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Saturday, September 24, 2016

साहस, संयम और सूझ

पाकिस्‍तान से निबटना उतना मुश्किल नहीं जितना चुनौती पूर्ण है उन उम्‍मीदों को संभालना जिन पर नरेंद्र मोदी सवार हैं

ड़ी में सैन्य शिविर पर आतंकी हमले के अगले दिन 19 सितंबर को टीवी चैनलों पर जब ऐंकर और रिटायर्ड फौजी पाकिस्तान का तिया-पांचा कर देने के लिए सरकार को ललकार रहे थे और सरकार रणनीतिक बैठकों में जुटी थी, उसी समय दिल्ली के विज्ञान भवन में भारत के पहले पर्यटन निवेश सम्मेलन की तैयारी चल रही थी.

चाणक्यपुरी का अशोक होटल 300 विदेशी निवेशकों की मेजबानी में लगा था. देश के 25 राज्यों के प्रतिनिधि अपने यहां पर्यटन की संभावनाओं को बताने के प्रेजेंटेशन लेकर दिल्ली पहुंच चुके थे. विदेशी पर्यटकों को केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा की बेतुकी सलाहों के बीच पर्यटन को विदेशी निवेशकों के एजेंडे में शामिल कराने का यह बड़ा आयोजन प्रधानमंत्री की पहल था, जो ब्रांड इंडिया की ग्लोबल चमक बढ़ाने की योजनाओं पर काम कर रहे हैं.

अजब संयोग था कि दुनिया के निवेशकों का भारत के पर्यटन कारोबार की संभावनाओं से ठीक उस वक्त परिचय हो रहा था, जब भारत के टीवी चैनलों पर पाकिस्तान से युद्ध में हिसाब बराबर करने के तरीके बताए जा रहे थे. अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है कि पर्यटन जो कि छोटी-सी बीमारी फैलने भर से ठिठक जाता है, उसमें निवेश करने वालों के लिए बीते सप्ताह भारत का माहौल कितना ''उत्साहवर्धक" रहा होगा. जंग की आशंकाओं के बीच पर्यटन बढ़ाने की उलटबांसी दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उलझन बेजोड़ नमूना है।

नरेंद्र मोदी के लिए पाकिस्तान की ग्रंथि पिछले किसी भी प्रधानमंत्री की तुलना में ज्यादा पेचीदा है.पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन से निबटना बड़ी समस्या नहीं है. भारतीय कूटनीति व सेना के पास, पाकिस्तान से निबटने की ताकत व तरीके हमेशा से मौजूद रहे हैं. बांग्लादेश से बलूचिस्तान तक इसके सफल उदाहरण भी मिल जाते हैं मोदी की उलझन सामरिक से ज्यादा राजनैतिक और कूटनीतिक है. मोदी ने भारत को नई तरह के कूटनीतिक तेवर दिए हैं, पाकिस्तान के साथ उलझाव इन तेवरों और संवादों की दिशा बदल सकता है.

1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की कूटनीति को नए आयाम मिले हैं. भारत का बाजार दुनिया के लिए खुला और आर्थिक-व्यापारिक संबंध ग्लोबल कूटनीतिक रिश्तों का आधार बन गए. लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि पाकिस्तान के कारण भारत अपनी कूटनीतिक क्षमताओं का अपेक्षित लाभ नहीं ले पाया. आतंकवाद व पाकिस्तान के साथ तनाव ने भारतीय कूटनीति को हमेशा व्यस्त रखा और भारत की अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा अपने पड़ोसी से निबटने में खर्च होती रही.

पिछले तीन दशक के दौरान हर पांच वर्ष में कुछ न कुछ ऐसा जरूर हुआ, जिसके कारण भारत को अपनी कूटनीतिक ताकत पाकिस्तान को ग्लोबल मंच पर अलग-थलग करने में झोंकनी पड़ी.वाजपेयी के कार्यकाल में भारत उदार बाजार के साथ ग्लोबल मंच पर अपनी दस्तक को और जोरदार बना सकता था लेकिन तत्कालीन सरकार के राजनयिक अभियानों की ताकत का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने, संघर्षों से निबटने और आतंक रोकने में निकल गया.

मनमोहन सिंह कुछ सतर्कता के साथ शुरू हुए. यूपीए के पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने ग्लोबल मंचों पर भारत की पहचान को पाकिस्तान से अलग किया और भारत को दुनिया के अतिविशिष्ट नाभिकीय क्लब में प्रवेश मिला. अलबत्ता 2008 में मुंबई हमले के साथ पाकिस्तान पुनः भारतीय कूटनीति के केंद्र में आ गया. इस घटना के बाद पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन को दुनिया के सामने लाना भारतीय राजनयिक अभियान की मजबूरी हो गई.

