Showing posts with label currency devaluation. Show all posts
Showing posts with label currency devaluation. Show all posts

Monday, December 12, 2016

8.11.16 बनाम 6.6.66 और 1.7.91


डिमॉनेटाइजेशन ने दुनिया में आर्थिक सुधारों का बुनियादी पैमाना ही बदल दिया है



दि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिमॉनेटाइजेशन के जरिए लोगों की जिंदगी में बड़े ठोस व प्रत्यक्ष बदलाव ला सके तो वे आधुनिक युग के पहले ऐसे राजनेता होंगेजिसने सुधारों का बुनियादी पैमाना ही बदल दिया. प्रत्यक्ष बदलावों से मतलब ऐसी तरक्की हैजो देंग श्याओपिंग (1978-84) के सुधारों के बाद चीन मेंरोनाल्ड रीगन (1981-89) के जरिए अमेरिका मेंमार्गरेट थैचर (1979-90) के जरिए ब्रिटेन में और 1991-1995 के सुधारों के बाद भारत में नजर आई. इन सुधारों से इन देशों के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को लंबे समय के लिए अभूतपूर्व सकारात्मक ताकत हासिल हुई.  

अधिकांश आर्थिक परिवर्तनों की बुनियाद किसी तात्कालिक राजनैतिकआर्थिक या सामाजिक संकट से तैयार हुई है. इस पैमाने पर नरेंद्र मोदी पहले ऐसे नेता हैंजिन्होंने सुधार के लिए संकट को न्यौता दिया है. नोटबंदी एक बड़ा आर्थिक सुधार हैलेकिन फिलहाल इसके चलते विश्व की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गई है और दौड़ता हुआ देश नौकरियांसुकून व आर्थिक आजादी गंवाकर बीच राह में खड़ा हो गया है.

देश के ताजा इतिहास में दो ऐसे फैसले मिलते हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों और असर के आधार पर नरेंद्र मोदी के डिमॉनेटाइजेशन के समानांतर हैं. दोनों ही फैसलेसंकट से उपजे थे अलबत्ता नतीजे एक-दूसरे से विपरीत थे.

वह 6.6.66 ही थाजब इंदिरा गांधी ने रुपए का 35.5 फीसदी अवमूल्यन किया. लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने कुछ ही महीने बीते थे. मंदी व सूखे और राजनैतिक चुनौतियों के बीच यह भूकंप जैसा फैसला इस उम्मीद के साथ हुआ कि विदेशी पूंजी आएगीनिर्यात बढ़ेगा और अमेरिका सहित अन्य देशों से मिलने वाली सहायता बढ़ जाएगी. अलबत्ता अवमूल्यन बड़ी भूल साबित हुआ. अंतरराष्ट्रीय सहयोग नहीं मिला और संकट बढ़ते चले गए.

इस सुधार के बाद देश का अर्थचक्र उलटा घूम गया. लाइसेंस परमिट राज आ गया. एमआरटीपी ऐक्ट बना और निजी बैंकों में जमा धन को जनता तक पहुंचाने के वादे के साथ बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. यह अंधा युग 1991 में आर्थिक सुधारों के साथ खत्म हुआ.

भुगतान संकट और विदेश में गिरवी सोने की पृष्ठभूमि में 1 जुलाई, 1991 को प्रधानमंत्री नरसिंह रावजब रुपए का  अवमूल्यन कर रहे थे तो 6.6.66 उन्हें डरा रहा था. राव के नेतृत्व में पहला अवमूल्यन (7 फीसदी) 1 जुलाई को हुआ. दूसरा (9 फीसदी) 3 जुलाई को होना था. 1 जुलाई के फैसले पर प्रतिक्रिया के बाद प्रधानमंत्री राव हिचक गए. 3 जुलाई की सुबह उन्होंने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर अगला अवमूल्यन रोकने के लिए कहालेकिन तब तक रिजर्व बैंक गवर्नर सी. रंगराजन फैसला लागू कर चुके थे.

