Showing posts with label income disparity. Show all posts
Showing posts with label income disparity. Show all posts

Thursday, December 16, 2021

आइने में आइना



ज‍िसका डर था बेदर्दी वही बात हो गईवारेन बफे के ओव‍ेर‍ियन लॉटरी वाले स‍िद्धांत को भारतीय नीति आयोग की मदद मिल गई है. यह फर्क अब कीमती है क‍ि आप भारत के किस राज्य में रहते हैं और तरक्‍की के कौन राज्‍य में शरण चाहिए. 

जन्म स्थान का सौभाग्य यानी ओवेरियन लॉटरी (वारेन बफे-जीवनी द स्नोबॉल) का स‍िद्धांत न‍िर्मम मगर व्‍यावहार‍िक है. इसक फलित यह है क‍ि अध‍िकांश लोगों की सफलता में (अपवादों को छोड़कर) बहुत कुछ इस बात पर निर्भर होता है क‍ि वह कहां पैदा हुआ है यानी अमेरिका में या अर्जेंटीना में !

अर्जेंटीना से याद आया क‍ि क‍ि वहां के लोग अब उत्‍तर प्रदेश या बिहार से सहानुभूति रख सकते हैं. मध्‍य प्रदेश झारखंड वाले, लैटिन अमेर‍िका या कैरेब‍ियाई देशों के साथ भी अपना गम बांट सकते हैं. गरीबी की पैमाइश के नए फार्मूले के बाद भारत की सीमा के भीतर आपको स्‍वीडन या जापान तो नहीं लेक‍िन अफ्रीकी गिन‍िया बिसाऊ और केन्‍या (प्रति‍ व्‍यक्‍ति‍ आय) से लेकर पुर्तगाल व अर्जेंटीना तक जरुर मिल जाएंगे.

बफे ने बज़ा फरमाते हैं क‍ि सफलता केवल प्रतिभा या क्षमता से ही तय नहीं होती है, जन्‍म स्‍थान के सौभाग्‍य से तय होती है. जैसे क‍ि  अर्जेंटीना की एक पूरी पीढ़ी दशकों से खुद पूछ रही है क‍ि यद‍ि यहां न पैदा न हुए होते तो क्‍या बेहतर होता?

अर्जेंटीना जो 19 वीं सदी में दुन‍िया के अमीर देशों में शुमार था उसका संकट इतनी बड़ी पहेली बन गया गया कि आर्थ‍िक गैर बराबरी की पैमाइश का फार्मूला (कुजनेत्‍स कर्व) देने वाले, जीडीपी के प‍ितामह सिमोन कुजनेत्‍स ने कहा था क‍ि दुनिया को चार हिस्‍सों - व‍िकस‍ित, अव‍िकस‍ित, जापान और अर्जेंटीना में बांटा जा सकता है.

Image – Kujnets Curve and Simon Kujnets

कुजनेत्‍स होते तो, भारत भी एसा ही पहेलीनुमा दर्जा देते. जहां भारत की उभरती अर्थव्‍यवस्‍था वाली तस्‍वीर भीतरी तस्‍वीर की बिल्‍कुल उलटी है. भारत में गरीबी की नई नापजोख बताती है क‍ि तेज ग्रोथ के ढाई दशकों, अकूत सरकारी खर्च, डबल इंजन की सरकारों के बावजूद अध‍िकांश राज्‍यों 10 में 2.5 से 5 पांच लोग बहुआयामी गरीबी के शिकार हैं. यह हाल तब है कि नीति‍ आयोग की पैमाइश में कई झोल हैं.

गरीबी की बहुआयामी नापजोख नया तरीका है जो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के जर‍िये दुन‍िया को मिला है. इसमें गरीबी को केवल कमाई के आधार पर नहीं बल्‍क‍ि सामाजिक आर्थ‍िक विकास के 12 पैमानों पर मापा जाता है. इनमें पोषण, बाल और किशोर मृत्यु दर, गर्भावस्‍था के दौरान देखभाल, स्कूली शिक्षा, स्कूल में उपस्थिति और खाना पकाने का साफ ईंधन, स्वच्छता, पीने के पानी की उपलब्धता, बिजली, आवास और बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में खाते को शाम‍िल किया गया है

इस नापजोख में पेंच हैं. जैसे क‍ि इसके तहत मोबाइल फ़ोन, रेडियो, टेलीफ़ोन, कम्प्यूटर, बैलगाड़ी, साइकिल, मोटर साइकिल, फ़्रिज  में से कोई दो उपकरण (जैसे साइकिल और रेडियो) रखने वाले परिवार गरीब नहीं है घर मिट्टी, गोबर से नहीं बना है, तो गरीब नहीं. बिजली कनेक्‍शन, केरोस‍िन या एलपीजी के इस्‍तेमाल और परिवार में किसी भी सदस्य के पास बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में अकाउंट होने पर उसे गरीब नहीं माना गया है. इसल‍िए अधि‍कांश शहरी गरीब को सरकार के ल‍ि‍ए गरीब नहीं हैं. तभी तो दिल्‍ली में गरीबी 5 फीसदी से कम बताई गई.

