किसान क्यों भड़के
हैं?
उनके गुस्से को
किसी एक आंकड़े में बांधा जा सकता है?
आंकड़ा पेश-ए-नजर
हैः
गांवों में
मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का
सबसे निचला स्तर है. यह गांवों में खुशहाली को नापने का जाना-माना पैमाना है. चार
साल की गिरावट के बाद, पिछले साल के कुछ
महीनों के दौरान ग्रामीण मजदूरी बढ़ती दिखी थी लेकिन वेताल फिर डाल पर टंग गया है.
ठहरिए! यह गिरावट
सामान्य नहीं है क्योंकि...
Ø पिछले साल मॉनसून
बेहतर रहा और रिकॉर्ड उपज भी. इस साल भी अब तक तो बादल मेहरबान हैं ही
Ø समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी इतनी भी बुरी नहीं
रही.
Ø 2014 से अब तक आंध्र
प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, कर्नाटक में
किसानों के कर्ज माफ किए गए या किए जा रहे हैं.
Ø पिछले एक साल में केंद्र और राज्यों ने गांवों
में रिकॉर्ड (2009 के बाद
सर्वाधिक) संसाधन डाले.
Ø और सस्ता आयात
रोकने के लिए गेहूं, चीनी, खाद्य तेल के
आयात पर कस्टम ड्यूटी (हाल में चीनी पर 100 फीसदी, चने पर 50 फीसदी, गेहूं पर 30 फीसदी) बढ़ाई गई.
फिर भी गांवों
में कमाई गिर रही है!
कमाई कम होना
केवल वोट वालों के लिए ही डरावना नहीं है, गांव के बाजार पर टिकी मोबाइल, बाइक, साबुन, तेल, मंजन, दवा, कपड़ा, सीमेंट बनाने
वाली सैकड़ों कंपनियां भी पसीना पोछ रही हैं.
सरकार को उसके
हिस्से की सराहना मिलनी चाहिए कि उसने पिछले चार साल में अन्य सरकारों की तर्ज पर
खेती में जगह-जगह आग बुझाने की भरसक कोशिश की है. इन कोशिशों में समर्थन मूल्य को
अधिकतम सीमा तक बढ़ाने का वादा शामिल है. किसानों की आय दोगुनी करने के इरादे के
नीचे नीतियों की नींव नजर नहीं आई लेकिन यह मानने में हर्ज नहीं कि सरकार गांवों
में घटती आय की हकीकत से गाफिल नहीं है.
दरअसल, खेती की छांव में
उम्मीदों को पोसती ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पिछले दो साल में एक पहेलीनुमा बदलाव
हुआ है. बादलों की बेरुखी खेती को तोड़ती है लेकिन अच्छे मेघ से कमाई नहीं उगती.
सरकार की मदद का खाद-पानी भी बेकार जाता है.
क्या ग्रामीण और
शहरी अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण, गांव में गहरी मंदी की वजह है?
आंकड़ों के भूसे
से धान निकालने पर नजर आता है कि गांवों से शहरों के बीच श्रमिकों की आवाजाही, ताजी मंदी का
कारण हो सकती है. इसे समझने के लिए हमें शहरों की उन फैक्ट्रियों-धंधों पर दस्तक
देनी होगी जो अधिकांशतः श्रम आधारित हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था में इनका हिस्सा
काफी बड़ा है.
2005 से 2012 के बीच बड़ी संख्या
में गांवों से लोग शहरों में आए थे जब भवन निर्माण, ट्रांसपोर्ट जैसे कारोबार फल-फूल रहे थे. यही
वह दौर था जब गांवों की कमाई में सबसे तेज बढ़ोतरी देखी गई.
ग्रामीण आय में
गिरावट का ताजा अध्याय, शहरों में श्रम
आधारित उद्योगों में मंदी की वंदना से प्रारंभ होता है. चमड़ा, हस्त शिल्प, खेल का सामान, जूते, रत्न-आभूषण, लकड़ी, कागज उद्योगों
में नोटबंदी और जीएसटी के बाद गहरी मंदी आई. ये उद्येाग पारंपरिक रूप से श्रमिकों
पर आधारित हैं. भवन निर्माण के सितारे तो 2014 से ही खराब हैं.
शुरुआती आंकड़े
हमें इस आकलन की तरफ धकेलते हैं कि शहरी मंदी, गांवों की सबसे बड़ी मुसीबत है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने
पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और मांगने
वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी? वहां जबरदस्त गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है.
गांवों की अर्थव्यवस्था
का बड़ा हिस्सा यकीनन अब शहरों पर निर्भर हो गया है इसलिए जीडीपी में रिकॉर्ड
बढ़ोतरी (2017-18 की चौथी तिमाही)
पर रीझने से बात नहीं बनेगी.
गांवों को अपनी
खुशहाली वापस पाने के लिए शहरों की पटरी पर बैठकर लंबा इंतजार करना होगा. अब
गांवों के अच्छे दिन शहरों से मंदी खत्म होने पर निर्भर हैं. शहर में धंधा-रोजगार
बढ़ेगा तब गांव में बारात चढ़ेगी. तेल की महंगाई, ऊंची ब्याज दरों व कमजोर रुपए के बीच शहर के रोजगार घरों का
ताला खुलने में लंबा वक्त लग सकता है
अगर अच्छी फसल, कर्ज माफी और
सरकारी कोशिशों के बावजूद शहरी मंदी ने गांव को लपेट ही लिया है तो फिर दम साध कर
बैठिए, क्योंकि यह
उलटफेर सियासत की तासीर बदल सकता है.