इस अवमूल्यन के नतीजे 1966 की तुलना में पूरी तरह विपरीत थे. भारत को तुरंत विदेशी मदद मिलीलेकिन इसका वास्तविक असर 1995 के बाद नजर आया जब भारत डब्ल्यूटीओ का हिस्सा बना. 1996 से 2000 के बीच आयात से प्रतिबंध हटाए गए. इसके बाद अर्थव्यवस्था खुलतीफैलती गई और लोगों की आय बढ़ती चली गई. 8 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी जब डिमॉनेटाइजेशन कर रहे थेतब ग्लोबल मंदी के बीच भारत दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था थी जिसकी बुनियाद इन्हीं सुधारों ने बनाई थी.

उथल-पुथल पैदा करने वाले आर्थिक सुधारों का इतिहास दो बड़े निष्कर्ष लेकर आता है. 

पहलाज्यादातर सफल सुधारों ने अंततः नागरिकों को आजादी और ताकत बख्शी है और नया मध्य वर्ग तैयार किया. रीगन के सुधार सरकारी नियंत्रण कम करनेमुद्रास्फीति थामने और निजी उद्यमिता को बढ़ाने पर केंद्रित थे. इसका नतीजा अस्सी के दशक की तेज ग्रोथनए रोजगारों और तेज खपत में नजर आया.
लेबर यूनियन और समृद्ध तबके के बीच बंटे तत्कालीन ब्रिटेन में थैचर का पैकेज भी मुक्त बाजारसरकारी कंपनियों के निजीकरणमहंगाई पर नियंत्रण और सरकार को सीमित रखने पर आधारित थाजिसने ब्रिटेन में थैचर समर्थक नया मिडिल क्लास तैयार किया.
चीन में देंग श्याओपिंग के सुधार विशाल आबादी की आय बढ़ाने के मकसद से शुरू हुए. इन सुधारों ने चीन को दुनिया की बेजोड़ आर्थिक ताकत बनाया और 70 करोड़ लोगों को गरीबी से निजात देकर दुनिया का सबसे बड़ा मध्य वर्ग बना दिया.

दूसराज्यादातर सुधार आर्थिक और सामाजिक जरूरतों की देन थे जिनके राजनैतिक लाभ बाद में नजर आए.

डिमॉनेटाइजेशन भारत में आजादी के बाद की सबसे बड़ी आर्थिक उथल-पुथल हैजो प्रधानमंत्री की तरफ से तय सीमा के मुताबिक अपने आखिरी चरण में पहुंच रही है. इसके तात्कालिक नतीजों में राहत कम और चुभन ज्यादा है.
  • इस सुधार ने आम लोगों की आर्थिक आजादी को सीमित कर दिया है.
  • मोदी के सत्ता में आने से पहले एक मध्य वर्ग तैयार हो चुका था जो रोजगारआयखर्च और खपत में बढ़ोतरी को लेकर बेचैन है. वह इस सुधार के रॉबिन हुड मॉडल (अमीरों को सजागरीबों को राहत) से रोमांचित तो है लेकिन बढ़ते दर्द के साथ आशंकाओं और अमूर्त उम्मीदों के बीच झूल रहा है.
  • इस सुधार से अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण बढऩे का खतरा है.
  • इस सुधार के राजनैतिक लक्ष्य तो दिखते हैंप्रत्यक्ष आर्थिक फायदों की तस्वीर अभी तैयार होनी है.

वक्‍त बताएगा कि नरेंद्र मोदी मार्गरेट थैचर या रोनाल्ड रीगन साबित हुए या नहींलेकिन अगर डिमॉनेटाइजेशन ने पांच वर्ष बाद भी भारत को 1991 के सुधारों जैसे नतीजे दिए तो इतिहास इस तथ्य के साथ लिखा जाएगा कि समाज व अर्थव्यवस्था को नई ताकत देने के लिए उसे कमजोर करने में कोई हर्ज नहीं है.