सरकारें आमतौर पर गरीबी छि‍पाती हैं, नतीजतन इस रिपोर्ट की राजनीत‍िक चीरफाड़ स्‍वाभाविक हैं, फिर भी हमें इस आधुन‍िक पैमाइश से जो निष्‍कर्ष मिलते हैं वे कोई तमगे नहीं है जिन पर गर्व किया जाए.

-    इस फेहर‍िस्‍त में जो पांच राज्‍य समृद्ध की श्रेणी में है पंजाब श्रीलंका या ग्‍वाटेमाला जैसी और तमि‍लनाडु अर्जेंटीना या पुर्तगाल जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें (उनमें जीडीपी महंगाई सहि‍त और पीपीपी) हैं. इसी कतार में आने वाले  केरल को अधिकतम जॉर्डन या चेक गणराज्‍य, सि‍क्‍क‍िम को बेलारुस और गोवा को एंटीगा के बराबर रख सकते हैं.

-    यद‍ि विश्‍व बैंक के डॉलर क्रय शक्‍ति‍ पैमाने से देखें को उत्‍तर प्रदेश, पश्‍च‍िम अफ्रीकी देश बेन‍िन और बिहार गिन‍िया बिसाऊ होगा. जीडीपी के पैमानों पर उत्‍तर प्रदेश पेरु और बिहार ओमान जैसी अर्थव्‍यवस्‍था हो सकती है. महाराष्‍ट्र, पश्‍च‍िम बंगाल, कर्नाटक, राजस्‍थान, आंध्र, मध्‍य प्रदेश तेलंगाना जैसे मझोले राज्‍य भी सर्बिया, थाइलैंड, ईराक, कजाकस्‍तान या यूक्रेन जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. इनमें कोई भी किसी विकस‍ित देश जैसा नहीं है.

धीमी पड़ती विकास दर, बढ़ते बजट घाटों और ढांचागत चुनौ‍त‍ियों की रोशनी में यह पैमाइश हमें कुछ बेहद तल्‍ख नतीजों की तरफ ले जाती है जैसे क‍ि

-    बीते दो दशकों में भारत की औसत विकास दर छह फीसदी रही, जो इससे पहले के तीन दशकों के करीब दोगुनी है. अलबत्‍ता सुधारों के 25 सालों में तरक्‍की की सुगंध सभी राज्‍यों तक नहीं पहुंची. सीएमआईई और रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक बीते बीस सालों में सबसे अगड़े और पिछड़े राज्‍यों में आय असमानता करीब 337 फीसदी बढ गई यानी क‍ि उत्‍तर प्रदेश आय के मामले में कभी भी स‍िक्‍कि‍म या पंजाब नहीं हो सकेगा.

-    औसत से बेहतर प्रदर्शन करने वाले ज्‍यादातर राज्‍य व केंद्रशास‍ित प्रदेश छोटे हैं यानी क‍ि उनके पास प्रवासि‍यों को काम देने की बड़ी क्षमता नहीं हैं. उदाहरण के ल‍िए अकेले बिहार या उत्‍तर प्रदेश में गरीबों की तादाद, नीति आयोग की गणना में ऊपर के पायदान पर खड़े नौ राज्‍यों में संयुक्‍त तौर पर कुल गरीबों की संख्‍या से ज्‍यादा है. यानी क‍ि बिहार यूपी के लोग जन्‍म स्‍थान दुर्भाग्‍य का चि‍रंतन सामना करेंगे.   

-    समृद्ध राज्‍यों की तुलना में पि‍छड़े राज्‍य श‍िक्षा स्‍वास्‍थ्‍य पर कम खर्च करते हैं लेक‍िन अगर सभी राज्‍यों पर कुल बकाया कर्ज का पैमाना लगाया जाए तो सबसे आगे और सबसे पीछे के राज्‍यों पर बकायेदारी लगभग बराबर ही है.

