्थव्यस्थाएं हैं जबकि मध्य प्रदेशपंजाब और तेलंगाना की अर्थव्यवस्था में कृषि का बड़ा हिस्सा है. छत्तीसगढ़ कृषि व खनिज आधारित और राजस्थान सेवा व कृषि आधारित राज्य हैं. ये राज्य देश की अन्य अर्थव्यवस्थाओं का सैम्पल हैं. 

-     पिछले एक दशक मेंग्रामीण मजदूरीआर्थिक विकासकृषि विकास दर के आंकड़े और चुनाव नतीजे साथ रखने होंगे.
-     भारत में लोकसभा की करीब 380 सीटें पूरी तरह ग्रामीण हैं जिनमें 86 सीटें उन राज्यों में हैं जिनके सबसे ताजा नतीजे हमारे सामने हैं.

राज्यों के आर्थिक और कृषि विकास की रोशनी में विधानसभा नतीजों को देखने पर तीन निष्कर्ष हाथ लगते हैं.

1-   गुजरातकर्नाटकमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थान में चुनाव के साल आर्थिक विकास दर पिछले पांच साल के औसत से कम (क्रिसिल रिपोर्ट) थी. गुजरात में भाजपा मुश्किल से सत्ता में लौटी. अन्य राज्‍यों में बाजी पलट गई जबकि कुछ राज्यों में तो विपक्ष था ही नहीं या देर से जागा था. जहां मंदी का असर गहरा था जैसे छत्तीसगढ़वहां इनकार ज्यादा तीखा था. यानी लोगों के फैसले वादों पर नहींसरकारों के काम पर आधारित थे.

2-   2015-16 के बाद (चुनाव से एक या दो साल पहले) उपरोक्त सभी राज्यों में कृषि विकास दर में गिरावट आई. पूरे देश में ग्रामीण मजदूरी दर में कमी और सकल कृषि विकास दर में गिरावट के ताजा आंकड़े इसकी ताकीद करते हैं.

3- 2014 के बाद जिन राज्यों में सत्ता बदली है वहां चुनावी साल के आसपास राज्य की आर्थिक व कृषि विकास दर घटी है. तेलंगाना (बिहार और बंगाल भी) अपवाद हैं जहां विकास दर पांच साल के औसत से ज्यादा थी. यहां खेती की सूरत देश की तुलना में ठीकठाक थी इसलिए नतीजे सरकार के माफिक रहे.

इन आंकड़ों की रोशनी में लोकसभा चुनाव का परिदृश्य कैसा दिखता है.

  खेती महकमे के मुताबिकदेश के 11 राज्यों में खेती की हालत ठीक नहीं है. इनमें हरियाणापंजाबमध्य‍ प्रदेशगुजरात और उत्तर प्रदेश में पिछले तीन से पांच वर्षों में सामान्य से कम बारिश हुई है. बिहारआंध्र प्रदेश और बंगाल ऐसे बड़े राज्य हैं जहां खेती की मुसीबतें देश के अन्य हिस्सों से कुछ कम हैं.

-     ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी संसाधन झोंक कर मंदी रोकी जा सकती है. यूपीए ने 2004 के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी निवेश किया थावैसा ही कुछ तेलंगाना में सरकार ने किया.

मोदी सरकार के बजटों की पड़ताल बताती है कि 2015 से 2018 के बीच ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सरकार की मददइससे पहले के पांच वर्ष की तुलना में कम थी. ग्रामीण मंदी का सियासी असर देखकर 2017 के बाद राज्यों में कर्ज माफ हुए और केंद्र ने समर्थन मूल्य बढ़ाया. किसान नकद सहायता भी इसी का नतीजा है. लेकिन शायद देर हो चुकी है और कृषि संकट ज्यादा गहरा है. 