Sunday, November 29, 2015

युआन की दहाड़

युआन का एसडीआर में आना महज वित्तीय घटना नहीं है इससे ग्लोबल आर्थिक-राजनैतिक संतुलन में वे बड़े बदलाव शुरू होंगे जिनका आकलन वर्षों से हो रहा था.
क्कीसवीं सदी का इतिहास लिखते हुए यह जरूर दर्ज होगा कि चीन शायद उतनी तेजी से नहीं बदला जितनी तेजी से उसके बारे में दुनिया का नजरिया बदला. बात इसी सितंबर की है जब अमेरिका में भारतीय प्रधानमंत्री सहित लगभग सभी ग्लोबल राष्ट्राध्यक्ष मौजूद थे लेकिन अहमियत रखने वाली निगाहें केवल चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अमेरिका की यात्रा पर थीं, जो यह सुनिश्चित करने के लिए बीजिंग पहुंचे थे कि चीन की मुद्रा युआन (जिसे रेन्मिन्बी भी कहते हैं) को करेंसी के उस आभिजात्य क्लब में शामिल किया जाएगा जिसमें अब तक केवल अमेरिकी डॉलर, जापानी येन, ब्रिटिश पाउंड और यूरो को जगह मिली है. सितंबर में वाशिंगटन के कूटनीतिक गलियारों में तैरती रही यह मुहिम, बीते पखवाड़े बड़ी खबर बनी जब आइएमएफ ने ऐलान किया कि उसके विशेषज्ञ एसडीआर में युआन के प्रवेश पर राजी हैं. इसके साथ ही तय हो गया कि अक्तूबर 2016 में युआन को दुनिया की पांचवीं सबसे ताकतवर करेंसी बनाने की औपचारिकता पूरी हो जाएगी. एसडीआर में युआन के प्रवेश से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए ऐसी साख मिली है जिसका कोई सानी नहीं है.
विदेशी मुद्रा संकट में फंसे देशों के लिए आइएमएफ की मदद अंतिम सहारा होती है जो कि हाल में ग्रीस या यूरोप के अन्य संकटग्रस्त देशों को और 1991 में भारत को मिली थी. आइएमएफ के तहत एसडीआर यानी स्पेशल ड्राइंग राइट्स एक संकटकालीन व्यवस्था है. एसडीआर एक तरह की करेंसी है जो आइएमएफ के सदस्य देशों के विदेशी मुद्रा भंडार के हिस्से के तौर पर गिनी जाती है. संकट के समय इसके बदले आइएमएफ से संसाधन मिलते हैं. एसडीआर एक तकनीकी इंतजाम है जिसकी जरूरत दुर्भाग्य से ही पड़ती है लेकिन परोक्ष रूप से यह क्लब दरअसल दुनिया के विदेशी मुद्रा भंडारों के गठन का आधार है. दुनिया के लगभग सभी देशों के विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर, येन, पाउंड और यूरो पर आधारित हैं, युआन अब इनमें पांचवीं करेंसी होगी.
एसडीआर ने 46 साल के इतिहास में बहुत कम सुर्खियां बटोरी हैं. इस दर्जे को पाने के लिए आइएमएफ की शर्तें इतनी कठिन हैं कि कोई देश इस तरफ देखता ही नहीं. 2001 में कई यूरोपीय मुद्राओं के विलय से बना यूरो इसका हिस्सा बना था. किसी मुद्रा के लिए आइएमएफ के मूल्यांकन की दो शर्तें हैं. पहली शर्त है कि इस मुद्रा को जारी करने वाला देश बड़ा निर्यातक होना चाहिए. विश्व निर्यात में 11 फीसदी हिस्से के साथ चीन इस पैमाने पर बड़ी ताकत है. निर्यात के पैमाने पर युआन डॉलर व यूरो के बाद तीसरे नंबर पर है, येन और पाउंड काफी पीछे हैं.