आर्थ‍िक राजनीत‍िक और सामाज‍िक तौर पर चुनौती अब शुरु हो रही है. भारत के विकास के सबसे अच्‍छे वर्षों में जब असमानता नहीं भर पाई तो तो आगे इसे भरना और मुश्‍क‍िल होता जाएगा. गरीबी नापने के नए पैमाने और वित्‍त आयोग की सि‍फार‍िशें बेहतर राज्‍यों को ईनाम देने की व्‍यवस्‍था दते हैं है जबक‍ि केंद्रीय सहायता में बड़ा हिस्‍सा गरीब राज्‍यों को जाता है.

अगड़े राज्‍य अपने बेहतर प्रदर्शन के लिए इनाम मांगेगे, संसाधनों में कटौती नहीं. यह झगड़ा जीएसटी पर भी भारी पड़ सकता है क्‍यों क‍ि निवेश को आकर्षि‍त करने ‍के लिए राज्‍यों को टैक्‍स र‍ियायत देने की आजादी चाहिए.

सरकारों को नीतियों का पूरा खाका ही बदलना होगा. स्‍थानीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं के क्‍लस्‍टर बनाने होंगे और छोटों के ल‍िए बड़े प्रोत्‍साहन बढ़ाने होंगे, नहीं तो रोजगारों के ल‍िए अंतरदेशीय प्रवास पर राजनीति शुरु होने वाली है. हरियाणा और झारखंड एलान कर चुके हैं क‍ि रोजगार पर पहला हक राज्य के निवासियों का है.

यह असमानतायें भारत को एक दुष्‍चक्र में खींच लाई हैं जिसका खतरा गुन्‍नार मृदाल ने हमें 1944 ( क्‍युम्‍युलेटिव कैजुएशन) में ही बता दिया था.

मृदाल के मुताबिक अगर वक्‍त पर सही संस्‍थायें आगे न आएं तो शुरुआती तेज विकास बाद में बड़ी असमानताओं में बदल जाता  है. भारत में यही हुआ है, सुधारों के शुरुआती सुहाने नतीजे अब गहरी असमानताओं में बदलकर सुधारो के लि‍ए ही खतरा बन रहे हैं. ठीक एसा ही लैटि‍न अमेर‍िका के देशों के साथ हुआ है.  

भारतीय राजनीत‍ि अपनी पूरी ताकत लगाकर भी यह असमानतायें नहीं पाट सकती. वह एक बड़ी आबादी को ओवेर‍ियन लॉटरी की सुवि‍धा नहीं दे सकती. अलबत्‍ता इन अंतराराज्‍यीय असमानताओं बढ़ने से रोक द‍िया जाए क्‍यों क‍ि यह दरार बहुत चौड़ी है. नीति आयोग की रिपोर्ट को घोंटने पर पता चलता है क‍ि 1.31 अरब की कुल आबादी 28.8 करोड़ गरीब गांव में रहते हैं और केवल 3.8 करोड़ शहरों में.

यानी क‍ि गाजीपुर बनाम गाजियाबाद या चंडीगढ़ बनाम मेवात वाली स्‍थानीय असमानताओं की बात तो अभी शुरु भी नहीं हुई है.

 


Monday, December 6, 2021

वाह सुधार, आह सुधार


इतिहास स्‍वयं को हजार तरीकों से दोहराता रह सक‍ता है. लेकि‍न संदेश हमेशा बड़े साफ होते हैं. इतने साफ क‍ि हम माया सभ्‍यता की स्‍मृ‍त‍ियों को भारत में कृषि‍ कानूनों की वापसी के साथ महसूस कर सकते हैं. अब तो पुराने नए सबकों का एक पूरा कुनबा तैयार है जो हमें  इस सच से आंख मिलाने की ताकत देता है क‍ि चरम सफलता व लोकप्र‍िता के बाद भी, शासक और सरकारें हकीकत से कटी पाई जा सकती हैं

स्‍पेनी हमलावर नायकों पेड्रो डी अल्‍वराडो और हरमन कोर्टेस को भले ही माया सभ्‍यता को मिटाने का तमगा या तोहमत म‍िला हो लेक‍िन  अल्‍वराडो 16 वीं सदी की शुरुआत में जब यूटेलटान (आज का ग्‍वाटेमाला) पहुंचा तब तक महान माया साम्राज्‍य दरक चुका था. शासकों और जनता के बीच व‍िश्‍वास ढहने  से इस सभ्‍यता की ताकत छीज गई थी.  माया नगर राज्‍यों में सत्‍ता के ज‍िस केंद्रीकरण ने भाषा, ल‍िप‍ि कैलेंडर, भव्‍य नगर व भवन के साथ यह चमत्‍कारिक सभ्‍यता (200 से 900 ईसवी स्‍वर्ण युग) बनाई थी उसी में केंद्रीकरण के चलते शासकों ने आम लोगों खासतौर पर क‍िसानों कामगारों से जुडे एसे फैसले क‍िये जिससे भरोसे का तानाबाना बिखर गया. इसके बाद माया सम्राट केइश को हराने में अल्‍वराडो और हरमन कोर्टेस को ज्‍यादा वक्‍त नहीं लगा. 