मोदी पाकिस्तान के साथ वाजपेयी जैसी सदाशयता को लेकर शुरू हुए थे, लेकिन इसके समानांतर उन्होंने भारतीय कूटनीति को नया आयाम देने का अभियान भी प्रारंभ किया. मोदी का यह ग्लोबल मिशन मौके के माकूल था. दुनिया में मंदी के बीच भारत अकेली दौड़ती अर्थव्यवस्था है और भारत को ग्रोथ के अगले चरण के लिए नए निवेश की जरूरत है. मोदी ने भारतवंशियों के बीच अपनी लोकप्रियता को आधार बनाते हुए, भारत की नई ब्रांडिंग के साथ दुनिया के हर बड़े मंच और देश में दस्तक दी, जिसका असर विदेशी निवेश में बढ़ोतरी के तौर पर नजर भी आया.

पाकिस्तान के डिजाइन मोदी के ब्रांड इंडिया अभियान के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं. उड़ी का आतंकी हमला बड़ा है, फिर भी यह 26/11 या संसद पर हमले जैसा नहीं है. पिछले दो साल में कश्मीर से बाहर आतंकी हमलों की घटनाएं सीमित रही हैं. आतंकी आम लोगों के बजाए सुरक्षा बलों से भिड़ रहे हैं.

मोदी चाहें तो राजनैतिक संवादों को अनावश्यक आक्रामक होने से बचा सकते हैं लेकिन मजबूरी यह है कि 2014 में उनका चुनाव अभियान पाकिस्तान के खिलाफ दांत के बदले जबड़े जैसी आक्रामकता से भरा था. यही वजह है कि पिछले दो साल में आतंकी हमलों में कमी के बावजूद पाकिस्तान से दो टूक हिसाब करने के आग्रह बढ़ते गए हैं और मोदी सरकार पाकिस्तान को प्रत्यक्ष जवाब देने के जबरदस्त दबाव में है, जो पिछले किसी भी मौके की तुलना में सर्वाधिक है.

वाजपेयी से मोदी तक आते-आते पाकिस्तान ज्यादा आक्रामक, विघटित और अविश्वसनीय हो गया है, जबकि भारत की जरूरतें और संभावनाएं बड़ी व भव्य होती गई हैं. पाकिस्तान से भारत के रिश्ते हमेशा साहस, संयम और सूझबूझ का नाजुक संतुलन रहे हैं. वक्त बदलने, दक्षिण एशिया में हथियारों की होड़ बढऩे और ग्लोबल ताकतों की नाप-तौल बदलने के साथ यह संतुलन और संवेदनशील होता गया है.

उड़ी हमले के बाद आर-पार की ललकारों के बावजूद भारत का संयम, दरअसल, उस संतुलन की तलाश है, जिसमें कम से कम नुक्सान हो. भारत चाहे पाकिस्तान को सीधा सबक सिखाए या फिर कूटनीतिक अभियान चलाए, दोनों ही स्थितियों में मोदी को उन बड़ी सकारात्मक उम्मीदों का ध्यान रखना होगा जो उनके आने के बाद तैयार हुई हैं.

अमेरिकी विचारक जेम्स फ्रीमैन क्लार्क कहते थेः ''नेता हमेशा अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं, लेकिन राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में." हमें उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी इस संवेदनशील मौके पर राजनेता बनकर ही उभरेंगे.

Monday, March 16, 2015

कूटनीति का निजीकरण


चीन ने छोटे मुल्कों में जो काम अपनी विशाल सरकारी कंपनियों के जरिए किया, भारत उसे निजी कंपनियों के साथ करना चाहता है.