एसडीआर क्लब में सदस्यता की दूसरी शर्त है कि करेंसी का मुक्त रूप से इस्तेमाल हो सके. इस पैमाने पर चीन शायद खरा नहीं उतरता, क्योंकि युआन पर पाबंदियां आयद हैं और इसकी कीमत भी बाजार नहीं बल्कि सरकार तय करती है, लेकिन यह चीन का रसूख ही है कि आइएमएफ ने मुक्त करेंसी के पैमाने पर युआन के लिए परिभाषा बदली है. आइएमएफ का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय विनिमय में युआन का हिस्सा काफी बड़ा है. 2014 में यह विभिन्न देशों के मुद्रा भंडारों में सातवीं सबसे बड़ी करेंसी थी. ग्लोबल करेंसी स्पॉट ट्रेडिंग में युआन 11वीं और बॉन्ड बाजारों में सातवीं सबसे बड़ी करेंसी है. यही वजह थी कि अपरिवर्तनीय होते हुए भी युआन को वह दर्जा मिल गया जो लगभग असंभव है.
युआन की यह ऊंचाई, बड़े बदलाव लेकर आएगी. एसडीआर में पांचवीं करेंसी आने के साथ अगले कुछ महीनों में दुनिया के देश अपने विदेशी मुद्रा भंडारों का पुनर्गठन करेंगे और युआन का हिस्सा बढाएंगे. माना जा रहा है कि करीब एक ट्रिलियन डॉलर के अंतरराष्ट्रीय विदेशी मुद्रा भंडार युआन में बदले जाएंगे यानी कि डॉलर की तर्ज पर युआन की मांग भी बढ़ेगी. वल्र्ड बैंक का मानना है कि अगले पांच साल में दुनिया की कंपनियां बड़े पैमाने पर युआन केंद्रित बॉन्ड जारी करेंगी, जिन्हें वित्तीय बाजार 'पांडा बॉन्ड' कहता है. इनका आकार 50 अरब डॉलर तक जा सकता है जो वित्तीय बाजारों में इसकी हनक कई गुना बढ़ाएगा.
युआन ने खुद को ग्लोबल रिजर्व करेंसी बनाने की तरफ कदम बढ़ा दिया है. ग्लोबल बाजारों में ब्रिटिश पाउंड का असर सीमित है, जापानी येन एक ढहती हुई करेंसी है और यूरो का भविष्य अस्थिर है. इसलिए अमेरिकी डॉलर और युआन शायद दुनिया की दो सबसे प्रमुख करेंसी होंगी. दरअसल, चीन चाहता भी यही था, इसलिए युआन का एसडीआर में आना केवल एक वित्तीय घटना नहीं है बल्कि इससे ग्लोबल आर्थिक-राजनैतिक संतुलन में वे बदलाव शुरू होंगे जिनका आकलन वर्षों से हो रहा था. दरअसल, यहां से दुनिया में डॉलर के एकाधिकार की उलटी गिनती पर बहस ज्यादा तथ्य और ठसक के साथ शुरू हो रही है, क्योंकि दुनिया के करीब 45 फीसदी अंतरदेशीय विनिमय अमेरिकी डॉलर में होते हैं जिसके लिए अमेरिकी बैंकिंग सिस्टम की जरूरत होती है, जल्द ही इसका एक बड़ा हिस्सा युआन को मिलेगा.
चीन जिस ग्लोबल आर्थिक ताकत बनने के सफर पर है, उसमें युआन का यह दर्जा सबसे अहम पड़ाव है, लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि दरअसल चीन उतना नहीं बदला है जितना कि दुनिया का नजरिया चीन के प्रति बदल गया है. चीन में आज भी लोकतंत्र नहीं है और वित्तीय तंत्र पहले जैसा अपारदर्शी है फिर से दुनिया ने चीन की ताकत को भी स्वीकार कर लिया है. लेकिन अब चीन को बड़े बदलावों से गुजरना होगा. युआन शायद उन सुधारों की राह खोलेगा, ग्लोबल रिजर्व करेंसी की तरफ बढऩे के लिए विदेशी मुद्रा सुधार, बैंकिंग सुधार, वित्तीय सुधार जैसे कई कदम उठाने होंगे, जिनकी तैयारी शुरू हो गई है. सीमित रूप से उदार और गैर-लोकतांत्रिक चीन अगर इतनी बड़ी ताकत हो सकता है तो सुधारों के बाद चीन का ग्लोबल रसूख कितना होगा, इसका अंदाज फिलहाल मुश्किल है.
भारत में नई सरकार आने से लगभग एक साल पहले चीन के राष्ट्रपति बने जिनपिंग ने अपने राजनैतिक व आर्थिक लक्ष्य बड़ी सूझबूझ व दूरदर्शिता के साथ चुने हैं और सिर्फ दो साल में उन्हें ऐसे नतीजों तक पहुंचाया है जिन्हें चीन ही नहीं, पूरी दुनिया महसूस कर रही है. क्या हम चीन से कुछ सीखना चाहेंगे?