2500 वर्ष में एसा  बार बार होता रहा है क‍ि शासक और सरकारें अपनी पूरी सदाशयता के बावजूद वास्‍तविकतायें समझने में चूक जाती हैं, व्‍यवस्‍था ढह जाती हैं और बने बनाये कानून पलटने पड़ते हैं. एक साल बाद कृषि‍ कानूनों को वापस लेने की चुनावी व्‍याख्‍या तो कामचलाऊ है. इन्‍हें गहराई में जाकर देखने पर सवाल गुर्राता है क‍ि बड़े आर्थि‍क सुधारों से लोग सहमत क्‍यों नहीं हो रहे?

भारत में राजनीतिक खांचे इतने वीभत्‍स हो चुके हैं क‍ि नीत‍ियों की सफलता-व‍िफलता पर न‍िष्‍पक्ष शोध दुर्लभ हैं.  अलबत्‍ता इस  मोहभंग की वजहें तलाशी जा सकती हैं . बीते एक दशक से आईएमएफ यह समझने की कोशिश कर रहा है क‍ि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में सुधार पटरी से क्‍यों उतर जाते हैं. 

व‍िश्‍व बैंक और ऑक्‍सफोर्ड यून‍िवर्सिटी का  ताजा अध्‍ययन,  (श्रुति‍ खेमानी 2020 )  भारत में कृषि‍ सुधारों की पालकी लौटने के संदर्भ में बहुत कीमती है. इस अध्‍ययन ने पाया क‍ि दुन‍िया में सुधारों का पूरा फार्मूला केवल तीन उपायों में सि‍मट गया है. एक है न‍िजीकरण, दूसरा और कानूनों का उदारीकरण और  सब्‍सिडी खत्‍म करना. दुनिया के अर्थव‍िद इसे  हर मर्ज की संजीवनी समझ कर चटाते हैं.  मानो सुधारों का मतलब स‍िर्फ इतना ही हो.

राजनीति‍ लोगों की नब्‍ज क्‍यों नहीं समझ पाती ? अर्थव‍िद अपने स‍िद्धांत कोटरों से बाहर क्‍यों नहीं न‍िकल पाते? सुधार उन्‍हीं को क्‍येां डराते हैं जिनको इनका फायदा मिलना चाह‍िए? जवाब के ल‍िए असंगति की  इस गुफा में गहरे पैठना जरुरी है. सुधारों की परिभाषा केवल जिद्दी तौर सीम‍ित ही नहीं हो गई है बल्‍क‍ि इनके केंद्र में आम लोग नजर नहीं आते. भले ही यह फैसले बाद में बडी आबादी को फायदा पहुंचायें   लेक‍िन इनके आयोजन और संवादों के मंच पर में  कं  पनियां‍ और उनके एकाध‍िकार दि‍खते हैं  जैसे क‍ि बैंकों के निजीकरण की चर्चाओं के केंद्र में जमाकर्ता या बैंक उपभोक्‍ता को तलाशना मुश्‍क‍िल है. कृष‍ि सुधारों का  आशय तो किसानों की आय बढाना था लेक‍िन उपायों के पर्चे पर नि‍जीकरण, कारपोरेट वाले चेहरे छपे थे. इसलिए सुधार ज‍िनके ल‍िए बनाये गए थे वही लोग बागी हो गए.

भारत ही नहीं अफ्रीका और एशि‍या के कई देशों में कृषि‍ सुधार सबसे कठ‍िन पाए गए हैं. कृषि‍ दुन‍िया की सबसे पुरानी नि‍जी आर्थ‍िक गति‍वि‍ध‍ि है. सद‍ियों से लोकमानस में यह संप त्‍ति‍ के मूलभूत अध‍िकार और व जीविका के अंति‍म आयोजन के तौर पर उपस्‍थि‍त है. उद्योग, सेवा या तकनीक जैसे किसी दूसरे आर्थ‍िक उत्‍पादन  की तुलना में खेती बेहद व्‍यक्‍त‍िगत, पार‍िवार‍िक और सामुदाय‍िक  आर्थ‍िक उपार्जन है. कृषि‍ सुधारों का सबसे सफल आयोजन चीन में हुआ लेक‍िन वहां भी इसलि‍ए क्‍यों क‍ि देंग श्‍याओ पेंग ने (1981)  कृषि‍ के उत्‍पादन व लाभ पर किसानों का अधिकार सुन‍िश्‍च‍ित कर दि‍या.