अपवादों को छोड़कर वोटरों का यही रुख 1995 के बाद हुए अधिकांश चुनावों में दिखा है. जिन राज्यों में आर्थिक या कृषि विकास दर ठीक थी वहां सरकारें लौट आईं. 2000 के बाद के एक दशक में राज्यों में सबसे ज्यादा सरकारें दोहराई गईं क्योंकि वह खेती और आर्थिक विकास का सबसे अच्छा दौर था. 2004 के चुनाव में वोटरों के फैसले पर सूखा और कृषि में मंदी का असर दिखाई दिया (राजग की पराजय). जबकि 2009 में महंगाई के बावजूद केंद्र में यूपीए को दोबारा चुना गया. 2014 में भ्रष्टाचार के अलावा खेती की बदहाली सरकार पलटने की एक बड़ी वजह थी.

आर्थिक आंकड़े सबूत हैं कि नेताओं की चालाकी के अनुपात में मतदाताओं की समझदारी भी बढ़ी है. लोग अपनी ज‌िंदगी की सूरत देखकर बटन दबाते हैं. ध्यान रहे कि कृ‍षि संकट वाले राज्यों में करीब 230 सीटें पूरी तरह ग्रामीण प्रभाव वाली हैं. सत्ता‍ की चाबी शायद इनके पास हैकिसी एक उत्तर या दक्षिण प्रदेश के पास नहीं. 

Monday, October 22, 2018

बाजी पलटने वाले!


सियासत अगर इतिहास को नकारे नहीं तो नेताओं पर कौन भरोसा करेगा? सियासत यह दुहाई देकर ही आगे बढ़ती है कि इतिहास हमेशा खुद को नहीं दोहराता लेकिन बाजार इतिहास का हलफनामा लेकर टहलता है, उम्मीदों पर दांव लगाने के लिए वह अतीत से राय जरूर लेता है. 
जैसे गांवों या खेती को ही लें.
इस महीने की शुरुआत में जब किसान दिल्ली की दहलीज पर जुटे थे तब सरकार को इसमें सियासत नजर आ रही थी लेकिन आर्थिक दुनिया कुछ दूसरी उधेड़बुन में थी. निवेशकों को 2004 और 2014 याद आ रहे थे जब आमतौर पर अर्थव्यवस्था का माहौल इतना खराब नहीं था लेकिन सूखा, ग्रामीण मंदी व आय में कमी के कारण सरकारें भू लोट हो गईं.
चुनावों के मौके पर भारतीय राजनीति की भारत माता पूरी तरह ग्रामवासिनी हो जाती है. अर्थव्यवस्था और राजनीति के रिश्ते विदेशी निवेश या शहरी उपभोग की रोशनी में नहीं बल्कि लोकसभा की उन 452 ग्रामीण सीटों की रोशनी में पढ़े जाते हैं जहां से सरकार बनती या मिट जाती है.
समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी और कर्ज माफी के बावजूद गांवों में इतनी निराशा या गुस्सा क्यों है?
पानी रे पानी: 2015 से 2018 तक भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरी मंदी से जूझती रही है. पहले दो साल (2015 और 2016) सूखा, फिर बाद के दो वर्षों में सामान्य से कम बारिश रही और इस साल तो मॉनसून में सामान्य से करीब 9 फीसदी कम बरसात हुई जो 2014 के बाद सबसे खराब मॉनसून है. हरियाणा, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र (प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्य) में 2015 से 2019 के बीच मॉनूसन ने बार-बार धोखा दिया है. इन राज्यों के आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा 17 से 37 फीसदी तक है.
यह वह मंदी नहीं: दिल्ली के हाकिमों की निगाह अनाजों के पार नहीं जाती. उन्हें लगता है कि अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ाने से गांवों में हीरे-मोती बिछ जाएंगे. लेकिन मंदी तो कहीं और है. दूध और फल सब्जी का उत्पादन बढऩे की रफ्तार अनाज की तुलना में चार से आठ गुना ज्यादा है. छोटे मझोले किसानों की कमाई में इनका हिस्सा 20 से 30 फीसदी है. पिछले तीन साल में इन दोनों उत्पाद वर्गों को मंदी ने चपेटा है. बुनियादी ढांचे की कमी और सीमित प्रसंस्करण सुविधाओं के कारण दोनों में उत्पादन की भरमार है और कीमतें कम. इसलिए दूध की कीमत को लेकर आंदोलन हो रहे हैं. उपभोक्ता महंगाई के आंकड़े इस मंदी की ताकीद करते हैं.
गांवों में गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है. शहरी मंदी, गांवों की मुसीबत बढ़ा रही है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और उसे मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी?  
कमाई कहां है ?: गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. एक ताजा रिपोर्ट (जेएम फाइनेंशियल-रूरल सफारी) बताती है कि सूखे के पिछले दौर में भवन निर्माण, बालू खनन, बुनियादी ढांचा निर्माण, डेयरी, पोल्ट्री आदि से गैर कृषि आय ने गांवों की मदद की थी. लेकिन नोटबंदी जीएसटी के बाद इस पर भी असर पड़ा है. गैर कृषि आय कम होने का सबसे ज्यादा असर पूर्वी भारत के राज्यों में दिखता है. इस बीच गांवों में जमीन की कीमतों में भी 2015 के बाद से लगातार गिरावट आई है.
महंगाई के पंजे: अनाज से समर्थन मूल्य में जितनी बढ़त हुई है उसका एक बड़ा हिस्सा तो रबी की खेती की बढ़ी हुई लागत चाट जाएगी. कच्चे तेल की आग उर्वरकों के कच्चे माल तक फैलने के बाद उवर्रकों की कीमत 5 से 28 फीसदी तक बढऩे वाली है. डीएपी की कीमत तो बढ़ ही गई है, महंगा डीजल रबी की सिंसचाई महंगी करेगा.
मॉनसून के असर, ग्रामीण आय में कमी और गांवों में मंदी को अब आर्थिक के बजाए राजनैतिक आंकड़ों की रोशनी में देखने का मौका आ गया है. याद रहे कि गुजरात के चुनावों में गांवों के गुस्से ने भाजपा को हार की दहलीज तक पहुंचा दिया था. मध्य प्रदेश जनादेश देने की कतार में है.  
हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां 2015 से 2019 के बीच दो से लेकर पांच साल तक मॉनसून खराब रहा है; ग्रामीण आय बढऩे की रफ्तार में ये राज्य सबसे पीछे और किसान आत्महत्या में सबसे आगे हैं.
सनद रहे कि ग्रामीण मंदी से प्रभावित इन राज्यों में लोकसभा की 204 सीटे हैं. और इतिहास बताता है कि भारत के गांव चुनावी उम्मीदों के सबसे अप्रत्याशित दुश्मन हैं.