Wednesday, September 9, 2015

रुपया और राष्‍ट्रवाद



रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.
चीन की चरमराती अर्थव्यवस्था और ग्लोबल करेंसी व वित्तीय बाजारों में उठापटक का भारत तत्काल कोई बड़ा फायदा उठाए या न नहीं, लेकिन इस माहौल का एक बड़ा लाभ जरूर हो सकता है. इस वित्तीय बेचैनी के बीच हमारे नेता देश की करेंसी यानी रुपए को लेकर अपने दकियानूसी आग्रहों से निजात पा सकते हैं. भारत में, बीजेपी और वामदल हमेशा से इस ग्रंथि के शिकार रहे हैं कि राष्ट्रीय साख के लिए फड़कती मांसपेशियों वाली करेंसी जरूरी है. उन्होंने यह बात सफलता के साथ सड़क पर खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाई है कि रुपए का कमजोर होना आर्थिक पाप है.
लेकिन सियासत व बाजारों में पिछले एक साल के फेरबदल के बाद ऐसा संयोग बना है जब करेंसी जैसे एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण की कीमत में गिरावट को राष्ट्रीय शर्म बताकर चुनाव लडऩे वाली बीजेपी सत्ता में है और मजबूती देने वाले तमाम कारकों की मौजूदगी के बावजूद रुपया अवमूल्यन की नई तलहटी छू रहा है. यह अनोखी परिस्थिति मुद्रा यानी करेंसी को लेकर हमें अपनी रूढ़िवादी सोच से मुक्त होने और डॉ. मनमोहन सिंह के उस सूत्र को स्वीकार करने का निमंत्रण देती है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद दिया था कि ''विनिमय दर केवल एक मूल्य मात्र है जिसका प्रतिस्पर्धात्मक होना जरूरी है.''करेंसी अवमूल्यन को लेकर भारत की राजनीति गजब की रूढ़िवादी रही है. 1991 के उथल-पुथल भरे आर्थिक दौर पर कांग्रेस के नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की ताजा किताब भारतीय राजनीति की रुपया ग्रंथि के बारे में दिलचस्प तथ्य सामने लाती है. जयराम रमेश संकट और सुधार के उस दौर में प्रधानमंत्री के सलाहकारों में शामिल थे. रमेश के संस्मरण बताते हैं कि रुपए को लेकर प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के आग्रह भले ही वामदलों या बीजेपी जैसे रूढ़िवादी न रहे हों लेकिन अवमूल्यन को लेकर वे बुरी तरह अहसज थे.
1991
के वित्तीय संकट के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के जरिए, 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को रुपए की कीमत क्रमशः 7 9 फीसदी घटाई. उस वक्त तक यह रुपए का सबसे बड़ा अवमूल्यन था और वह भी सिर्फ  72 घंटों में. उस दौर में रुपए की कीमत पूरी तरह सरकार तय करती थी, आज की तरह बाजार नहीं. रमेश लिखते हैं कि प्रधानमंत्री राव इस फैसले से इतने असहज थे कि 3 जुलाई को सुबह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर दूसरा अवमूल्यन रोकने का आदेश दे दिया. डॉ. सिंह ने समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन प्रधानमंत्री सहज नहीं हुए. अंततः सुबह 9.30 बजे डॉ. सिंह ने रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन से इसे रोकने को कहा लेकिन तब तक देर हो गई थी, रिजर्व बैंक सुबह नौ बजे रुपए के दूसरे और बड़े अवमूल्यन को अंजाम दे चुका था. डॉ. सिंह ने राहत की सांस ली और प्रधानमंत्री को उत्साह के साथ फैसला सूचित कर दिया. अलबत्ता, फैसला इतना सहज नहीं था. अवमूल्यन के बाद संसद में लंबे समय तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को अपनी पार्टी व विपक्ष की लानतें झेलनी पड़ीं.