 

आर्थ‍िक सुधार  पहले चरण में  बहुत सारी नेमतें बख्शते हैं. जैसे क‍ि 1991 के सुधार से भारत को बहुत कुछ मिला. लेक‍िन प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होताआर्थि‍क सुधार दूसरे चरण में  कुर्बान‍ियां मांगते हैं.  इसके ल‍िए  सुधारों के विजेताओं और हारने वालों के ईमानदार मूल्‍यांकन चाह‍िए.   अर्थशास्‍त्री मार्केट सक्‍सेस की दुहाई देते हैं मगर मार्केट फेल्‍योर (बाजार की विफलताओं) पर चर्चा नहीं करते. जिसके गहरे तजुर्बे आम लोगों के पास हैं इसलिए सरकारी नीति‍यो के अर्थशास्‍त्र पर आम लोगों का अनुभवजन्‍य अर्थशास्‍त्र भारी पड़ने लगा है.

सुधारों से च‍िढ़ बढ़ रही है  क्‍यों क‍ि सरकारें इन पर बहसस‍िद्ध सहमत‍ि नहीं बनाना चाहतीं.  जीएसटी हो या कृषि‍ बिल सरकार ने उनके सवाल ही नहीं सुने जिनके ल‍िए इनका अवतार हुआ था. सनद रहे क‍ि लोगों को सवाल पूछने की ताकत देने की ज‍िम्‍मेदारी भी सत्‍ता की है. शासन को ही यह तय करना होता है कि ताकत का केंद्रीकरण किस सीमा तक क‍िया जाए और फैसलों में लोगों की भागीदारी क‍िस तरह सुन‍िश्‍चि‍त की जाए.

दूसरे रोमन सम्राट ट‍िबेर‍ियस (42 ईपू से 37 ई) ने फैसले लेने वाली साझा सभा को समाप्‍त  कर दि‍या और ताकत सीनेट को दे दी. इसके बाद ताकत का केंद्रीकरण इस कदर बढ़ा कि आम रोमवासी अपने संपत्‍ति‍ अध‍िकारो को लेकर आशंक‍ित होने लगे. अंतत: गृह युद्धों व बाहरी युद्धों से गुजरता हुआ रोमन साम्राज्‍य करीब 5वीं सदी में ढह गया ठीक उसी तरह जैसा क‍ि माया सभ्‍यता में हुआ था.

बीते ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी हैमंदी से टूटे  लोग कमाई और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी के प्रमाण व उपाय चाहते हैं.  यही वजह है क‍ि विराट प्रचार तंत्र के बावजूद सरकार लोगों को सुधारों के फायदे नहीं समझा पाती.  सुधारों की भाषा उनके ल‍िए ही अबूझ हो गई जिनके ल‍िए उन्‍हें  गढ़ा जा रहा  है . सरकारें और उनके अर्थशास्‍त्री जिन्‍हें सुधार बताते  हैं जनता उन्‍हें अब सत्‍ता का अहंकार समझने लगी है.

कृषि कानूनों की दंभजन्‍य घोषणा पर ज‍ितनी चिंता थी उतनी ही फ‍िक्र  इनकी वापसी पर भी होनी चाह‍िए  जो सरकारों से विश्‍वास टूटने का प्रमाण है. भारत को सुधारों का क्रम व संवाद  ठीक करना होगा ताकि ईमानदार व पारदर्शी बाजार में भरोसा बना रहे. सनद रहे क‍ि गुस्साए लोग सरकार तो बदल सकते हैंबाजार नहींमुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार कितनी भी बड़ी होवह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प नहीं बन सकती.

 


Tuesday, June 6, 2017

हकीकत से इनकार

बेकारी की आपदा के बीच रोजगार सृजन की जिम्मेदारी को पीठ दिखाना कई नीतियों की असफलता का स्वीकार है.