Sunday, June 10, 2018

नई पहेली


गांव क्यों तप रहे हैं?

किसान क्यों भड़के हैं?

उनके गुस्से को किसी एक आंकड़े में बांधा जा सकता है?

आंकड़ा पेश-ए-नजर हैः

गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. यह गांवों में खुशहाली को नापने का जाना-माना पैमाना है. चार साल की गिरावट के बाद, पिछले साल के कुछ महीनों के दौरान ग्रामीण मजदूरी बढ़ती दिखी थी लेकिन वेताल फिर डाल पर टंग गया है.

ठहरिए! यह गिरावट सामान्य नहीं है क्योंकि...

Ø पिछले साल मॉनसून बेहतर रहा और रिकॉर्ड उपज भी. इस साल भी अब तक तो बादल मेहरबान हैं ही

Ø  समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी इतनी भी बुरी नहीं रही.

Ø 2014 से अब तक आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, कर्नाटक में किसानों के कर्ज माफ किए गए या किए जा रहे हैं.

Ø  पिछले एक साल में केंद्र और राज्यों ने गांवों में रिकॉर्ड (2009 के बाद सर्वाधिक) संसाधन डाले.

Ø और सस्ता आयात रोकने के लिए गेहूं, चीनी, खाद्य तेल के आयात पर कस्टम ड्यूटी (हाल में चीनी पर 100 फीसदी, चने पर 50 फीसदी, गेहूं पर 30 फीसदी) बढ़ाई गई.