1991
से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में काफी कुछ बदल गया लेकिन रुपए को लेकर नेताओं की हीन ग्रंथि में कोई तब्दीली नहीं आई. सत्ता में बैठने के बाद नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली को इस बात का एहसास हो रहा होगा कि कि उन्होंने रुपए की गिरावट को जिस तरह देश की साख से जोड़ा था, वह हास्यास्पद था. बाजार के जानकार रुपए की उठापटक को टेक्निकल चार्ट पर पढ़ते हैं. इस चार्ट के मुताबिक, रुपए में ताजी गिरावट (3 सितंबर 66.24 रुपए प्रति डॉलर) 2013 का दौर जैसी दिख रही है, जब रुपया 68.80 तक टूट गया था.

2013
का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि कमजोर रुपए को देश की कमजोरी बताने के राजनैतिक अभियान उसी दौरान जन्मे थे. 2013 में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर थीं. भारत में विदेशी मुद्रा की आवक-निकासी के सभी संतुलन ध्वस्त थे. हालत इस कदर बुरी थी कि रिजर्व बैंक को रुपए पर संकट टालने के लिए उपायों का पूरा दस्ता मैदान में उतारना पड़ा तब जाकर कहीं हालत सुधरी. लेकिन आज जब कच्चे तेल की कीमतें 44 डॉलर पर हैंफॉरेक्स रिजर्व 355 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर है, महंगाई घट रही है, व्यापार घाटा गिर रहा है, विदेशी आवक-निकासी में अंतर कम हो रहा है तब भी रुपया ताकत की हुंकार लगाने की बजाए 2013 की तर्ज पर गोते खा रहा है. यह परिस्थित सिद्ध करती है कि करेंसी एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण है, जिसे भावुक राष्ट्रीयता के संदर्भ में नहीं, बल्कि आर्थिक हालात की रोशनी में देखना ही समझदारी है.
 
वित्त मंत्री जेटली को रुपए की ताजा गिरावट का बचाव करना पड़े तो वे यही कहेंगे कि पिछले कुछ माह में फिलिपीन पेसो, थाई बाट और भारतीय रुपए के अलावा, उभरते बाजारों की सभी मुद्राएं गिरी थीं. इसलिए रुपए का 66-67 पहुंचना कोई बड़ी बात नहीं है. भारतीय मुद्रा निर्यात बाजार की अन्य प्रतिस्पर्धी मुद्राओं के मुकाबले कुछ ज्यादा ही मजबूत हो गई थी, इस अवमूल्यन से हमें निर्यात में बढ़त मिलेगी. यकीनन, उनके इस तर्क में आपको 1991 के डॉ. सिंह के ही शब्द सुनाई देंगे. जयराम रमेश की किताब में डॉ. सिंह का वह जवाब दर्ज है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद राज्यसभा में हुई बहस पर दिया था. उन्होंने कहा था कि अंग्रेज भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थे, औद्योगिक उत्पादों का निर्यातक नहीं. इसलिए घरेलू मुद्रा को हमेशा ताकतवर रखने के संस्कार भर दिए गए. रुपए का संतुलित अवमूल्यन हमें आधुनिक व प्रतिस्पर्धात्मक बनाता है तो वह राष्ट्र विरोधी कैसे हो जाएगा? आज डॉलर की कीमत 67 रुपए पर पहुंचते देख क्या मोदी-जेटली समेत पूरी बीजेपी यह स्वीकार करेगी कि हमेशा ताकतवर रुपए की वकालत ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति की हिमायत नहीं थी? क्या बीजेपी अब यह स्वीकार करेगी कि रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.