रकार की तीसरी सालगिरह पर गायराजनीति के केंद्र में स्थापित हो गई और रोजगारों की फिक्र सियासी व गवर्नेंस चर्चाओं से बाहर हो गई.
ठीक कहते हैं भाजपा के हाकिमसरकार सबको रोजगार नहीं दे सकती. वैसे मांगा भी किसने था? सरकार ने कभी ऐसा कहा भी नहीं. श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने तो सिर्फ यह बताया था कि हर साल एक करोड़ रोजगारों के सृजन की कोशिश होगी ाकि ताकि2020 तक पांच करोड़ लोगों को रोजी मिल सके. जाहिर है, हर साल एक करोड़ नए लोग रोजगारों की कतार में आ जाते हैं.
राजनीति का तो पता नहीं लेकिन रोजगारों को लेकर हाकिमों की यह 'साफगोई' जले पर जहर जैसी हैः
1. लेबर ब्यूरो बता रहा है कि कपड़ाचमड़ारत्न-आभूषणधातुऑटोमोबाइलट्रांसपोर्ट,सूचना तकनीक और हैंडलूम इन आठ प्रमुख क्षेत्रों में रोजगार सृजन सात साल के सबसे निचले स्तर पर है.
2. नए रोजगारों की उम्मीद बनकर उभरे ई-कॉमर्स और स्टार्ट-अप बेकारी का कब्रिस्तान हैं.
3. आइटी दिग्गज कंपनियों की ताजा घोषणाओं के मुताबिकसूचना तकनीक क्षेत्र10,000 नौकरियां काट चुका है और दो लाख रोजगार खतरे में हैं.
4. नोटबंदी के बाद इस साल की चैथी तिमाही में आर्थिक विकास दर घटकर6.1 फीसदी (पिछली तिमाही में सात फीसदी) रह गई है जो नोटबंदी के चलते  असंगठित क्षेत्र में करीब चार लाख अस्थायी/स्थायी रोजगार खत्म होने की आशंकाओं को आधार देती है.
बेकारी की आपदा के बीच रोजगार सृजन की जिम्मेदारी को पीठ दिखाना कई नीतियों की असफलता का स्वीकार है.
आखिर निवेशउद्योगीकरणशिक्षाकौशलसूचना तकनीकसामाजिक विकासइन सभी नीतियों के केंद्र में रोजगारों के अलावा और क्या है?
दरअसल, 2014 में नई सरकार अगर कोई एक मिशन शुरू कर सकती थी तो वह'सबके लिए रोजगार' होना चाहिए थाजो न केवल युवा जनादेश की उम्मीदों के माफिक होता बल्कि भारत के पूरे आर्थिक नियोजन को नए ढांचे में ढालने के लिए भी अनिवार्य था. हकीकत यह है कि सामाजिक-आर्थिक विकास के बाकी क्षेत्र साफ-सफाई,तेल-पानी और ओवरहॉलिंग मांग रहे थेकेवल रोजगार ही एक ऐसा क्षेत्र है जो कई अनपेक्षित जटिलताओं से रू-ब-रू था और जिसे मिशन बनाने की जरूरत थी.
रोजगारों के ग्लोबल परिदृश्य की वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम की एक ताजा रिपोर्ट कुछ कीमती सूत्र सौंपती है जिनकी रोशनी में लगता है कि एक गंभीर सरकार रोजगारों से मुंह फेरने से पहले बहुत कुछ कर सकती हैः
1. इन्फ्रास्ट्रक्चर और निर्माणउपभोक्ता सामानऊर्जावित्तीय सेवाएंस्वास्‍थ्यसूचना तकनीकमीडिया और मनोरंजनमोबिलिटीपेशेवर सेवाएं और कृषिदस प्रमुख क्षेत्र हैं जहां अधिकांश संगठित और असंगठित रोजगार बनने हैं.
2. काम के नए तरीकेनगरीकरणमोबाइल इंटरनेटबिग डाटानया मध्य वर्गइंटरनेट ऑफ थिंग्स  (इंटरनेट से जुड़े उत्पाद)शेयरिंग इकोनॉमीरोबोटिक्स  और आधुनिक ट्रांसपोर्टएडवांस मैन्युफैक्चरिंगथ्री-डी प्रिंटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस वह प्रमुख ताकतें हैं जो ऊपर के दस क्षेत्रों में रोजगारों को अलग-अलग ढंग से प्रभावित कर रही हैं.
मसलनकाम करने के तरीकों के बदलाव से सबसे ज्यादा असर प्रोफेशनल सेवाओं और इन्फ्रास्ट्रक्चर के रोजगारों पर पड़ा है तो मोबाइल इंटरनेटस्वास्थ्यसूचना तकनीक और मीडिया में रोजगारों की सीरत बदल रहा है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्समोबिलिटी में रोजगारों के लिए गेम चेंजर हैं.
3. रोजगार की रणनीतियां अब हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग होंगीजिन्हें निवेशशिक्षा,उद्योग की नीतियों का आधार होना चाहिए.
4. भविष्य के रोजगारों का दारोमदार पुनप्रशिक्षणमैनेजमेंट के तरीकों में बदलाव,कामकाज के लचीले नियमबहुरोजगार पर होगा जिसके लिए शिक्षा की पूरी प्रणाली बदलेगी.
5. सरकारों को वस्तुतः साफ-सफाई से लेकर अंतरिक्ष तक प्रत्येक नीति के केंद्र में रोजगारों को रखना     होगा तब जाकर बेरोजगारी की चुनौतियों का कुछ समाधान मिलेगा.
क्‍या आपको महसूस नहीं होता कि यह सब तो हो सकता था फिर भी तीन साल में रोजगारों पर नीतिगत चर्चा तो छोडि़ये कहीं कोई सुई भी गिरी !
सरकार शायद इसे लेकर ज्यादा फिक्रमंद है कि हमें क्या नहीं खाना चाहिए बजाए इसके कि हमें खाने के लिए कमाना कैसे चाहिए.
कोई फर्क नहीं पड़ता कि अर्थशास्त्री जीडीपी की अमूर्त गणना छोड़कर रोजगारों की गिनती को विकास मापने का आधार बना रहे हैं. यहां तो सरकार जल्द ही आपको यह बताने वाली है कि रोजगारों में कोई कमी नहीं हुई है. दरअसलउलटा-सीधा खाने के कारण बेकारी को लेकर हमारी समझ ही प्रदूषित हो गई है!