फिर भी गांवों में कमाई गिर रही है!

कमाई कम होना केवल वोट वालों के लिए ही डरावना नहीं है, गांव के बाजार पर टिकी मोबाइल, बाइक, साबुन, तेल, मंजन, दवा, कपड़ा, सीमेंट बनाने वाली सैकड़ों कंपनियां भी पसीना पोछ रही हैं.

सरकार को उसके हिस्से की सराहना मिलनी चाहिए कि उसने पिछले चार साल में अन्य सरकारों की तर्ज पर खेती में जगह-जगह आग बुझाने की भरसक कोशिश की है. इन कोशिशों में समर्थन मूल्य को अधिकतम सीमा तक बढ़ाने का वादा शामिल है. किसानों की आय दोगुनी करने के इरादे के नीचे नीतियों की नींव नजर नहीं आई लेकिन यह मानने में हर्ज नहीं कि सरकार गांवों में घटती आय की हकीकत से गाफिल नहीं है. 

दरअसल, खेती की छांव में उम्मीदों को पोसती ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पिछले दो साल में एक पहेलीनुमा बदलाव हुआ है. बादलों की बेरुखी खेती को तोड़ती है लेकिन अच्छे मेघ से कमाई नहीं उगती. सरकार की मदद का खाद-पानी भी बेकार जाता है.

क्या ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण, गांव में गहरी मंदी की वजह है?

आंकड़ों के भूसे से धान निकालने पर नजर आता है कि गांवों से शहरों के बीच श्रमिकों की आवाजाही, ताजी मंदी का कारण हो सकती है. इसे समझने के लिए हमें शहरों की उन फैक्ट्रियों-धंधों पर दस्तक देनी होगी जो अधिकांशतः श्रम आधारित हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था में इनका हिस्सा काफी बड़ा है.

2005 से 2012 के बीच बड़ी संख्या में गांवों से लोग शहरों में आए थे जब भवन निर्माण, ट्रांसपोर्ट जैसे कारोबार फल-फूल रहे थे. यही वह दौर था जब गांवों की कमाई में सबसे तेज बढ़ोतरी देखी गई.

ग्रामीण आय में गिरावट का ताजा अध्याय, शहरों में श्रम आधारित उद्योगों में मंदी की वंदना से प्रारंभ होता है. चमड़ा, हस्त शिल्प, खेल का सामान, जूते, रत्न-आभूषण, लकड़ी, कागज उद्योगों में नोटबंदी और जीएसटी के बाद गहरी मंदी आई. ये उद्येाग पारंपरिक रूप से श्रमिकों पर आधारित हैं. भवन निर्माण के सितारे तो 2014 से ही खराब हैं.

शुरुआती आंकड़े हमें इस आकलन की तरफ धकेलते हैं कि शहरी मंदी, गांवों की सबसे बड़ी मुसीबत है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी? वहां जबरदस्त गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है.

गांवों की अर्थव्‍यवस्था का बड़ा हिस्सा यकीनन अब शहरों पर निर्भर हो गया है इसलिए जीडीपी में रिकॉर्ड बढ़ोतरी (2017-18 की चौथी तिमाही) पर रीझने से बात नहीं बनेगी.

गांवों को अपनी खुशहाली वापस पाने के लिए शहरों की पटरी पर बैठकर लंबा इंतजार करना होगा. अब गांवों के अच्छे दिन शहरों से मंदी खत्म होने पर निर्भर हैं. शहर में धंधा-रोजगार बढ़ेगा तब गांव में बारात चढ़ेगी. तेल की महंगाई, ऊंची ब्याज दरों व कमजोर रुपए के बीच शहर के रोजगार घरों का ताला खुलने में लंबा वक्त लग सकता है 

अगर अच्छी फसल, कर्ज माफी और सरकारी कोशिशों के बावजूद शहरी मंदी ने गांव को लपेट ही लिया है तो फिर दम साध कर बैठिए, क्योंकि यह उलटफेर सियासत की तासीर बदल सकता है.