टैक्स व महंगाई की खिच-खिच के बीच कम ही लोगों का ध्यान बजट की इस घोषणा पर गया होगा कि सरकार एक नई प्रोजेक्ट डेवलपमेंट कंपनी बनाने वाली है जो दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों कंबोडिया, म्यांमार, लाओस और विएतनाम (सीएमएलवी) में भारतीय निजी कंपनियों के निवेश का रास्ता तैयार करेगी. बजट का यह प्रस्ताव संकेत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी घरेलू मोर्चे पर भले ही उलझ रहे हों लेकिन ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को लेकर उनकी तैयारियां चाक-चौबंद हैं. निजी निवेश की पीठ पर विदेश नीति को बिठाना और इस मकसद से एक सार्वजनिक कंपनी का गठन, दरअसल कूटनीति का पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल है, जो भारतीय अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नया आयाम दे सकता है. कूटनीति की यह नई करवट हिंद महासागर के द्वीपीय देशों में प्रधानमंत्री की ताजा यात्रा की रोशनी में खासी महत्वपूर्ण हो गई है.
भारत की कूटनीतिक रणनीति का नया स्वरूप मोदी के ताजा ग्लोबल अभियानों की नसीहतों से निकला है. प्रधानमंत्री को भावुक भारतीयता और भारतवंशियों से जुड़ाव की सीमाओं का एहसास होने लगा है. ग्लोबल सुरक्षा और एकजुटता के रणनीतिक विमर्श बड़े देशों को जोड़ सकते हैं लेकिन छोटे देशों से रिश्तों में महाशक्तियों से संबंधों जैसी भव्यता नहीं भरी जा सकती. इन्हें तो ठोस आर्थिक लेन-देन की जमीन पर टिकाना होता है जिसका कोई मजबूत मॉडल भारत के पास नहीं है. मोदी विदेश नीति में बड़े और छोटे देशों से रिश्तों का अलग-अलग प्रारूप तय करना चाहते हैं ताकि ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को समग्र रूप से साधा जा सके. सेशेल्स, मॉरिशस और श्रीलंका जैसे छोटे देशों से उनके पहले संवाद के नतीजे इस रणनीति के लिए काफी अहम होंगे. 
ग्लोबल बिसात पर प्रशांत व अटलांटिक महासागरीय क्षेत्रों के दबदबे के कारण हिंद महासागर, न केवल चर्चाओं से लगभग बाहर है बल्कि यह क्षेत्र पिछले 25 वर्ष में निष्क्रिय कूटनीतिक प्रयोगों का अजायबघर भी बन गया  है. करीब 1.5 अरब लोगों की आबादी को जोडऩे वाला दक्षेस, 1985 से अब तक दो दर्जन से अधिक शिखर बैठकों के बावजूद बड़ी संधियां तो दूर, संवाद का एक गतिमान ढांचा तक नहीं बना पाया. 1997 में थाईलैंड की अगुआई में बना सात देशों का बिक्वसटेक-ईसी (बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टोरल टेक्निकल ऐंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन) को एक सचिवालय बनाने में 17 साल लग गए. 2000 में बना मेकांग गंगा कोऑपरेशन भी 15 साल में कुछ बयानों से आगे नहीं बढ़ा. ऑस्ट्रेलिया, भारत, दक्षिण अफ्रीका व ईरान सहित 20 देशों की सदस्यता वाला इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन (1995) इस क्षेत्र का सबसे महत्वाकांक्षी अभियान था लेकिन यह भी जहां का तहां खड़ा है.
नरेंद्र मोदी जब इस क्षेत्र में नई शुरुआत कर रहे हैं तो उनकी पीठ पर इन बड़े कूटनीतिक प्रयोगों की असफलता भी लदी है. ये विफलताएं भारत के खाते में सिर्फ इसलिए नहीं चमकती हैं कि वह हिंद महासागर के किनारे मौजूद सबसे बड़ा मुल्क है बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि हिंद महासागर व शेष विश्व में छोटे मुल्कों से संबंधों का कोई ठोस प्रारूप भारत के पास नहीं है. भारतीय कूटनीति इन छोटे देशों से रिश्तों में छात्रों को वजीफे, पर्यटन और लाइन ऑफ क्रेडिट से आगे नहीं बढ़ पाई. सांस्कृतिक संबंधों की दुहाई भी एक सीमा तक काम आती है.
छोटे मुल्कों के लिए दोस्ती का मतलब उनकी तरक्की में सीधी भागीदारी है. यही वजह थी कि चीन की  कूटनीति निवेश की पीठ पर बैठ कर आगे बढ़ी. चीन ने विदेशी मुद्रा भंडार व भीमकाय सरकारी कंपनियों के जरिए हिंद महासागर से लेकर अफ्रीका व यूरोप तक कई छोटे देशों के आर्थिक हितों को सीधे तौर पर प्रभावित किया है. भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार की ताकत नहीं है जिसके जरिए छोटे देशों में निवेश किया जा सके. सरकारें कारोबार में सीमित हिस्सा रखती हैं, इसलिए हिंद महासागर क्षेत्र में सरकारों के बीच सहयोग की कोशिशें बहुत परवान नहीं चढ़ीं. यही वजह है कि मोदी अपनी कूटनीतिक सफलता के लिए भारत की निजी कंपनियों की तरफ मुखातिब हैं.
हिंद महासागर की यात्रा से पहले पूर्वी एशिया में निवेश का रास्ता बनाने वाली नई कंपनी का ऐलान यह बताने की कोशिश है कि चीन ने छोटे मुल्कों में जो काम अपनी विशाल सरकारी कंपनियों के जरिए किया, भारत उसे निजी कंपनियों के साथ करना चाहता है. नरेंद्र मोदी ने सेशेल्स, मॉरिशस व श्रीलंका की बैठकों में इस नई पहल का जिक्र जरूर किया होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री के श्रीलंका पहुंचने से पहले ही भारतीय उद्योग के कप्तानों की एक टीम कोलंबो पहुंच गई थी.हाल के वर्षों में किसी छोटे देश में भारतीय कंपनियों के अधिकारियों का यह सबसे बड़ा जमावड़ा था. निजी निवेश को कूटनीति से जोडऩे का यह प्रयोग केवल पूर्वी एशिया तक सीमित नहीं रहेगा. मोदी यही प्रयोग हिंद महासागर के लिए करेंगे और उनकी अफ्रीका यात्रा में भी ऐसी कोशिश नजर आएगी.
भारत की निजी कंपनियां और विदेश में बसे भारतवंशी, मोदी के ग्लोबल अभियान का आधार बनते दिख रहे हैं. चुनौती यह है कि भारत की निजी कंपनियां ग्लोबल पैमाने पर बहुत छोटी हैं. मोदी की कूटनीतिक योजनाओं में मदद के लिए उन्हें ग्लोबल साख, ताकत, पारदर्शिता और बड़ा आकार चाहिए, ताकि लाओस, कंबोडिया से लेकर मॉरिशस और सेशेल्स तक कारोबारी जोखिम लिये जा सकें. दूसरी तरफ अनिवासी भारतीय केवल चमकते भारत को और चमका सकते हैं, विदेश में बसे समृद्ध चीनियों जैसा निवेश नहीं कर सकते.
प्रधानमंत्री विदेशी मंचों से चाहे जितने भावुक आह्वान करें लेकिन हिंद महासागर भ्रमण के बाद उन्हें इस हकीकत का एहसास भी हो जाएगा कि उनकी ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को भारत में अच्छी गवर्नेंस और तेज ग्रोथ की बुनियाद चाहिए. इसके बिना न निजी कंपनियां सक्रिय होंगी और न उनके मुरीद भारतवंशी सक्रिय रह पाएंगे. विदेशी मंच से भारत को संबोधन बहुत हुआ, अब मोदी को देश की जमीन से विदेश को संबोधित करना होगा.