Tuesday, July 14, 2015

यह तो मौका है!


सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था.
याने लोग कहते हैं कि बार-बार मौके मुश्किल से मिलते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी इस कहावत को गलत साबित कर रहे हैं. भारत की सामाजिक-आर्थिक गणना मोदी के लिए ऐसा अवसर लेकर आई है, जो शायद उनको मिले जनादेश से भी ज्यादा बड़ा है. देश की अधिकांश आबादी में गरीब और सामाजिक सुरक्षा के प्रयोगों की विफलता के आकलन पहले से मौजूद थे. ताजा सर्वेक्षण ने इन आकलनों को आंकड़ों का ठोस आधार देते हुए मोदी सरकार को, पूरे आर्थिक-सामाजिक नीति नियोजन को बदलने का अनोखा मौका सौंप दिया है.

इस सर्वेक्षण ने नीति नियोजन ढांचे की सबसे बड़ी कमी पूरी कर दी है. भारत दशकों से अपने लोगों की कमाई के अधिकृत आंकड़े यानी एक इन्कम डाटा की बाट जोह रहा था, जो हर आर्थिक फैसले के लिए अनिवार्य है. यहां सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के पांच बड़े नतीजों को जानना जरूरी है जो नीतियों और सियासत को प्रभावित करेंगेः (1) भारत में दस में सात लोग गांव में रहते हैं, (2) 30 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं और 51 फीसदी लोग सिर्फ मजदूर हैं, (3) गांवों में हर पांच में चार परिवारों में सर्वाधिक कमाने वाले सदस्य की अधिकतम आय 5,000 रु. प्रति माह है. यानी पांच सदस्यों के परिवार में प्रति व्यक्ति आय प्रति माह एक हजार रु. से भी कम है, (4) 56 फीसद ग्रामीण भूमिहीन हैं, (5) 36 फीसदी ग्रामीण निरक्षर हैं. केवल तीन फीसदी लोग ग्रेजुएट हैं. ये आंकड़े केवल ग्रामीण आबादी की आर्थिक स्थिति बताते हैं. इसी सर्वेक्षण का शहरी हिस्सा अभी जारी होना है. जो शायद यह बताएगा कि शहरों में बसे 11 करोड़ परिवारों में 35 लाख परिवारों के पास आय का कोई साधन नहीं है.
ग्रामीण और शहरी (अनाधिकारिक) आर्थिक सर्वेक्षण के तीन बड़े निष्कर्ष हैं. पहला, देश की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण है. दूसरा, शहरों-गांवों को मिलाकर करीब 90 फीसदी आबादी ऐसी है जो केवल 200 से 250 रु. प्रति दिन पर गुजारा करती है, और तीसरा भारत में मध्य वर्ग केवल 11 करोड़ लोगों का है जिनके पास एक सुरक्षित नियमित आय है.
इस आंकड़े के बाद कोई भी यह मानेगा कि देश में नीतियों के गठन की बुनियाद बदलने का वक्त आ गया है जिसकी शुरुआत उन पैमानों को बदलने से होगी जो सभी आर्थिक-सामाजिक नीतियों का आधार हैं. देश में गरीबी की पैमाइश बदले बिना अब काम नहीं चलेगा क्योंकि इन आंकड़ों ने साबित किया है कि भारत में गरीबी पिछली सभी गणनाओं से ज्यादा है. खपत सर्वेक्षण, महंगाई की गणना, रोजगारों का हिसाब-किताब, सामाजिक सुरक्षा की जरूरत हैं. फॉर्मूले भी नए सिरे से तय होंगे. खपत को आधार बनाकर भारत में असमानता घटने का जो आकलन (गिन्नी कोइफिशिएंट) किया जाता रहा है, इस आंकड़े की रोशनी में वह भी बदल जाएगा.
