डिमॉनेटाइजेशन ने दुनिया में आर्थिक सुधारों का बुनियादी पैमाना ही बदल दिया है
यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिमॉनेटाइजेशन के जरिए लोगों की जिंदगी में बड़े ठोस व प्रत्यक्ष बदलाव ला सके तो वे आधुनिक युग के पहले ऐसे राजनेता होंगे, जिसने सुधारों का बुनियादी पैमाना ही बदल दिया. प्रत्यक्ष बदलावों से मतलब ऐसी तरक्की है, जो देंग श्याओपिंग (1978-84) के सुधारों के बाद चीन में, रोनाल्ड रीगन (1981-89) के जरिए अमेरिका में, मार्गरेट थैचर (1979-90) के जरिए ब्रिटेन में और 1991-1995 के सुधारों के बाद भारत में नजर आई. इन सुधारों से इन देशों के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को लंबे समय के लिए अभूतपूर्व सकारात्मक ताकत हासिल हुई.
अधिकांश आर्थिक परिवर्तनों की बुनियाद किसी तात्कालिक राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक संकट से तैयार हुई है. इस पैमाने पर नरेंद्र मोदी पहले ऐसे नेता हैं, जिन्होंने सुधार के लिए संकट को न्यौता दिया है. नोटबंदी एक बड़ा आर्थिक सुधार है, लेकिन फिलहाल इसके चलते विश्व की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गई है और दौड़ता हुआ देश नौकरियां, सुकून व आर्थिक आजादी गंवाकर बीच राह में खड़ा हो गया है.
देश के ताजा इतिहास में दो ऐसे फैसले मिलते हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों और असर के आधार पर नरेंद्र मोदी के डिमॉनेटाइजेशन के समानांतर हैं. दोनों ही फैसले, संकट से उपजे थे अलबत्ता नतीजे एक-दूसरे से विपरीत थे.
वह 6.6.66 ही था, जब इंदिरा गांधी ने रुपए का 35.5 फीसदी अवमूल्यन किया. लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने कुछ ही महीने बीते थे. मंदी व सूखे और राजनैतिक चुनौतियों के बीच यह भूकंप जैसा फैसला इस उम्मीद के साथ हुआ कि विदेशी पूंजी आएगी, निर्यात बढ़ेगा और अमेरिका सहित अन्य देशों से मिलने वाली सहायता बढ़ जाएगी. अलबत्ता अवमूल्यन बड़ी भूल साबित हुआ. अंतरराष्ट्रीय सहयोग नहीं मिला और संकट बढ़ते चले गए.
इस सुधार के बाद देश का अर्थचक्र उलटा घूम गया. लाइसेंस परमिट राज आ गया. एमआरटीपी ऐक्ट बना और निजी बैंकों में जमा धन को जनता तक पहुंचाने के वादे के साथ बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. यह अंधा युग 1991 में आर्थिक सुधारों के साथ खत्म हुआ.
भुगतान संकट और विदेश में गिरवी सोने की पृष्ठभूमि में 1 जुलाई, 1991 को प्रधानमंत्री नरसिंह राव, जब रुपए का अवमूल्यन कर रहे थे तो 6.6.66 उन्हें डरा रहा था. राव के नेतृत्व में पहला अवमूल्यन (7 फीसदी) 1 जुलाई को हुआ. दूसरा (9 फीसदी) 3 जुलाई को होना था. 1 जुलाई के फैसले पर प्रतिक्रिया के बाद प्रधानमंत्री राव हिचक गए. 3 जुलाई की सुबह उन्होंने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर अगला अवमूल्यन रोकने के लिए कहा, लेकिन तब तक रिजर्व बैंक गवर्नर सी. रंगराजन फैसला लागू कर चुके थे.
इस अवमूल्यन के नतीजे 1966 की तुलना में पूरी तरह विपरीत थे. भारत को तुरंत विदेशी मदद मिली, लेकिन इसका वास्तविक असर 1995 के बाद नजर आया जब भारत डब्ल्यूटीओ का हिस्सा बना. 1996 से 2000 के बीच आयात से प्रतिबंध हटाए गए. इसके बाद अर्थव्यवस्था खुलती, फैलती गई और लोगों की आय बढ़ती चली गई. 8 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी जब डिमॉनेटाइजेशन कर रहे थे, तब ग्लोबल मंदी के बीच भारत दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था थी जिसकी बुनियाद इन्हीं सुधारों ने बनाई थी.
उथल-पुथल पैदा करने वाले आर्थिक सुधारों का इतिहास दो बड़े निष्कर्ष लेकर आता है.
पहला—ज्यादातर सफल सुधारों ने अंततः नागरिकों को आजादी और ताकत बख्शी है और नया मध्य वर्ग तैयार किया. रीगन के सुधार सरकारी नियंत्रण कम करने, मुद्रास्फीति थामने और निजी उद्यमिता को बढ़ाने पर केंद्रित थे. इसका नतीजा अस्सी के दशक की तेज ग्रोथ, नए रोजगारों और तेज खपत में नजर आया.
लेबर यूनियन और समृद्ध तबके के बीच बंटे तत्कालीन ब्रिटेन में थैचर का पैकेज भी मुक्त बाजार, सरकारी कंपनियों के निजीकरण, महंगाई पर नियंत्रण और सरकार को सीमित रखने पर आधारित था, जिसने ब्रिटेन में थैचर समर्थक नया मिडिल क्लास तैयार किया.
चीन में देंग श्याओपिंग के सुधार विशाल आबादी की आय बढ़ाने के मकसद से शुरू हुए. इन सुधारों ने चीन को दुनिया की बेजोड़ आर्थिक ताकत बनाया और 70 करोड़ लोगों को गरीबी से निजात देकर दुनिया का सबसे बड़ा मध्य वर्ग बना दिया.
दूसरा—ज्यादातर सुधार आर्थिक और सामाजिक जरूरतों की देन थे जिनके राजनैतिक लाभ बाद में नजर आए.
डिमॉनेटाइजेशन भारत में आजादी के बाद की सबसे बड़ी आर्थिक उथल-पुथल है, जो प्रधानमंत्री की तरफ से तय सीमा के मुताबिक अपने आखिरी चरण में पहुंच रही है. इसके तात्कालिक नतीजों में राहत कम और चुभन ज्यादा है.
- इस सुधार ने आम लोगों की आर्थिक आजादी को सीमित कर दिया है.
- मोदी के सत्ता में आने से पहले एक मध्य वर्ग तैयार हो चुका था जो रोजगार, आय, खर्च और खपत में बढ़ोतरी को लेकर बेचैन है. वह इस सुधार के रॉबिन हुड मॉडल (अमीरों को सजा, गरीबों को राहत) से रोमांचित तो है लेकिन बढ़ते दर्द के साथ आशंकाओं और अमूर्त उम्मीदों के बीच झूल रहा है.
- इस सुधार से अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण बढऩे का खतरा है.
- इस सुधार के राजनैतिक लक्ष्य तो दिखते हैं, प्रत्यक्ष आर्थिक फायदों की तस्वीर अभी तैयार होनी है.
वक्त बताएगा कि नरेंद्र मोदी मार्गरेट थैचर या रोनाल्ड रीगन साबित हुए या नहीं, लेकिन अगर डिमॉनेटाइजेशन ने पांच वर्ष बाद भी भारत को 1991 के सुधारों जैसे नतीजे दिए तो इतिहास इस तथ्य के साथ लिखा जाएगा कि समाज व अर्थव्यवस्था को नई ताकत देने के लिए उसे कमजोर करने में कोई हर्ज नहीं है.