भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं।
“यह कमाई का सुनहरा मौका है।
बचत को डॉलर में बदलकर बाहर लाइये। रुपये के और गिरने का इंतजार करिये। 70 रुपये
का डॉलर होने पर मुनाफा कमाइये ” भारत के नौदौलतियों के बीच विदेशी बैंकरों, ब्रोकरों और वेल्थ
मैनेजरों के ऐसे ई मेल पिछले कुछ महीनों से तैर रहे हैं। भारतीय कंपनियां भी डॉलर
देश से बाहर ले जाने ले जाने के हर संभव मौके का इस्तेमाल कर रही हैं। यकीनन भारत
लैटिन अमेरिकी मुल्कों की तरह बनाना रिपब्लिक नहीं है लेकिन इस भगदड़ ने एक विशाल
मुल्क को बेहद बोदा साबित कर दिया है। यह एक अनोखी असंगति है कि किस्म किस्म के
आर्थिक दुष्चक्रों के बावजूद ग्लोबल रेटिंग एजेंसियों की निगाह में भारत की साख
नहीं गिरी है। भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो
विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं। इन्हे रोकने के लिए ही
डॉलरों को विदेश ले जाने पर पाबंदियां लगाई गईं, जो मुसीबत
को बढाने वाली साबित हुईं। इस बेचैनी ने भारत का एक ऐसा चेहरा उघाड़ दिया है, जिस पर अविश्वास, अवसरवाद व आशंकाओं
की छाया तैर रही है।
बहुतों को यह पचाने में मुश्किल हो रही है कि सात माह के विदेशी
मुद्रा भंडार, ठीक ठाक
सोना रिजर्व और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद की संभावनाएं रहते हुए भारत को
कैपिटल कंट्रोल क्यों लागू करने पड़े, जो बाजार के मनोविज्ञान पर
खासे भारी पड़े। अभी तो विदेश में बांड जारी करने या अनिवासियों को डॉलर लाने के
लिए प्रोत्साहन देने के कदम भी नहीं उठाये गए और डॉलर बाहर ले जाने पर पाबंदियां
बढ़ा दी गईं, जो अंतिम विकल्प होना चाहिए था। दरअसल भारत से नए किस्म का
पूंजी पलायन