इन पैमानों को बदलते ही सरकारी नीतियां एक निर्णायक प्रस्थान बिंदु पर खड़ी दिखाई देंगी. सामाजिक-आर्थिक सेंसस के आंकड़े साबित करते हैं कि भारत में मनरेगा जैसे कार्यक्रम राजनैतिक सफलता क्यों लाते हैं? सस्ते अनाज के सहारे रमन सिंह, नवीन पटनायक या सस्ते भोजन के सहारे जयललिता लोकप्रिय और सफल कैसे बने रहते हैं जबकि औद्योगिक निवेश और बुनियादी ढांचे की सफलता पर वोटर नहीं रीझते. अलबत्ता आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोकलुभावन नीतियों का ढांचा सिर्फ लोगों को जिंदा रख सकता है, उनकी जिंदगी बेहतर नहीं कर सकता.
अर्थव्यवस्था पर आर्थिक सुधारों के प्रभाव के समानांतर इन आंकड़ों की गहरी पड़ताल की जाए तो शायद नीतियों के एक नए रास्ते की जरूरत महसूस होगी, जो विकास के पूरे आयोजन को बदलने, गवर्नेंस के बड़े सुधार, तकनीकों का इस्तेमाल, संतुलित रूप से खुले बाजार और नए किस्म की स्कीमों से गढ़ा जाएगा. गरीबी की राजनीति यकीनन बुरी है लेकिन जब 90 फीसदी लोगों के पास आय सुरक्षा ही न हो तो रोजगार या भोजन देने वाली स्कीमों के बिना काम नहीं चलता. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा देने के नए तरीके खोजने होंगे और रोजगारों को मौसमी व अस्थायी स्तरों से निकालकर स्थायी की तरफ ले जाना होगा.
आप पिछले छह दशक की ग्रामीण बदहाली को लेकर कांग्रेस को कोसने में अपना वक्त बर्बाद कर सकते हैं लेकिन सच यह है कि इन आंकड़ों के सामने आने का यह सबसे सही वक्त है. कांग्रेस के राज में अगर ये आंकड़े आए होते तो लोकलुभावनवाद का चरम दिख जाता. केंद्र में अब ऐसी सरकार है जो अतीत का बोझ उठाने के लिए बाध्य नहीं है. इसके पास मौका है कि वह भारत में नीतियों का रसायन नए सिरे से तैयार करे.
सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण और पुराने तजुर्बे ताकीद करते हैं कि देश को नीतियों व स्कीमों के भारी मकडज़ाल की जरूरत नहीं है. अचूक तकनीक, मॉनिटरिंग, राज्यों के साथ समन्वय से लैस और तीन चार बड़े सामाजिक कार्यक्रम पर्याप्त हैं, जिन्हें खुले और संतुलित बाजार के समानांतर चलाकर महसूस होने वाला बदलाव लाया जा सकता है.
सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था. सर्वेक्षण के अनुसार 200 रु. से 250 रु. रोज पर गुजरा करने वाली अधिकांश आबादी के लिए बैंक खाते, बीमा वाली जनधन योजना लगभग बेमानी है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया या इस तरह के अन्य कार्यक्रम अधिकतम दस फीसदी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं. यही वजह है कि दिहाड़ी पर जीने वाले 90 फीसदी और उनमें भी अधिकांश अल्पशिक्षित और अशिक्षित भारत पर मोदी सरकार के मिशन और स्कीमों का असर नजर नहीं आया है.
मोदी की नीतियों का पानी उतरे, उससे पहले देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत उनके हाथ में है. इन आंकड़ों की रोशनी में वे नीतियों और गवर्नेंस की नई शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लोगों ने नई शुरुआत के लिए ही चुना है, अतीत की लकीरों पर नए रंग-रोगन के लिए नहीं.