Monday, November 24, 2014

मोदी के भारतवंशी


भारतवंशियों पर मोदी के प्रभाव को समझने के लिए शेयर बाजार को देखना जरुरी है. यहां इस असर की ठोस पैमाइश हो सकती है. इन अनिवासी भारतीय पेश्‍ोवरों की अगली तरक्की, अब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है.
मोदी सरकार बनाने जा रहे हैं इसमें रत्ती भर शक नहीं है. आप यह बताइए कि आर्थिक सुधारों पर स्वदेशी के एजेंडे का कितना दबाव रहेगा?” यह सवाल भारतीय मूल के उस युवा फंड मैनेजर का था जो इस साल मार्च में मुझे हांगकांग में मिला था, जब नरेंद्र मोदी का चुनाव अभियान में देश को मथ रहा था. वन एक्सचेंज स्क्वायर की गगनचुंबी इमारत के छोटे-से दफ्तर से वह, ऑस्ट्रेलिया और जापान के निवेशकों की भारी पूंजी भारतीय शेयर बाजार में लगाता है. हांगकांग की कुनमुनी ठंड के बीच इस 38 वर्षीय फंड मैनेजर की आंखों में न तो भावुक भारतीयता थी और न ही बातों में सांस्कृतिक चिंता या जड़ों की तलाश, जिसका जिक्र विदेश में बसे भारतवंशियों को लेकर होता रहा है. वह विदेश में बसे भारतवंशियों की उस नई पेशेवर पीढ़ी का था जो भारत की सियासत और बाजार को बखूबी समझता है और एक खांटी कारोबारी की तरह भारत की ग्रोथ से अपने फायदों को जोड़ता है. भारतवंशियों की यह प्रोफेशनल और कामयाब जमात प्रधानमंत्री मोदी की ब्रांड एंबेसडर इसलिए बन गई है क्योंकि उनके कारोबारी परिवेश में उनकी तरक्की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है. यही वजह है कि भारत को लेकर उम्मीदों की अनोखी ग्लोबल जुगलबंदी न केवल न्यूयॉर्क मैडिसन स्क्वेयर गार्डन और सिडनी के आलफोंस एरिना पर दिखती है बल्कि इसी फील गुड के चलते, शेयर बाजार बुलंदी पर है. इस बुलंदी में उन पेशेवर भारतीय फंड मैनेजरों की बड़ी भूमिका है जिनमें से एक मुझे हांगकांग में मिला था.
भारत के वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की एक गहरी पड़ताल उन मुट्ठी भर भारतीयों की ताकत बताती है जो मोदी की उम्मीदों के सहारे